Wednesday, June 24, 2009

मत बुझाओ इंतजार का चांद

तिथियों की गणना के हिसाब से तो पूर्णमाशी थी उस रोज लेकिन चांद न जाने कहां गुम था। हवाओं ने जिस्म को सहलाया तो महसूस हुआ कि हवाओं में भी तिथियों की वही गणना है जो ज़ेहन में। कैलेंडर-वैंलेंडर की बात नहीं है। दिल की बातें और वही हिसाब-किताब। न एक रत्ती कम, न एक रत्ती ज्यादा।

इंतजार की गहरी पीड़ा से डूबे, रचे-बुने एक-एक लम्हे की कीमत सोने या हीरे से कम भी तो नहीं होती। इसलिए पक्के सुनार की तरह हर लम्हे का सही-सही हिसाब रखना होता है. एक अनकहा वादा था दोनों के बीच कि पूर्णमाशी का चाँद साथ देखेंगे हमेशा. उस रात की सारी हवाओं को एक साथ पियेंगे. जख़्मों को खुला छोड़ देंगे कि हवा ही लगे कुछ. तो ये कौन सी अमावस आ गई है, जिसने तिथियों का हिसाब-किताब बिगाड़ दिया।

देखो, उस पगली को लालटेन लेकर ढूंढ रही है अपने ख्वाब का चांद...


Monday, June 22, 2009

ये मेरी उम्र मोहब्बत के लिए थोड़ी है

िजंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं
मैं तो मर कर भी मेरी जान तुम्हें चाहूंगा।


तू मिला है तो एहसास हुआ है मुझको
ये मेरी उम्र मोहब्बत के लिए थोड़ी है,


इक $जरा सा $गमे दौरा का भी है ह$क है जिस पर
मैंने वो सांस भी तेरे लिए रख छोड़ी है


तुझ पे हो जाऊंगा कुर्बान तुझे चाहूंगा
मैं तो मरकर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा...


अपने जज़्बात में नग़्मात रचाने के लिए
मैंने धड़कन की तरह दिल में बसाया है तुझे,


मैं तस्सवुर भी जुदाई का भला कैसे करूं
मैंने $िकस्मत की लकीरों से चुराया है तुझे,


प्यार का बनके निगहेबान तुझे चाहूंगा
मैं तो मरकर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा...

तेरी हर चाप से जलते हैं ख्य़ालों में चिरा$ग
जब भी तू आये जगाता हुआ जादू आये

तुझको छू लूं तो फिर ऐ जाने तमन्ना मुझको
देर तक अपने बदन से तेरी खुश्बू आये

तू बहारों का है उन्वान तुझे चाहूंगा
मैं तो मरकर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा...

Sunday, June 21, 2009

संगीत का दिन और दिल का साज



आज विश्व संगीत दिवस है. मुझे नहीं पता कि ऐसे दिनों का क्या महत्व होता है लेकिन इतना $जरूर है कि मेरे लिए हर दिन संगीत का दिन, कविता का दिन हो यही चाहती हूं. कविता जिसमें  जिन्दगी  के सारे रंग हों, संगीत जिसमें जिं़दगी के सारे आरोह-अवरोह, मींड़, गम$क, मुर्की, आलाप सब शामिल हों. न जाने कितने सुर अपने-अपने सधने के इंत$जार में बेकल होकर इधर से उधर घूम रहे हैं. कई बार तो ये हमारे बेहद करीब से हमें छूते हुए निकल जाते हैं. कोई मुंह देखता है तो कोई, सिरहाने बैठ ही जाता है चुपचाप . ये सुर भी चाहते हैं कि कोई आए और थाम ही ले उन्हें. लेकिन यह सबके बूते की बात नहीं. बहुत रिया$ज चाहिए. कड़ी साधना. देह के इस साज में सांसों का सुर साधना भी रिया$ज ही तो है. आइये हम सब साधते हैं अपनी-अपनी जिं़दगी के तमाम बिखरे हुए, टूटे हुए सुर कि िजंदगी मुस्कुरा ही उठे. आमीन!

Saturday, June 13, 2009

सफर में शब्द और कोई नहीं...

सूरज की एक तिरछी सी पतली लकीर लड़की के गालों को छूते हुए माथे पर पड़ रही थी. लड़का उसे देख रहा था. लड़के ने अपने भीतर कुछ पिघलता हुआ महसूस किया. उसने पूरे भावों के साथ कुछ कहा लड़की से. शब्द चले हौले-हौले एक सफर को. सफर लंबा था भी, नहीं भी. हर शब्द संभलता हुआ, बिखरता हुआ बस पहुंचने की जल्दी में. धरती ने आकाश को कुछ कहते हुए देखा. सुना नहीं. शब्द सफर में थे अब तक. लड़की मुस्कुराई. लड़के की आंखों में कोई गीली सी लकीर उभर आई थी. लड़की ने पलकें मूंद ली थीं बस. लड़के ने उन मुंदती पलकों में खुद को कैद होते हुए महसूस किया. शब्द अब तक सफर में थे. लड़की अतीत की गर्द झाड़-पोंछकर मन के आंगन को साफ कर रही थी।

लड़का अभिभूत था. उसके आंचल का एक कोना भर मुट्ठी में पकड़कर लड़के को लगा कि उसने पूरा आसमान मुट्ठी में ले लिया है. लड़की के माथे पर सूरज चमक रहा था. उसकी बिंदी को रोशनी से भर रहा था. उसकी आखों में भी रोशनी झांक रही थी. लड़का अपनी हथेलियों से लड़की के माथे पर पड़ती रोशनी को रोक लेना चाहता था. लड़की ने मना किया ऐसा करने से. लड़का मान गया।

लड़की ने दरवाजे पर सजाये वसंत के पौधे में बड़े दिनों बाद पानी डाला. बालकनी में झुक आई पूरनमाशी की डाल पर स्मृतियों के फूल न जाने कब से लगे-लगे मुरझा चुके थे. जाने कौन सा मोह था कि लड़की ने उसे सहेजा हुआ था अब तक. उस रोज लड़की ने उन सारे सूखे फूलों को अपने आंचल में भर कर पूरणमाशी की डाल को नये फूलों के लिए खाली कर दिया।

लड़का देख रहा था सब कुछ. शब्द अब भी सफर में थे. लड़की न जाने कहां खोई हुई थी. उसे न जाने कितना काम था. वह बीच-बीच में लड़के को देख लेती थी मुस्कुरा कर. लड़की के माथे पर पसीने की बूंदे हीरे सी चमक रही थीं. लड़का उनकी खूबसूरती में डूबा था. उसका दिल चाहा कि ये हीरे ऐसे ही चमकते रहे हैं हमेशा. लेकिन लड़की ने पसीना अपने कुर्ते की बांह से पोंछ लिया. लड़का अनमना हो गया. लड़की ने बिखरे हुए बालों का जूड़ा बनाया. जूड़ा पसंद नहीं था लड़के को. वह बालों को खुला देखना चाहता था. जुल्फों के जंगल में खुद को खो देना चाहता था. उनकी खुशबू को अपने भीतर बसा लेना चाहता था. लेकिन लड़की ने उन्हें बांध लिया था।

लड़का अब तक लड़की के प्रेम का इंत$जार कर रहा था. लड़की एकदम बेफिक्र थी, जैसे उसे किसी बात की परवाह नहीं थी. लड़का अब बेसब्र होने लगा था. लड़की अनजान ही रही और घर की दीवारों पर अपनी पसंद की पेंटिंग्स को टांगती रही।

लड़के ने फिर कुछ कहा, लड़की ने सुना नहीं. शब्द फिर सफर में...लड़के ने लड़की की आंखों पर अपनी हथेली रख दी. कानों के पास चूम लिया धीरे से. लड़की मुस्कुराई. हथेली हटाकर भी आंखें बंद ही रखीं उसने. क्या कहा तुमने? लड़की ने पूछा
प्रेम ? लड़के ने कहा।
कुछ शब्दों का सफर पूरा हो चुका था शायद. लड़की $जोर से खिलखिलाई.
...प्रेम?
जानते भी हो प्रेम?
हां, जो मुझे तुमसे है? लड़का बोला।
लड़की हंसी।
उठकर चली गई भीतर।
जानती थी वो, प्रेम पुरुषों को सिर्फ लुभाता है. उन्हें नहीं मालूम क्या होता है प्रेम कैसा होता है और कैसे किया जाता है?

लड़की हंसती रही देर तक....गहरी हंसी...हंसी ही हंसी...पूरे कमरे में उसकी खिलखिलाहटें बिखर गई थीं. बालकनी में अभी-अभी खाली हुई वो डाल उसकी हंसी के फूलों से भर गई. उदास सा वसंत चौंककर सुनने लगा उस हंसी को. लड़का घबरा गया लड़की को इस कदर हंसते देख. उसने उस हंसी को छुआ तो हाथ भीग गये उसके. ऐसी उदास, गीली हंसी उसने कभी नहीं देखी थी. लड़का डर गया...बाहर निकल गया घर से।

लड़की हंसती रही...हंसती रही...लड़के के शब्द जिनमें जन्मो का साथ, सदियों की मोहब्बत और न जाने क्या क्या था, अब तक सफर में थे।
हालांकि लड़का अब सफर में नहीं था।
कहीं नहीं.

Thursday, June 11, 2009

पाब्लो नेरुदा - लिख सकता हूँ दर्द भरी कविता

ऐसा कोई कविता प्रेमी नहीं होगा समूचे विश्व में जो पाब्लो नेरूदा की कविताओं से नावाकिफ हो. लेकिन पाब्लो नेरूदा से मेरा पहला जुड़ाव होने की वजह कविता नहीं थी. कच्ची उम्र में हमारे भीतर कुछ अजीब किस्म के हठ बैठ जाते हैं. उन्हीं की उत्पत्ति होते हैं कुछ लगाव भी और दुराव भी. पाब्लो की कविताओं को पहली बार हाथ इस वजह से लगाया था कि उन्हें गैब्रिएला मिस्त्राल ने तराशा था. जी हां, वही नोबेल प्राइज विनर गैब्रिएला. मेरा गैब्रिएला पर विश्वास था और गैब्रिएला का उन पर. यह विश्वास ही मेरे पाब्लो नेरूदा की कविताओं के करीब जाने की वजह बना. वजह कुछ भी हो लेकिन जाना इतना सार्थक था कि वह सार्थकता अब तक हर कदम पर साथ निभाती है. उनके विश्व प्रसिद्ध काव्य संग्रह ट्वेंटी लव पोयम्स एंड अ सांग ऑफ डिसैपियर ने दुनिया भर को अपना दीवाना बनाया हुआ है. इसका हिंदी में अनुवाद संवाद प्रकाशन ने किया जो हाल ही में मेरे हाथ लगा. यह अनुवाद अशोक पांडे जी ने किया है. बीस प्रेम कविताएं और हताशा का एक गीत. इसी संग्रह से एक कविता यहां प्रस्तुत है. इस संग्रह की एक और उपलब्धि है पाब्लो नेरूदा का बेहद महत्वपूर्ण साक्षात्कार. इस साक्षात्कार का अनुवाद वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल जी ने किया है. यह साक्षात्कार कई लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण है. इसके कुछ बेहद संक्षिप्त अंश भी यहां जरूर डालूंगी सिर्फ पाब्लो नेरूदा के प्रति भूख जगाने के लिए. क्योंकि पढऩे की भूख मिटाने के लिए तो किताबों तक जाना ही होगा। - प्रतिभा

लिख सकता हूं आज की रात बेहद दर्द भरी कवितायें
लिख सकता हूं उदाहरण के लिए: तारों भरी है रात

और तारे हैं नीले कांपते हुए
सुदूर रात की हवा चक्कर काटती आसमान में गाती है।

लिख सकता हूं आज की रात बेहद दर्द भरी कवितायें
मैंने प्रेम किया उसे और कभी-कभी उसने भी प्रेम किया मुझे
ऐसी ही रातों में मैं थामे रहा उसे अपनी बांहों में
अनंत आकाश के नीचे मैंने उसे बार-बार चूमा।

उसने प्रेम किया मुझे और कभी-कभी मैंने भी प्रेम किया उसे
कोई कैसे प्रेम नहीं कर सकता था उन महान और ठहरी हुई आंखों को।

लिख सकता हूं आज की रात बेहद दर्द भरी कवितायें

सोचना कि मेरे पास नहीं है वह।
महसूस करना कि उसे खो चुका मैं।
सुनना इस विराट रात को जो और भी विराट है उसके बगैर
और कविता गिरती है आत्मा पर जैसे चरागाह पर ओस।


अब क्या फर्क पड़ता है कि मेरा प्यार संभाल नहीं पाया उसे
तारों भरी है रात और वह नहीं है मेरे पास।


(वान गौग का चित्र गूगल से साभार)

Wednesday, June 10, 2009

ऐसे भी कोई जाता है क्या...हबीब तनवीर

हबीब साहब नहीं रहे, यह खबर भी कभी सुननी पड़ेगी इस बात को जैसे मन कब का नकार चुका था। वे लंबे समय से बीमार थे। फिर भी यह यकीन नहीं था कि वे इस तरह छोड़कर चल देंगे. मन के किसी कोने में कुछ टूटकर बिखर सा गया इस खबर को सुनते ही. न जाने कितनी बातें, कितनी यादें ज़ेहन में घूमने लगीं. पिछली बार मेरी उनसे मुलाकात मुंबई में हुई थी. उनका वो चेहरा जैसे आंखों के सामने आ गया. जैसे वो अभी वो कंधे पर हाथ रखेंगे और कहेंगे चल नहीं रहे हो नाटक देखने?

पिछली बार मुम्बई में जब हम मिले थे, तो उनकी बॉयोग्राफी का पाठ हो रहा था. सारे लोग तन्मयता से उसमें डूबे हुए थे. पाठ खत्म हुआ तो सब लोग पृथ्वी थियेटर की ओर नाटक देखने के लिए जाने लगे. उन्होंने मुझसे कहा, तुम नहीं चल रहे हो? मैंने कहा, मेरे पास इतने पैसे नहीं हंै कि इतना महंगा टिकट लेकर नाटक देखने जाऊं. वो $जरा सा मुस्कुराते हुए कंधे पर हाथ रखकर बोले, पैसे नहीं हैं या दावत में जाना है? नहीं मालूम था उनका वो मुस्कुराता हुआ चेहरा अंतिम स्मृति बन जायेगा. उनका वह वाक्य अंतिम वाक्य. कितना कुछ था उस वाक्य में।

थियेटर के प्रति उनका लगाव तो खैर, सब जानते ही हैं लेकिन उस लगाव के बीज कैसे नई पीढ़ी में बोने हैं यह भी उन्हें अच्छी तरह मालूम था. हबीब साहब बेहद जिं़दादिल, पॉजिटिविटी से भरपूर इंसान थे. वक्त के बदलाव पर उनकी नज़र थी और वे आगे बढ़कर बदलावों का स्वागत करने वालों में से थे. टेकनीक, कॉस्ट्यूम, प्रेजेंटेशन, तौर-तरीका सब कुछ उन्होंने वक्त-वक्त पर अपडेट किया, यकीनन बेहतरी के लिहाज से. उनका व्यक्तित्व इस कदर मुकम्मल था कि उनका जैसे किसी दूसरे व्यक्ति की कल्पना भी मुिश्कल है. एक्सपेरिमेंट करने में उन्हें बहुत मजा आता था।

पिछली बार जब राष्ट्रीय नाट्य समारोह में वो अपने नाटक 'राजरक्तÓ के साथ लखनऊ में थे. तब मैं सारा दिन उनके साथ था. उनकी एनर्जी देखकर हैरान था. किस कदर काम कर रहे थे वे. एक साथ निर्देशन, इंटरव्यू्र देना, लोगों से बातचीत करना सब कुछ. कहीं कोई थकान नहीं. हम लोग $जरा सी तबियत खराब होती है और निढाल हो जाते हैं. उस शाम को शहर ने एक शानदार नाटक देखा.एक बार हबीब साहब के ऑनर में राज बिसारिया जी के यहां पार्टी थी. मनोहर सिंह, बीएमशाह, सुधीर मिश्रा और भी कई मशहूर हस्तियां वहां मौजूद थीं. मैं भी वहां था. गाना और म्यूजिक वगैरह चल रहा था. कुछ लोग डांस भी कर रहे थे. उन्होंने पूछा, तुम लोग डांस क्यों नहीं कर रहे हो? मंैने कहा डांस नहीं आता. उन्होंने कहा डांस नहीं आता क्या होता है, डांस तो मन से होता है. उसके बाद उन्होंने हाथ पकड़कर हमें उठाया और हमने काफी देर तक डांस किया. इस कदर जि़ंदगी से भरपूर थे हबीब साहब।

मुझे लगता है कि उम्र को दरकिनार कर दें, तो उनसे ज्यादा युवा नहीं था कोई. हबीब साहब को फोक बहुत प्रिय था. एक वाकया बड़ा मजेदार याद आ रहा है उनके इस लोक प्रेम का. 1978 की बात है. मिट्टी की गाड़ी नाटक लेकर वे लखनऊ आये थे. एक दिन हमने देखा उनकी गाड़ी में कई औरतें भरी हैं, जो सड़कों पर ढोलक हारमोनियम वगैरह लेकर घूमती हैं. वे उन्हें लाये और उनसे हमने खूब देर तक कजरी, चैती, सावन, झूला वगैरह सुना. वे रियलिटी को फील करने के लिए उसके करीब जाते थे. मॉडर्न थियेटर की टेकनीक और फोक का सुंदर सामंजस्य देखने को मिलता है उनके नाटकों में।

वे इस कदर फुल ऑफ एनर्जी थे कि उनके साथ थोड़ा सा वक्त बिताना भर हमें जिंदगी से भर देता था. एक बार नाटक से पहले मंच पर कुछ लोग गाना गा रहे थे. वे वहीं थे. उन्होंने कहा, रुको मैं भी आता हूं. वे लपककर मंच पर चढ़ गये और सबके साथ सुर में सुर मिलाकर पूरे जोश में गाने लगे. वे एक निहायत संवेदनशील इंसान थे. आमतौर पर कहा जाता है कि परफेक्शिनस्ट लोगों को गुस्सा बहुत आता है लेकिन मैंने उन्हें गुस्से में कभी नहीं देखा. वे पूरे पेशेंस के साथ रिहर्सल करवाते थे, इंस्ट्रक्शंस देते थे और मुस्कुराते हुए अपने पाइप से खेलते रहते थे. अब तक दिल को यकीन नहीं हुआ है कि वे अब नहीं हैं. ऐसे भी कोई जाता है क्या......
- जुगल किशोर (लखनऊ के रंगकर्मी )
प्रतिभा से बातचीत पर आधारित और आई नेक्स्ट में प्रकाशित

Sunday, June 7, 2009

फैज़

आस उस दर से टूटती ही नहीं

जाके देख लिया, न जाके देख लिया...

Saturday, June 6, 2009

फरिश्ते के हाथ

ध्यान से देखा तो पता चला जिन्हें मैं हमेशा से अपने मानता रहा, वे हाथ मेरे नहीं है. वैसे मुझे अपने हाथ अच्छे से याद हैं, यह जरूर है कि उन्हें देखना कभी-कभार ही हो पाता था. और अब तो उन्हें देखे अरसा हो गया था. इस बीच बिना हाथ की ओर एक बार भी देखे, मैं समझता रहा कि वे हाथ जिन्हें लेकर मैं मां के गर्भ से धरती पर उतरा था, अब भी मेरे दांये-बांये झूल रहे हैं।

मुझे भरोसा था कि ये वे ही हैं जो गाहे-बगाहे कलम पकड़ लेते हैं और उसकी भीगी आंखों से उसके आंसुओं को मेरी जीभ तक खींच लाते हैं और कभी-कभी अंधेरे कमरे में दरवाजे की सांकल खोजते हैं. कितना समय बीत गया इस भरोसे में जीवन बिताते।

अभी हाल में मुझे पता चला कि मरे हाथों को बदल दिया गया है. मैं जिन्हें अपने मानता रहा, वे हाथ किसी और के हैं. शायद इसलिए मुझे कई बार आश्चर्य हुआ है, वह कर गुजरने पर जिसके मैं सर्वथा अयोग्य था. वह लिखने पर जिसे पढ़कर लगा जैसे किसी और का लिखा पढ़कर लगा जैसे किसी और का लिखा पढ़ रहा हूं।

अब अंदेशा होने लगा है कि हो न हो कोई चोर किसी भले मानस के हाथ चुराकर भाग रहा होगा कि अचानक पकड़े जाने के डर से उसने उन हाथों को मेरे हाथों से बदल दिया और मेरे हाथ लेकर बेखौफ भाग गया. यह अंदेशा भी होने लगा कि से निश्चय ही किसी फरिश्ते के हाथ हैं, वरना ये उसकी भीगी आखों से उसके आंसुओं को मेरी जीभ तक इतना सुरक्षित नहीं पहुंचा पाते और मेरी खातिर खोजते नहीं अंधेरे कमरे में जंग लगी सांकल और मुझे वह सब नहीं लिखने देते जो मैं उनके बारे में उन्हीं से बेलॉग लिख रहा हूं।
- उदयन वाजपेयी
(उद्भावना कवितांक से साभार )

Friday, June 5, 2009

ये ख्वाब हमने ही आंखों में सजाया होगा.


कौन....
कौन आया था यहां?
तुम बताओ...?
चलो तुम ही बताओ?
कोई तो बताओ, कौन आया था यहां?
सुबह-सुबह आंख खुलने के बाद जैसे ही आंगन में पांव रखा तब से यही सवाल करती फिर रही हूं सबसे।
कारण...?
कारण बताती हूं...कारण तो बताना ही होगा ना?
आंख खुलते ही देखती क्या हूं पूरा घर पौधों से भरा हुआ है. पांव रखने की जगह तक नहीं. छोटे-बड़े पौधे...पौधे ही पौधे...इतने सारे पौधे, एक साथ घर में? हड़बड़ा ही गयी मैं? घरवालों से, पड़ोसियों से सबसे पूछ आई. कुछ पता नहीं चला कि कहां से आये पौधे. थक गई पूछ-पूछकर।
बैठी जो हारकर, तो पौधों पर नजर पड़ी. कितने खूबसूरत थे सारे के सारे. किसी में पहला कल्ला फूट रहा था. किसी में बीज ने अभी-अभी अंगड़ाई ली थी. कहीं दो पत्तियां मुस्कुरा रही थीं. कुछ जरा ज्यादा ही शान से खड़े थे. उनकी शाखों पर फूल जो खिल चुके थे. ध्यान दिया तो सारे ही मेरी पसंद के पौधे थे. कभी कोई पसंद आया था, कभी कोई।
गुस्सा अब उड़ चुका था. मुस्कुराहट काबिज थी, यह सोचकर कि ये सारे मेरे हैं. सारे के सारे मेरे हैं. अब दूसरा सवाल. कहां लगाऊं इन्हें?
कैसे संभालूं इन्हें कि सूख न जाये एक भी. हर शाख, हर पत्ती, हर गुल को बचाने की फिक्र. जितनी क्यारियां थीं, सबको दुरुस्त किया...जितने गमले थे, सबको सहेजा. पौधे रोपे....उनमें पानी डाला. बहुत सारे पौधे अब भी बचे थे. कहां ले जाऊं उन्हें।
तभी कुछ बच्चे आ खड़े हुए...पौधों को हसरत से देखने लगे. उनकी आंखें पौधे मांग रही थीं. लेकिन मेरा मन कौन सा कम बच्चा था. जोर से बोला, नहीं एक भी नहीं देना है. सब मेरे हैं. दोनों हाथों से पौधों को सहेज लेना चाहा.लेकिन कोई चारा नहीं था. धूप फैल रही थी. साथ ही चिंता भी कि कैसे संभालूं इन प्यारे, नाजु़क पौधों को. हार गई आखिर. अधिकार छोडऩा ही उचित लगा।
बच्चों को प्यार से देखा. सारे बच्चों को एक-एक पौधा दिया।
यह गिफ्ट है मेरा।
खूब अच्छे से परवरिश करना।
देखो सूखे ना।
आसान नहीं है पौधों की परवरिश करना. समझे!
सुबह-शाम पानी देना.
ज्यादा धूप नहीं, ज्यादा छांव नहीं, ज्यादा पानी भी नहीं।
सब कुछ संतुलित।
मैं देखने आऊंगी... बच्चे पौधे लेकर चले गये।
मैंने राहत की सांस ली कि चलो पौधों की जान तो बची. अपने पौधों को प्यार से देखा मैंने. अचानक मेरे घर में इतनी हरियाली आ गई कि संभाली ही नहीं गई मुझसे. बांटनी पड़ी।
कुछ दिनों बाद जब मैंने बच्चों के घर का रुख किया कि पौधों की खैरियत ली जाये. वहां जाकर देखा कि उनके पौधे पूरी शान से बढ़ रहे थे. मेरे पौधों से भी ज्यादा तंदुरुस्त थे. बच्चे और पौधे दोनों मुस्कुराते मिले. दिल में कहीं जलन सी हुई. पानी तो मैंने भी दिया था समय से. पूरा ख्याल भी रखा, फिर क्यों मेरे पौधे ठहर से गये हैं वहीं. कुछ तो सूख भी रहे हैं लगता है।
दरअसल, ये पौधे नहीं ख्वाब थे सारे के सारे. मेरे ख्वाब. अपने मन का अंागन जब छोटा पड़ा, तो उन ख्वाबों को आजाद किया कि जाओ उन आंखों में सजो, जहां परवरिश मिल सके. ख्वाबों की परवरिश आसान नहीं होती. जो ख्वाब आजाद हुए वे बच गये...जो रह गये वो जूझ रहे हैं मेरे साथ।
कहीं से दो बूंद आंसू उधार मिलें, तो शायद इनकी नमी लौटा सकूं...बचा ही लूं इन्हें...