बाज़ार से रोस्टेड नमकीन खरीदते हुए हमेशा दादी की याद आती है. पचास रूपये के चमकते हुए पैकेट में मुठ्ठी भर बाजरा, मूंग या चना निकलता है. ठीक उसी वक़्त बचपन के वो दिन याद आते हैं, जब गर्मी की छुट्टियों में गांव जाया करती थी. और भी सब कजिन्स आया करते थे. घर का एक कमरा जिसमें दिन के वक़्त भी खासा अँधेरा रहता था उसमें अनाज रखा जाता था. उसे 'मढ़हा' कहा जाता था.
हमारी छुट्टियों के होते ही वो 'मढ़हा' तरह-तरह के खाने के सामान से भर जाता था. दादी हमारा इंतजार किस शिद्दत से करती थीं ये हम इसी तरह जान पाते थे कि उन्हें बाँहों में भरकर प्यार करना आता नहीं था, वो बस चुपके चुपके ख्याल रखते हुए प्यार करना जानती थीं. हमारे इंतजार में वो तरह तरह के अनाज को भाड में भुंजवा के रखा करती थीं. ज्वार, बाजरा, चना, लाई, मूंग, गेंहू, जुंडी और न जाने क्या क्या...सारा दिन मुंह चलता रहता था. कभी फ्रॉक में भरकर, कभी टूकनिया यानि छोटी टोकरी में भरकर गांव भर में घूमा करते थे, खेला करते थे.
तब कौन जानता था कि दादी के मढ़हे के खजाने को बाज़ार इस तरह चुरा लेगा. कि मुठ्ठी भर नमकीन के पैकेट खरीदने होंगे रोस्टेड के नाम पर और उनमें भी वो सोंधापन नहीं होगा, वो स्वाद नहीं होगा...हाँ, बचपन की कुछ यादों को कुरेदने का सामान ज़रूर होगा, देखो न दादी, तुम्हारी याद किन किन तरहों से आती है, रहती है हमारे पास...
(ब्लैक एंड व्हाइट यादें और शाम की चाय)
(ब्लैक एंड व्हाइट यादें और शाम की चाय)