Wednesday, May 4, 2016

सड़क, चाँद और मैं...तन्हा कोई नहीं



पूरा जोर लगाने पर भी वो पत्थर टस से मस नहीं होता. रत्ती भर भी नहीं. और ताक़त, और ताक़त, और ताक़त समेटने का उपक्रम दरअसल खुद को दिया जा रहा धोखा है. जबकि मालूम है कि सारी ताक़त झोंकने के बाद बचता ही क्या है. जिन्दा लम्हों में बड़ी ताक़त होती है, अम्मा की कही बात याद आती है तो समझ में आता है कि उदासियों के ये बड़े बड़े पत्थर जिन्हें हिला पाना दुश्वार होता है एक धडकते लम्हे से लुढक जाता है. उसके नीचे दबी जिन्दगी की तमाम ख्वाहिशों को सिर्फ और सिर्फ चंद जिन्दा लम्हों से आज़ाद कराया जा सकता है. कितनी ही दराजें खंगाल लो, कितनी ही तजवीजें कर लो जिन्दा लम्हे जो बोये होते तो उगते न? सो खाली मुठ्ठियाँ, सूनी आँखें और उदासी का विशाल पत्थर. जो लगातार बढ़ता ही जाता है.

कभी गुलमोहर की छांव उस पर उछाल देने को जी चाहता कभी लीचियों की झुक आई डालों पर लटकते पंछियों की शरारतें. लेकिन जिन्दगी के ये जिन्दा लम्हे सबके लिए होते नहीं. वो दीखते तो हैं लेकिन हाथ बढाओ तो गुम हो जाते हैं. रोज सवेरे उठना और एक बार पूरी ताक़त से उस विशालकाय पत्थर को धकेलने का जैसे नियम हो चला है, ये जानते हुए कि होना कुछ नहीं है. कभी-कभी भ्रम होता है कि हिला है जरा सा, मन में हिलोर सी उठती है लेकिन जल्द समझ में आता है कि भ्रम ही था.

खिड़की के सामने से दिखती सड़क से जितना अपनापन महसूस होता है उतना किसी से नहीं. मानो वो सब जानती है. उस पत्थर की हेठी के बारे में भी और मेरी कंगाली के बारे में कि एक जिन्दा लम्हा नहीं बोया मैंने अपनी जिन्दगी में...हथेलियों की सारी लकीरें कबकी झर चुकी हैं...

खिड़की के बाहर चाँद है, सड़क है...राहगीर कोई नहीं. बिना राहगीर वाली सड़कें भली नहीं लगतीं, कोई तो चलती हुई छाया हो...कुछ तो चहलकदमी...जिन्दगी से बेजार होने के लिए कोई भारी-भरकम वजह का होना ज़रूरी नहीं...सो सड़क, चाँद और मैं...अपनी अपनी तनहाइयों के साथ एक दुसरे का हाथ थामे हुए हैं. तन्हा कोई नहीं, साथ भी कोई नहीं....

उत्तराखंड धधक रहा है, किसकी आह लगी होगी इस धरती को, बादलों का इंतजार है, बादलों के नाम जो लिखे थे ख़त वो एक परिंदा लेकर उड़ गया था, वो शायद पहुंचा नहीं बादलों तक, शायद आंच उसे भी सता रही हो....जो भी हो हम सबको उस पत्थर को हिलाना है, वो जो अपनी नाकामियों, जिद, अहंकार, उदासियों से हमने बढा लिया है...इतना बढ़ा लिया कि अब जिन्दगी बेमानी लगने लगी है...

बादलों की आहट है आसमान में...आओ कुछ ख्वाब बोयें...कुछ धडकते लम्हे...जिन्दगी महज अंधी भाग तो नहीं, सुकून के दो पल, एक सच्ची वाली मुस्कराहट और बस...देखो न नाक पर अभी अभी एक बूँद गिरी है पानी की. सुना तुमने...कुछ बूँदें पलकों के आसपास भी सिमटी हैं, धरती राह तकते तकते थक चुकी है मेरी तरह, लेकिन देखो अभी, बिलकुल अभी वो पत्थर हिला है जरा सा....

बारिशें हमारे जगलों की आग बुझायें और हम अपनी तृष्णा की....अहंकार की....जिद की...लगातार अंधी दौड़ की...मैं फिर से उदासियों के पत्थर को धकेलती हूँ...बिटिया भी मेरा साथ देती है...उदासियों का पहाड़....अब मुस्कुराहटों का हरा भरा जंगल बनने को व्याकुल है....देखा न तुमने ?


1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (06-05-2016) को "फिर वही फुर्सत के रात दिन" (चर्चा अंक-2334) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'