Friday, December 12, 2014

तुम्हारा होना...


तुम्हारा होना
जैसे चाय पीने की शदीद इच्छा होना
और घर में चायपत्ती का न होना

जैसे रास्तों पर दौड़ते जाने के इरादे से निकलना
और रास्तों के सीने पर टंगा होना बोर्ड
डेड इंड

जैसे बारिश में बेहिसाब भीगने की इच्छा
पर घोषित होना सूखा

जैसे एकांत की तलाश का जा मिलना
एक अनवरत् कोलाहल से

जैसे मृत्यु की कामना के बीच
बार-बार उगना जीवन की मजबूरियों का

तुम्हारा होना अक्सर 'हो' के बिना ही आता है
सिर्फ 'ना' बनकर रह जाता है...


Wednesday, December 10, 2014

दरारें दरारें हैं माथे पे मौला...


यह दुःख का समाज है, यहां सुख एक उत्सव की तरह सबसे उपरी पर्त पर अपनी भव्यता के साथ उपस्थित होकर भरमाता है। इसके सीने में अवसाद है जो आंसू बनकर टपप-टपप टपकता रहता है...जो आस्था बनकर किसी नाउम्मीद सी उम्मीद के पीछे दौड़ पड़ता है।

सामने अखबार की कुछ खबरें बिखरी हुई...टीवी चैनल्स पर दौड़ती तस्वीरें...आस्थाओं का समंदर फिर एक बार लहराता हुआ। फिर किसी बाबा का पाखंड उधड़ रहा है...फिर आस्थाओं में भूचाल आया हुआ है। फिर किसी तिलिस्मी दुनिया का दरवाजा सा खुलता है और न जाने कैसी-कैसी खबरें सामने आती हैं। मानो कोई किस्सागोई सी चल रही हो...कोई फैंटेसी। मानो पूस की रात में अलाव के गिर्द घेरा बनाकर बैठे लोग हों...और किस्सागो की भूमिका में उतरे चैनल्स।

लेकिन ये कोई किस्सागो का किस्सा नहीं...कोई फैंटेसी नहीं...यह किसी भी समाज की दुःखद तस्वीर है। तमाम आरोपों के बावजूद धर्म के इन तथाकथित फरमाबरदारों के भक्तों की आस्था में कोई कमी नहीं। वो अब भी उन्हें भगवान, कोई दूत, पैगम्बर, अवतार मानते हैं। वो नहीं मानते उन पर लगे किसी आरोप को। उनकी आस्थाएं अडिग हैं। अनगिनत आस्थाएं कब किसके पीछे चल पड़ें कहना मुश्किल है।

दुःख, पीड़ा, संघर्ष, शोषण और जाहिलियत की जड़ों से उपजी मासूम आस्थाएं। इन आस्थाओं में एक बड़ा वर्ग शोषित वर्ग का है। दुःख से डूबे लोगों का है। वो लोग जो अपनी परेशानियां अपने कंधों पर ढोते-ढोते बूढ़े होने लगते हैं। उनके कंधे पर हाथ रखकर जब कोई आत्मविश्वास से कहता है कि मैं हूं ना...मैं सब ठीक कर दूंगा...उसी वक्त आस्था का जन्म होता है। उस मैं हूं ना के प्रति आस्था....यह बात किसी एक धर्म या किसी एक घटना के बरअक्स पूरी नहीं होती। इसका कैनवास काफी बड़ा है और जिसकी जड़ों में अशिक्षा, सामाजिक जड़ता, वर्गभेद, लिंगभेद, असमानता, असंवेदनशाीलता से जाकर जुड़ती हैं।

जाहिर है इन आस्थाओं में, अंधविश्वास में स्त्रियों की संख्या ज्यादा है। किसी भी धर्म की बात हो, महिलाएं आमतौर पर ज्यादा संख्या में श्रद्धा में डूबी हुई पाई जाती हैं। क्यों न हो आखिर कि शोषित वर्ग में भी जो शोषित है वो स्त्री ही तो है। संवेदनाओं का, भावनाओं का बोझ जिसके कंधों पर है वो स्त्री है। जिसके हिस्से में अब तक शिक्षा की एक पूरी इबारत आना तो दूर कुछ अक्षर भी नहीं आये वो स्त्री है। वो भागती है ऐसे किसी तिलिस्म की ओर जहां से उसे सब ठीक होने के संकेत मिलते हैं....एक वहम उन्हें फुसलाता है...उनके कदम चल पड़ते हैं...वो सब करने को वो राजी होती जाती हैं जिसमें सब ठीक होने का आश्वासन होता है। पुरुष भी होते हैं, और पढ़े-लिखे लोग भी होते ही हैं इसमें शामिल लेकिन वो दूसरी बहस का मुद्दा है कि क्यों हमारी जो शिक्षा है वो वर्गभेद, संकीर्ण मानसिकता की जंजीरें नहीं तोड़ पाती, क्यों शिक्षित होने के बावजूद समता और समानता की जरूरत संविधान में तो शामिल हो गयी लेकिन जीवन में अब तक अपनी जगह नहीं बना पाया। लेकिन यहां बात स्त्रियों की भक्ति और आस्था की है।

मार्क्स कहते हैं कि जिसने भी जरा सा भी इतिहास पढ़ा है वो जानता है कि सामाजिक परिवर्तन महिलाओं के उत्थान के बिना संभव ही नहीं है। तो हमारे समाज की मौजूदा तस्वीर साफ बयान कर रही है, कि हमारा समाज कैसा है और यहां स्त्रियों की स्थिति कैसी है।

मुझे एक तीन बरस पुरानी एक घटना याद आ रही है। एटा जिले के आसपास की एक जगह थी। जून की भरी दोपहरी। वहां के स्थानीय बाबा का आवास। भक्तजनों की भीड़। और तकरीबन एक किलोमीटर पहले से पैदल चलकर आते भक्तजन। तपती हुई सख्त जमीन पर ये लंबा सफर उन्हें जला नहीं रहा था। मुझे वहां सारे चेहरे गमज़दा नज़र आये। सबके लब पर कोई दुआ थी। कोई ऐसा नहीं मिला जो कुछ मांगने न आया हो, जो खुश दिख रहा हो। झुके हुए जिस्मों पर जिंदगी का बोझ तारी थी। भक्तों में ज्यादा संख्या महिलाओं की थी। एक सत्रह बरस की लड़की बार-बार जमीन पर सर पटक रही थी। एक स्त्री बार-बार पानी भरकर आने जाने वालों के रास्ते में गिरा रही थी। एक स्त्री चीख-चीखकर रो रही थी। उसके आसपास कुछ स्त्रियां थीं लेकिन वो उसे चुप नहीं करा रही थीं। तभी एक स्त्री पर नज़र गई, करीब 50 या 55 बरस की एक महिला लगातार एक पेड़ के चक्कर लगा रही थी। तेज दोपहर...बिना खाये पिये...नंगे पैर बस रोती जाती और घूमती जाती। पता चला कि वो करीब डेढ़ महीने से यही कर रही है। उसका 21 बरस का बेटा मर गया है। और उसे ऐसा करने से आराम आता है। वो चक्कर लगाती है...बेहोश हो जाती है...उठती है फिर चक्कर लगाने लगती है। वो सर पटकने वाली सत्रह बरस की लड़की शादी वाले दिन ही विधवा हो गई थी। ऐसी न जाने कितनी दारुण कहानियां खेतों के बीचोबीच उगे उस आस्था के पेड़ पर टंगी हुई थीं।

उस वक्त वो सारी खबरें जेहन में दोबारा जाग उठीं जिनमें कोई महिला बेटा होने की आस में किसी तांत्रिक के कहने पर अपनी दुधमुंही बच्ची को छोड़कर चली आती है...कहीं कोई जमीन को गिरवी पर से छुड़ाने के लिए अपने बच्चे को जिंदा गाड़ देती है, कहीं कोई अपनी जीभ काटकर चढ़ा आती है।

यह हमारे समूचे समाज का करुण सच है। फौरी तौर पर किसी वर्ग विशेष के गले में जाहिलियत की पहचान टांग देने भर से बात नहीं बनने वाली। उसकी जड़ों की पड़ताल जरूरी है। यह जानना जरूरी है कि आखिर क्यों अचानक से आस्थाओं का भूचाल आ जाता है...क्यों इस तरह की बात करने वाले उन्हीें के हक में काम करने वालों को भी उन्हीें से माफी मांगनी पड़ती है। क्योंकि उनके दुःख ने एक खंभा पकड़ रखा है। उसे जोर से पकड़ने पर उन्हें राहत मिलती है। वहम ही सही पर इससे कुछ देर को उन्हें सुकून आता है...

कुछ लोगों ने इस दुःख से, भय से उपजी आस्थाओं को काबू करना शुरू किया। आस्था किसी उद्योग में तब्दील होने लगी। यूं ही मजाक ही मजाक में लोग कहने लगे कि बाबा होने में भी बढ़िया करियर हो सकता है...कोई कहता है जब नौकरी करने से उब जायेंगे तो बाबा बन जायेंगे...ये खाली वक्त के मजाक हो सकते हैं लेकिन इनमें हमारे समाज का विद्रूप चेहरा छुपा है। और कई सवाल भी छुपे हैं कि अगर ये मामला सिर्फ शोषित वर्ग से जुड़ा है, स्त्री वर्ग से जुड़ा है तो क्यों भला पढ़े-लिखे लोग भी, तमाम सेलिब्रिटी भी शामिल हैं इस सबमें।

कई परतें हैं...काफी जाले हैं...कई स्तर पर हैं...पढ़ भर लेना जो सब कुछ होता तो कबीर जैसा फकीर बिना कागज कलम हाथ से छुए कैसे वो तमाम पर्तें तोड़कर कह पाता कि कांकर पाथर जोड़ के मसजिद लिये बनाय...तां चढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बहिरा हुआ खुदाय...उसी कबीर का नाम लेकर कोई लाखों के तिलिस्मी सिंहासन पर बैठकर खुद को कबीरपंथी कहता है और भोली-भाली जनता उसे सच मानने लगती है...यह विरोधाभास वो देख पाये इसके बीच उनके जीवन की दारुण कथायें आ जाती हैं।

यह दुःख का समाज है, यहां सुख एक उत्सव की तरह सबसे उपरी पर्त पर अपनी भव्यता के साथ उपस्थित होकर भरमाता है। इसके सीने में अवसाद है जो आंसू बनकर टपप-टपप टपकता रहता है...जो आस्था बनकर किसी नाउम्मीद सी उम्मीद के पीछे दौड़ पड़ता है। इस समाज के माथे पर ऐसी ही किसी दरार को देखकर शायद प्रसून जोशी ने लिखा था दरारें-दरारें हैं माथे पे मौला....
http://dailynewsnetwork.epapr.in/348410/khushboo/01-10-2014#page/1/1

(published)

Sunday, November 9, 2014

गुमशुदा नवम्बर...


नवंबर महीने में इतना एटीट्यूड क्यों होता है...पता नहीं...लेकिन उसका एटीट्यूड अक्सर जायज ही लगता है. उसके कंधों पर से गुनगुनी धूप उतार लेने का जी चाहता है...उसके कदमों की आहटों से खुशबुओं के खिलने का सिलसिला दिल लुभाता है...उसके सीने से लगकर सारा रूदन बहा देने को जी चाहता है...

पहली मोहब्बत के पहले मोड़ पर रखे पहले इंतजार सा नवंबर...आंखों में आंखें डालकर कहता है, मैं हूं ना...डरो मत...चल पड़ो...ऐसा कहते वक्त उसने ऐनक नहीं पहनी थी, कभी-कभी बेअदबी भी कितनी दिलफरेब होती है...

जाने कहां हरसिंगार खिले होंगे, कहां नहीं...लेकिन नवंबर की शाख का हर लम्हा हरसिंगार है...कहीं तो इंतजार का हरसिंगार...कहीं मिलन की मन मालती...कहीं ढेर सारी कामनाओं को सहेजती संभालती मनोकामनी...उफफफ किस कदर खुशबुओं से लबरेज है...

देव दीवाली की दीप कतारों को वो सर्द चादर में सहेजते हुए खुद से किया हुआ वादा दोहराता है कि 'उम्मीद भरी आंखों के दिये बुझने नहीं दूंगा...'

कहीं दूर देश से आवाज आती है बेडि़यां टूटने की...सलाखें चटखने की...

सर्द मौसम में अपने भीतर के ताप को सहेजे रहने की ताकीद करता नवंबर जिंदगी के लिए जूझने वालों के सजदे में झुककर और हसीन हो उठा है...

दीवार पर टंगे कैलेंडर से एक पन्ना गुम मिले तो हैरत मत करना... 


Thursday, November 6, 2014

ये चाँद बीते ज़मानों का आइना होगा...



करोगे याद तो हर बात याद आएगी
गुज़रते वक्त की हर मौज ठहर जाएगी

ये चाँद बीते ज़मानों का आइना होगा
भटकते अब्र में चेहरा कोई बना होगा,
उदास राह कोई दास्ताँ सुनाएगी

बरसता-भीगता मौसम धुआं-धुआं होगा
पिघलती शम्मों पे दिल का मेरे गुमां होगा,
हथेलियों की हिना याद कुछ दिलाएगी

गली के मोड़ पे सूना सा कोई दरवाज़ा
तरसती आँखों से रस्ता किसी का देखेगा,
निगाह दूर तलक जा के लौट आएगी...

-  बशर नवाज़ 

(चाँद पूरणमाशी का, तस्वीर हमारी )

Saturday, November 1, 2014

गुलों में रंग भरे.… हैदर


कभी कभी चुप्पी का अपना सुख होता है… 'हैदर' फिल्म देखने के बाद एक लम्बी चुप में सिमट जाने को जी चाहता है… एक लम्बी चीख के बाद की थकन में कोई नशा सा महसूस होता है. बाकियों की तरह मैंने भी 'हैदर' रिलीज़ के साथ ही देख ली थी. अपनी चुप के साये में बैठे हुए फिल्म पर आने वाले लेख, प्रतिक्रिया, बातचीत को देखते हुए, सुनते हुए.…

बाद मुद्दत किसी हिंदी फिल्म पर इतनी बातचीत सुनी। फिल्म के बहाने न जाने कितनी बातें, कितने मुद्दे, कितनी नाराजगी। बहुत सारी रिव्यू,अनुभव. एक बात तो तय है कि सिनेमा हॉल से बाहर निकलने के साथ फिल्म ज़ेहन में खुलने लगती है. दर्शक हॉल से खाली हाथ बाहर नहीं आता. विशाल से उनके दर्शकों को बहुत उम्मीदें भी होती हैं, अपेछाचायें भी. जो कि विशाल की असल कमाई है और उस कमाई में दर्शकों की नाराजगी भी इज़ाफ़ा ही करती है.

विशाल के पास एक गहरा रूमान है…जो उनकी फिल्मों को अलग ही रंग देता है. किसी दोस्त (शायद अशोक) की एक लाइन भूलती नहीं कि अच्छे से अच्छे कवि को हैदर देखते हुए विशाल से ईर्ष्या हो सकती है. विशाल की कविताई फैज़ को सजदा करना नहीं भूलती। एक अच्छा फ़िल्मकार सिर्फ अच्छा रचता नहीं अच्छे रचे जा चुके को सलाम भी करता चलता है. विशाल अपने रूमान में जिंदगी की तल्खियाँ नज़रअंदाज नहीं करते। वो जानते हैं 'हंसी बड़ी महंगी' है, सो उस महंगे होने की कीमत चुकाने को वो तैयार रहते हैं. रंग उन्हें पसंद हैं लेकिन उन रंगों तक पहुँचने के लिए वो बेरंग रास्तों से गुजरने से परहेज नहीं करते। जिंदगी के ग्रे रंग से खेलते हुए, उसकी परतों को उधेड़ते हुए वो एक लाल सूरज उगाने की रूमानियत से लबरेज नज़र आते हैं. हर बार वो हिंदी सिनेमा को एक नया रंग देने की कोशिश करते हैं.

चूंकि मैं विशाल से मिली भी हूँ तो थोड़ा सा जानती हूँ शायद कि वो अपना काम प्यार से करते हैं, वो महत्तवकांछा से ग्रसित नहीं हैं न ही अपने बारे में कोई मुगालता है उन्हें. उनकी ईमानदारी उन्हें, संकोची और शर्मीला बनाती है…

होंगी उनकी तमाम फिल्मों में तमाम कमियां भी, लेकिन मुझे विशाल स्याह अंधेरों में से फूटती एक चमकती हुई उम्मीद की मानिंद लगते है. उनकी फिल्म पर बात करते हुए लोग झगड़ पड़ते हों, कश्मीर मुद्दे पर तमाम लेख पढ़े जाने लगे हों, किताबें खुलने लगी हों, तमाम पहलू सामने आने लगे हों,फिल्म लगातार अपने लिए स्वस्थ आलोचना कमा रही तो ये क्या कम है.… 

कश्मीर की वादियां, शाहिद, तब्बू और गुलज़ार साब के गीत तो बोनस से लगते हैं फिल्म में.