Thursday, September 18, 2025

मानसिक द्वन्द्वों का ताना-बाना है 'कबिरा सोई पीर है' उपन्यास

कोई जब आपके लिखे को इस तरह डूबकर पढ़ता है तो लिखा हुआ सार्थक हो उठता है। सुनीता जी सुधि पाठक हैं, प्रेमिल और संवेदनशील इंसान हैं। उनकी पारखी नज़र में 'कबिरा सोई पीर है' का ठहरना सुख देता है। शुक्रिया सुनीता जी।


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- सुनीता मोहन 
'कबिरा सोई पीर है', को पूरा पढ़ लेने के बाद जैसे मैंने प्रतिभा कटियार जी को और क़रीब से जाना है, जिनके भीतर मैं उस संवेदनशीलता को हमेशा महसूस करती हूं, जो हमारे इंसान होने की पहली ज़रूरत है, इसीलिए उनके प्रति बहुत आदर है मन में।

इस उपन्यास ने जितनी साफ़गोई से समाज में रची बसी जातिगत विकृति को उकेरा है, उतनी ही स्पष्टता से स्त्री के साथ होने वाले सामाजिक दुर्व्यवहार पर भी चोट की है। छोटी छोटी घटनाएं, जो सामान्य वर्ग को अति सामान्य लग सकती हैं, उन घटनाओं को जीने वालों के लिए कैसे वो जीवन मरण का सवाल होती हैं, बहुत मर्म के साथ वो घटनाएं कहानी में पिरोई गई हैं।

मेरी नज़र में ये उपन्यास, इंसान के दोगलेपन, उसकी कमजोरियों, उसके लालच और उसके दुराग्रह के साथ उसकी जीवटता और मानसिक द्वंद्वों का तानाबाना है, जो अलग अलग चरित्रों के बहाने समाज के असल चरित्र की, ओर से छोर तक की चिंदियां बड़ी ख़ूबसूरती से उघेड़ता है।

इस पूरी कहानी में, मैं लगभग हर जगह ख़ुद को विटनेस के तौर पर देखती रही। हां, ऐसा ही तो होता है! कहीं कोई अतिश्योक्ति नहीं, कहीं कोई छुपाव नहीं! सब वही जो सिर्फ़ संविधान के डर से पर्दे के पीछे घटता है, वरना ठोक बजा के हो रहा होता!

इस उपन्यास को पढ़ते हुए मेरे साथ एक अजीब सा एहसास रहा, लेखिका जब जब ऋषिकेश की सुंदर हसीन पहाड़ियों में ले जाती हैं, त्रिवेणी घाट से लेकर, मरीन ड्राइव तक गंगा की लहरें दिखलाती हैं, चाय की प्याली में रातरानी की खुशबू घोलती हैं, तो पता नहीं क्यों, मेरे ख़यालो में बनारस आता रहा! उपन्यास में बार बार ऋषिकेश का स्पष्ट चित्र खींचा जाता है, पर मैं पहाड़ का हरापन महसूस ही नहीं कर पाई, सिर्फ गंगा की तरावट महसूस हुई, वो भी बनारस के घाट वाली! ये तब है, जबकि ऋषिकेश शहर हमारा सबसे नज़दीकी पड़ोसी है और बनारस मैने देखा तक नहीं, लेकिन शायद बनारस को स्क्रीन और किस्से कहानियों में इतना पी चुकी हूं कि उसका तिलिस्म तोड़े नहीं टूटता। इसका एक दूसरा कारण ये भी रहा शायद, कि, कुछ एक जगह संवादों में पूर्वांचल का लहज़ा है, जो यहां की आम बोलचाल में कम ही सुनने को मिलता है।

उपन्यास में केदारनाथ अग्रवाल की कविता को जितनी जगह दी गई है, समझ आता है, कि लेखिका कितने गहरे उनके अर्थों में डूबी होंगी!

इस उपन्यास में भी प्रतिभा जी ने 'मारीना' की तरह अद्भुत प्रयोग किया है। उपन्यास के जिस भाग को, जिस शेर से शुरू किया गया है, उसका अंत उस पूरे शेर के साथ होता है, इस तरह उपन्यास को कई ख़ूबसूरत शेरों के साथ अलग अलग हिस्सों में बांटा गया है, और हर हिस्सा ख़ुद में पूरा लगता है।

कबीर दास के जिस दोहे से इस उपन्यास को नाम मिला है, वो इंसानियत की परिभाषा है और ये उपन्यास उसी इंसानियत को समर्पित है-
"कबिरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर,
जो पर पीर न जानई, सो काफ़िर बेपीर!"

प्रतिभा जी को इस ख़ूबसूरत सृजन के लिए फिर से बहुत बहुत बधाई
दुआ यही कि, मुहब्बत, मेहनत और मनुष्यता सदा आबाद रहें!
सुनीता मोहन।