Monday, April 14, 2025

बेहद प्रासंगिक है 'कबिरा सोई पीर है'



- श्रुति कुशवाहा 
(पत्रकार, कवि)
आजकल एक ट्रेंड सा चल पड़ा है…आप किसी मुद्दे को उठाइए और कई लोग मंत्र की तरह जपने लगेंगे ‘अब ऐसा कहा होता है’ ‘दुनिया बदल गई है’ ‘आप किस ज़माने की बात कर रहे हैं’ ‘ये सब गुज़रे समय की बात हो गई’। मुद्दों को डाइल्यूट/डिस्ट्रेक्ट/डायवर्ट करने का ये सबसे आसान तरीका है।
 
आपके घर में..आपके मोहल्ले में..आपकी सोसाइटी में या आपके आसपास का माहौल बदल जाने भर का अर्थ ये नहीं कि सारी दुनिया बदल गई है। दुनिया उतनी रंगीन नहीं है..जितनी आपके चश्मे से दिखाई देती है।
दुनिया आज भी बेतरह चुनौतीपूर्ण, संघर्षों और समस्याओं से भरी हुई है..जिसे Pratibha Katiyar के उपन्यास ‘कबिरा सोई पीर है’ में पूरी मुखरता से दर्शाया गया है।

‘जाति’ पर बात करना आज के समय में कुछ आउटडेटेड मान लिया गया है। बार-बार वही जुमला सुनाई देता है…’अब कहा होता है भेदभाव’ ‘अब तो *उनको* सारी सुविधाएं मिला हुई हैं, रिजर्वेशन है, हम *उनके* हाथ का खा भी लेते हैं, *उनके* घर आना-जाना भी है*’। लेकिन इन सबमें ये जो “उनके” है न…यही भेदभाव है। आज भी रिजर्वेशन के नाम पर कितने लोग मुँह बिचकाते हैं..कभी गौर किया है आपने ?

‘कबिरा सोई पीर है’ उपन्यास में इस विषय पर बहुत गहनता से गौर किया गया है। एक प्रेम-कहानी है जिसके इर्द-गिर्द वास्तविक दुनिया कितनी प्रेम-विहीन और निष्ठुर है..ये उकेरा गया है। यकीन मानिए प्रेम की भी राजनीति होती है। प्रेम भी समय और समाज के कलुष से अछूता नहीं रह पाता। चाहे जितना प्रगाढ़ हो..प्रेम पर भी कुरीतियों के कुपाठ का प्रभाव पड़ता है।

प्रतिभा जी के उपन्यास को पढ़ते हुए मन बार-बार व्यथित होता है। मैंने कई बार चाहा कि पन्ना पलटने के साथ काश कोई जादू हो जाए। लेकिन ये चाहना वास्तविकता से मुँह फेरना ही तो है। और उपन्यास वास्तविकता से बिल्कुल भी मुँह नहीं फेरता है। इसमें कई मुद्दों को छुआ गया है लेकिन जाति व्यवस्था मूल विषय है। यहाँ कोई लागलपेट नहीं है..कोई छद्म आडंबर नहीं है..शब्दों की चाशनी नहीं है..भाषा का खेल नहीं है..सौंदर्य का कृत्रिम आवरण नहीं है। 

इस उपन्यास में आपको खरा सच मिलेगा..और सच से आँख मिलाने की कठिन चुनौती भी।
बहुत सुंदर कविताएँ और कहानियाँ लिखने वालीं प्रतिभा कटियार जी का ये पहला उपन्यास है जिसमें सरोकार, ईमानदारी और बेबाकी के साथ इस गंभीर मुद्दे को उकेरा गया है। ये उपन्यास आपकी संवेदनाओं को झकझोरता है और कई प्रश्नों के साथ छोड़ जाता है। इसे पढ़ने के बाद कोई भी संवेदनशील व्यक्ति बेचैनी से भर जाएगा। जब तक मनुष्य को जाति के पैमाने पर तौला जाता रहेगा..इस उपन्यास की प्रासंगिकता बनी रहेगी। और आज के विद्रूप होते समय में ये उपन्यास बेहद प्रासंगिक है।

‘कबिरा सोई पीर है’ पढ़ा जाना चाहिए और इसमें उठाए सवालों पर मनन होना चाहिए।

4 comments:

Ravindra Singh Yadav said...

आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर मंगलवार 15 अप्रैल 2025 को लिंक की जाएगी ....

http://halchalwith5links.blogspot.in
पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

!

Priyahindivibe | Priyanka Pal said...

सच ही है भेदभाव जो अभी तक चला आ रहा एक कटु सच

नूपुरं noopuram said...

गहन समीक्षा। व्यक्तिगत अथवा सामाजिक , व्यवस्था के हर सोपान पर , दाँव पर है संवेदनशीलता।

नूपुरं noopuram said...

पुस्तक प्रकाशन पर हार्दिक बधाई !