Friday, August 23, 2024

जो हिंदुस्तान हम बना रहे हैं- प्रियदर्शन

हम क्या देखते हैं, कितना देख पाते हैं। क्या सोचते हैं, कैसे सोचते हैं। अपने जानने को लेकर, अपने समझे को लेकर कितने आग्रही हैं, कितने जिद्दी हैं इस बारे में सोचने की न कोई जरूरत किसी को महसूस होती है और न ही ऐसी कोई प्रक्रियायें हैं। हम बिना सोचे समझे, करते जाने वाले समाज का हिस्सा हैं। नतीजा यह कि जब समझना, सोचना तर्क करना  सीखा, शुरू किया भी तो उस पर पिछली सलवटें तारी रहीं। जिद की लौ बढ़ती रही और हिंसक होने में बदलने लगी। 

पहले किसी से असहमति होती थी तो गुस्सा आता था, अब नहीं आता। अब उदासी होती है कि सफर लंबा है अभी...यूं भी समझ के बीज जरा आहिस्ता ही उगते हैं यह सोचते हुए हालात की उथल-पुथल और उससे जुड़ी चिंताओं पर खिंचती भाषाई तलवारें (कई बार सचमुच की तलवारें भी) सोचने पर मजबूर करती हैं, पढ़ना क्या सच में पढ़ना है। लिखना क्योंकर आखिर? 

मेरे लिए हर वह वाक्य सार्थक वाक्य है जो बावजूद तमाम मतभेदों के अपनी अभिव्यक्ति की गरिमा को सहेजे हो और जो हाशियाकृत लोगों के साथ बैठकर चाय पीने की ख़्वाहिश रखता हो। वाट्स्प विश्वविद्यालयों के लंबे चौड़े सेलेबस और रीलों के संजाल में घिरे लोगों से थोड़ा सा लॉजिकल होने की उम्मीद भी इन दिनों बड़ी उम्मीद हो चली है।  

ढेर किताबें लिखने, पढ़ने वालों की भाषा में भी जब आक्रामकता देखती हूँ तो सोच में पड़ जाती हूँ। हमेशा से लगता रहा है कि सहमति की भाषा भले ही थोड़ी रूखी हो लेकिन असहमति की भाषा का ज्यादा तरल, ज्यादा मृदु और ज्यादा स्नेहिल होना जरूरी है। क्योंकि असहमति का अर्थ दुश्मन होना तो है नहीं। प्रियदर्शन जी को टुकड़ों में पढ़ती रही हूँ। दो कहानी संग्रह पढ़े हैं, एक उपन्यास और काफी कवितायें पढ़ी हैं। उन्हें सुना भी खूब है। वो जिस भी विषय पर बात करते हैं उसके कई पक्षों को समझकर बात करते हैं। उनकी गहरी समझ राजनैतिक, समाजशास्त्रीय विवेचना का जरूरी असबाब है लेकिन इन सबसे इतर मुझे उनकी भाषा और तेवर का सामंजस्य अच्छा लगता है। कोई उन्हें ट्रोल करे तो भी वो नाराज नहीं होते, हंस देते हैं। यही बात उन्हें अलग करती है। इन दिनों उनकी किताब 'जो हिंदुस्तान हम बना रहे हैं' पढ़ रही हूँ। 7 आलेख पढ़ चुकी हूँ। हैरत में हूँ कि घोर राजनैतिक मुद्दों पर, जिन पर लोग भाषाई युद्ध पर उतारू रहते हैं वो कितनी सहजता से, सरलता से बात करते हैं बात जिसमें पड़ताल के सिरे खुलते हैं। 

'हिंदुओं को कौन बदनाम कर रहा है', 'धर्म के नाम पर धंधा और नफरत की सियासत', 'एक पुराने मुल्क में ये नए औरंगजेब' जैसे लेख पढ़ते हुए महसूस हो रहा है कितनी जरूरी किताब है ये। छोटे-छोटे लेख हैं। न कोई पक्ष है इसमें न विपक्ष सिर्फ आईना है। 

कुछ अंश- 

'दरअसल दुनिया भर के धर्मों की समस्या रही है कि उन्हें धंधे में बदल दिया जाता है। आज न कोई कबीर को याद करता है, न कबीर के राम को। लोगों को तो वाल्मीकि और तुलसी के राम भी स्मरण नहीं हैं उन्हें बस बीजेपी के राम याद हैं।'

हम इतिहास से कौन सा हिस्सा उठाते हैं और किसे आइसोलेशन में याद रखते हैं यह समझना जरूरी है। 'स्मृतियों का यह चुनाव बताता है कि आप अंततः क्या बनना चाहते हैं।'

'कितना ही अच्छा होता अगर दिल्ली में गालिब, मीर, ज़ौक़, दाग के नाम पर रास्ते होते और हमें रास्ता दिखा रहे होते।'

'वे कौन लोग हैं जो ज्ञानवापी से लेकर कुतुब मीनार के परिसर तक में पूजा करने की इच्छा के मारे हुए हैं? किन्हे  अचानक 800 साल पुरानी इमारतें पुकार रही हैं कि आओ और अपने ईश्वर को यहाँ खोजो? क्या वाकई ईश्वर की तलाश है?'  

सवाल बहुत सारे हैं और इन सवालों पर प्रियदर्शन का बात करने का ढब जितना सहज है वही इस किताब की ताक़त है। असल में तमाम मुद्दों को बहसखोर लोग जिस गली में घसीटकर ले जाते हैं बात कहीं पहुँचती नहीं, अतिरेक से जन्मा माहौल उन्माद, हिंसा, द्वेष जरूर बढ़ता है। बहस उद्देश्यविहीन होकर भटकती फिरती है। फिलहाल इस किताब की सोहबत थोड़ी उम्मीद जगा रही है...मुद्दे हैं लेकिन कोई अतिरेक नहीं। आप इसमें लिखे से असहमत तो हो सकते हैं लेकिन आक्रोशित नहीं होंगे, सोचने के लिए कुछ नया ढूँढेंगे....

किताब अभी पढ़ रही हूँ, बाकी बात आगे होगी। किताब संभावना प्रकाशन से आई है, चाहें तो मंगायें और पढ़ें... 

Wednesday, August 21, 2024

मीठे में कविता- जिक्रे यार चले


'रोज़ डिनर के बाद मीठे में कविता का एक टुकड़ा...अच्छा आइडिया है।'

ज़िंदगी की आपाधापियों में जब सुकून की एक लंबी सांस की दरकार होती है तब मीठे के एक टुकड़े की तरह, सूखे मन पर संतूर पर बजते शिव कुमार शर्मा के 'वॉकिंग इन द रेन' की तरह, तेज़ धूप में अमलतास के गुच्छे के आगे हथेलियाँ बिछा देने की तरह, जाते हुए प्रेमी की पीठ पर 'फिर आऊँगा' का भ्रम पढ़ते हुए, रात भर की जाग से आँखों के नीचे आए स्याह घेरों में इंतज़ार की ओस के फाहे रखने की तरह है 'जिक्रे यार चले' को पलटना। 

कभी भी, कहीं से भी। इसे पढ़ते हुए महसूस होता है मानो हवा ने चेहरे को छू लिया हो। 

ये प्यार के किस्से हैं, लव नोट्स। इन्हें एक बार में नहीं पढ़ रही, धीरे-धीरे साँसों में घुलने दे रही हूँ। इन्हें पढ़ते हुए जाने क्या-क्या खुलता है, बिखरता है। ये लड़की कौन है आखिर जो मूमल गाती है, वो लड़का कौन है जो सामने मुस्कुराता है और चुपके से रोता है। कहाँ हैं ये दोनों? यहीं आसपास। थोड़ा-थोड़ा हम में ही। हमसे ही बिछड़ गया हमारा कोई हिस्सा, कोई किस्सा इन लव नोट्स में धड़क रहा है। 

प्यार की बात होती है तो जाने क्यों लगता है प्यार के बहाने इस दुनिया को खूबसूरत बनाने की बात हो रही है। इस दुनिया में हर किसी को रोटी और रोजगार के बाद सबसे ज्यादा जरूरत प्यार की ही तो है। वो जो इश्क़ का किस्सा ज़िंदगी की किनारी से रगड़ता हुआ गुज़र गया उसे बिसरा क्यों दिया दोस्त, उसमें ही तो ज़िंदगी थी। 

कोई बात नहीं, पल्लवी ने वो तमाम किस्से सहेज लिए हैं, सहेज ली है एक बात की किसी का आना, चले जाना, वापस न आना, उदास होना इन सबसे भी कहीं आगे की बात है प्यार...कि वो बस होता है और एक खुशबू मुसलसल बिखरती रहती है। 

'ये जिस गुलमोहर के नीचे हम बैठे हैं न, उसके जन्मदिन पर मैंने उसे तोहफे में दिया था और हम दोनों ने इसे यहाँ रोपा था। मैं जानती हूँ वह भी कभी इस शहर में आता होगा तो कुछ पल इसके नीचे जरूर बैठता होगा...'अब कहो कि स्मृतियाँ सांस नहीं लेतीं... 

प्रिय पल्लवी, ये लिखते मेरे रोएँ खड़े हैं और आँखें नम हैं कि तुमने ये सुंदर किस्से हमें दिये। आओ न गले लग जाते हैं, चाय तो श्रुति ही बनाएगी...है न?  

Friday, August 16, 2024

तुम्हारे खयाल में, देर रात तक



...और मैं सफर में थी। चुप रहने की शदीद इच्छा और उस चुप रहने में ही थोड़ा सा किसी से बतिया लेने की इच्छा के बीच कुछ अटका हुआ, कुछ ठिठका हुआ सा। अकेलापन इस कदर आकर्षक, किसी जादू की तरह होता है कि इसे हर हाल में टूटने से बचा लेने के लिए हम जुटे रहते हैं। यह इतना नाज़ुक होता है कि जरा सी आहट से दरकने को बेताब रहता है।

सफर शुरू हुआ तो दिन बीतने को था और शाम, सिंदूरी ओढ़नी पहनकर इतराते हुए अपनी छोटी सी ड्यूटी पर आने को तैयार थी।

मैंने किताब ‘देर रात तक’ उठाई थी। ‘देर रात तक’ गौरव गुप्ता की किताब है। न कहानी, न कविता, सी यह किताब। किताब के कुछ पन्ने पहले ही पलट चुकी थी तो मुझे लगा सफर में यह जो चुप रहने और बिना चुप्पी को तोड़े किसी से बतिया लेने की इच्छा शायद इस किताब को पढ़ते हुए पूरी हो जाएगी। अंदाजा ठीक निकला। बाहर आसमान में चाँद उग रहा था यह सोचते हुए मैंने बगीचे में मोगरा मुस्कुरा रहा होगा को याद किया और पन्ने पलटे। किताब में बोगेनबेलिया की शाख हिलती हुई मिली। बारिश के बाद शाखों पर छूट गई बूंदों ने मानो चेहरे पर नर्म मुस्कुराराहट उकेर दी।

इस लिखावट में प्रेम है, और प्रेम ही तो जीवन है। जीवन के तमाम रंगों को बेहद खूबसूरत ढंग से गौरव ने इन प्रेमिल नोट्स में सहेजा है। जैसे उन्होंने अपनी उस रात को पाठकों के साथ साझा कर लिया हो जिसमें, महमूद दरवेश हैं, रिल्के हैं, काफ़्का हैं, ओशो हैं, वॉन गाग हैं, विनोद कुमार शुक्ल हैं, निर्मल हैं और मानव कौल हैं। इन सोहबतों में किसी छूटे हुए या छूट गए से लग रहे प्रेम की परछाईयां हैं, चाय है, मौसम हैं। उदासियों की ख़ुशबू है, उम्मीदों की कोंपलें फूटने की आवाज़ है।

देर रात तक...पढ़ते हुए महसूस होता है कोई चुपचाप आकर बगल में बैठ गया हो जैसे और सांस तनिक हल्की हुई हो। जैसे रूमानियत का धीमा संगीत Keeny G की संगत में खिल रहा हो।

गौरव अपनी सोहबतों के असर में हैं, उस असर से बेज़ार भी नहीं। वो लिखते हैं वैसा जैसा महसूस करते हैं बिना किसी अतिरेक के बिना किसी बनावट के। यही इस किताब का सौंदर्य है।

किसी भी पन्ने को कभी-कभी पलटा जा सकता है, थोड़ा सा पढ़कर देर तक चुप रहा जा सकता है। मुझे इस लिखे में एक लंबी खामोशी दिखती है जिसकी बोल बोलकर थक चुकी इस दुनिया को बड़ी जरूरत है। इस लिखे में मानव का बीच-बीच में दिख जाना चौंकाता नहीं एक अपनेपन से भरता है। गौरव को ढेर सारी शुभकामनायें देते हुए खुश हूँ और उम्मीद से भरी हूँ।

Sunday, August 11, 2024

घड़ी दो घड़ी- बसंत त्रिपाठी


जैसे बरसकर थमी शाम में झींगुरों की आवाज़ उगती है, जैसे हवा से हिलती हैं पत्तियाँ और अपनी हथेलियों पर अकोरी बूंदों को छिड़क देती हैं आहिस्ता से, जैसे रातरानी की ख़ुशबू इकसार हो जाती है रात में और अंधेरे को महका देती है, जैसे भीगा हुआ पंक्षी अपनी पांखे खुजलाता है और आसमान में उड़ जाता है, जैसे किसी की याद आती है और पल भर को नब्ज़ तनिक थम जाती है, जैसे किसी को देखकर पलकें झपकना भूल जाती हैं और 'घड़ी दो घड़ी' जीने की आकांक्षा से मन भर उठता है। बसंत त्रिपाठी का नया कविता संग्रह 'घड़ी दो घड़ी' ऐसी ही निर्मल अनुभूतियों का कोलाज है। सघन अभिव्यक्तियों का ऐसा जादू जिसके कभी न टूटने की दुआ बरबस जन्म ले।

बसंत समय और संवेदना का ताना-बाना रचते हैं लेकिन बिना किसी अतिरेक के। उनकी कविताओं में  बिना किसी शोरगुल के जीवन के हर रंग मौजूद हैं। सरलता उनकी कविताओं का ऐसा गुण है कि ये किसी को भी अपना बना लें। कविताओं को ऐसा ही तो होना चाहिए कि किसी शाम जब आप तन्हा हों, चाय पीते हुए किसी की याद में गुम हों वे आयें और बिना तन्हाई को तोड़े करीब बैठ जाएँ।

इन कविताओं में प्रकृति प्रतीक के तौर पर आती है और विराट अर्थ ध्वनित करती है। हर पंक्ति के भीतर एक बड़ा संसार है। एक संसार जो शब्द के अर्थ में ध्वनित होता है और दूसरा संसार जो उसके भीतर है, जो लंबी यात्रा करके यहाँ तक पहुंचा है। जिसमें एक सुंदर कल का सपना है, यथार्थ पर नज़र है और प्रेम पर भरोसा है। संग्रह की पहली कविता भूमिका की ये लाइनें 'मैं संभावनाएं लिखता हूँ/जो बुद्धि के दुर्ग में/लहू के सिक्त/दिल के राग छेड़ती है।' इसी कविता में 'मैं वो स्वप्न लिखता हूँ/जो सचमुच की नींद में/सायास उभरते हैं/मैं दुस्वप्न लिखता हूँ/जो कच्ची नींद में कुलबुलाते हैं/' 

कविता भाषा का खेल नहीं विचार और संवेदना का साम्य है। पुश्किन की बात को अगर अपने ढंग से कहूँ तो भाषाई कौशल को साधना आसान है लेकिन जीवन के पथरीले, जटिल यथार्थ को कविता में साधना आसान नहीं। यह तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब कवि दुनिया को बेहतर बनाने के सपने का हाथ नहीं छोड़ता। यथार्थ की लहूलुहान हथेलियों पर उम्मीद के फाहे रखती कवितायें जीवन में भरोसा बचाए रखती हैं। यही बसंत की कवितायें करती हैं। उनकी कविता मैं पानी हूँ की एक लाइन देखिये,'मैं पानी हूँ/मैं तुम्हारी प्यास ढूँढता हूँ।' 
एक तरफ प्यास की तलाश में निकला पानी है दूसरी तरफ बादलों में गुम एक मन, 'भीगा मन लिए/बादलों के भीतर उड़ रहा हूँ/'। ऐसी पंक्तियाँ पढ़े मानो जमाना बीत गया। एक और कविता में छाया के रंग की बात सुनिए तो, 'छाया का रंग/लेकिन अब भी वही/वही जरा सुस्ताने के आमंत्रण का रंग।' कितनी बड़ी रेंज है इन पंक्तियों की,कि छाया ने कभी अपना रंग नहीं बदला, कितना कुछ बीता, फिर भी। और हम?  

कविता घड़ी दो घड़ी में प्रेम के रंग देखिये,'तुम बैठो/थोड़ी देर और/पेड़ की परछाई को/पूरब की ओर।थोड़ा और बढ़ने दो/बच्चों को शिक्षा की जेल से/शोर मचाकर निकलने दो।' एक कविता के एक ही हिस्से में प्रेम, सामाजिक सरोकार, चिंता और और उस चिंता की कारागार को तोड़ने का स्वप्न सब एक साथ बुन पाना सरल तो नहीं, यह जीवन के प्रति एक प्रेमपूर्ण दृष्टि, राजनैतिक, सामाजिक समझ और लंबी अनुभव यात्रा से ही संभव है।  

एक कविता है युद्ध के बाद का जीवन उसकी कुछ पंक्तियों को देखिये, 'टैंक और बमवर्षक विमान/जब ध्वस्त हो जाएँगे लड़ते-लड़ते/ठीक उसके बाद/मैं तुम्हें लिखूंगा पोस्टकार्ड/और ख़ुशबू से भरी हवा की पत्र पेटी में डाल आऊंगा।' 'मैं अंधड़ से भरे तुम्हारे दिल में/रख दूंगा दुनिया में अभी ही जन्मी/एक कत्थई कोमल पत्ती/युद्ध के बाद/घायल पसलियों, टूटी हड्डियों/और अपराजेय सपनों से/ऐसे हो तो बाहर आता है जीवन।' कविता आत्मनाश की पंक्तियाँ, 'मैं वह भूख/जो हर बार पानी से ही मिटाई जाती रही/मैं इस महान लोकतन्त्र में/नागरिक अधिकारों का वह उपेक्षित अध्याय/जिसे आठवीं के बच्चे/केवल परीक्षा पास होने के लिए पढ़ते हैं/वह भी अपनी नैसर्गिक खीझ के साथ।'

इस संग्रह की कुछ कविताओं की कुछ पंक्तियों के साथ मैं सिर्फ यह कह सकती हूँ कि यह एक महत्वपूर्ण संग्रह है, इसे पढ़ा जाना चाहिए, कविताओं को अपने भीतर उतरने देना चाहिए और कुछ देर उन कविताओं के साथ चुप रहकर वक़्त बिताना चाहिए। 

संग्रह का सुंदर कवर निकिता ने बनाया है और भीतर कुछ रेखांकन भी हैं जो कविताओं को थोड़ा विस्तार देते हैं। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस संग्रह को पढ़िये और अपने पास संभालकर रखिए, ठीक उसी तरह जैसे बुरे से बुरे वक़्त में संभालकर रखते हैं उम्मीद।  

Tuesday, August 6, 2024

जाओ दफा हो जाओ...स्मृतियों



'घास को घुटन हो रही होगी, तुम्हें बगीचे की सफ़ाई करा लेनी चाहिए।' यह पंक्ति पढ़ी और बादल फटने की आवाज़ कानों में आई...

काफी दिनों से बारिश का इंतज़ार था। अटके हुए भरे-भरे बादल खिड़की पर टंगे-टंगे ऊँघ रहे थे। 'मैंने मांडू नहीं देखा...' मेरे साथ रात दिन चल रही है कई दिनों से। जब शुरू की थी तो यही लगा कि कैसी अहमक़ हूँ कि इतनी देर से पढ़ रही हूँ। लेकिन अब किताब खत्म हो चुकी है और मैं दो दिन से लगभग अवसन्न अवस्था में डोल रही हूँ। शब्दातीत।

मैंने इस किताब को तो नहीं ही पढ़ा था इसके बारे में भी कुछ नहीं पढ़ा था। कुछ भी नहीं। बस ये सोचती रही किताब के बारे में नहीं सिर्फ किताब पढ़ूँगी। और अब लग रहा है कि अच्छा हुआ पहले नहीं पढ़ी। कई बार जीवन हमें चुनता है, जबकि हमें लगता है हमने जीवन को चुना है। ठीक ऐसा ही किताबों के साथ है वो न सिर्फ अपना पढ़ा जाना चुनती हैं, समय भी चुनती हैं। मेरे साथ ऐसा कई किताबों के साथ हुआ। इसलिए मैं पढ़ने को लेकर कभी भी मशक्कत नहीं करती बस पन्ने पलटती हूँ और इंतज़ार करती हूँ कि किताब मेरा हाथ थामे और आगे की यात्रा पर ले जाये।
मांडू ने हाथ लिया....

मेरी पढ़ने की गति तेज़ है। लेकिन कुछ किताबें अपनी गति भी तय करती हैं। मैंने हर दिन इस किताब के कुछ पन्ने पढ़े और पूरे वक़्त पढ़े हुए के साथ रही. क्या कभी भी इस पढ़े हुए से मुक्त हो सकूँगी। पढ़ते हुए बीच-बीच में संज्ञा से बात करती रही किताब के बारे में।

क्या यह सिर्फ किताब है...बिलकुल नहीं। क्या इसे सिर्फ पढ़कर परे रखकर आसानी से दूसरी दुनिया में जाया जा सकता है? गीता, सुकान्त, पारुल, विकास राय, डॉ चारी, डॉ प्रताप और मायाविनी...क्या कभी मुक्त हो पाएंगे।

जाओ दफा हो जाओ...स्मृतियों से कहना आसान होता काश।

मैं सच में सोच रही हूँ मैंने बिलकुल ठीक समय पर इस किताब को पढ़ा, पहले पढ़ती तो शायद संभाल न पाती. जिस दिन किताब का अंतिम हिस्सा पढ़ा. देर तक आसमान देखती रही। कुछ ही देर में बारिश उतर आई। मैंने हमेशा की तरह हथेली बढ़ा दी। वही हथेली जिसमें मैंने मांडू नहीं देखा लगातार रहती है। संज्ञा को बस इतना लिखा, पूरी हो गयी किताब...अनकहे शब्दों को पढ़ने में माहिर संज्ञा ने अपनी चुप की हथेली मेरी चुप पलकों पर रख दी।

आज शाम उसने एक लिंक भेजा...यह उस किताब के आगे की कथा है। सुकान्त दीपक का लिखा। ये आज ही हिंदवी पर आया है। क्या यह महज संयोग है?
 
मैंने दफ्तर से लौटते हुए लिंक खोला...बारिश ने रफ्तार पकड़ ली...जैसे कोई बादल फटा हो कहीं...

(https://hindwi.org/bela/sukant-deepak-memoir-papa-elsewhere-translation-nishiith?fbclid=IwZXh0bgNhZW0CMTEAAR1nUjwzPtaXGMTstOpSV3MqnuEDxvpUv7XMaFtrwLY_tOa8KSxxMBjOV98_aem_CRwgUVR7M5bABwMODxqNJg)

Thursday, August 1, 2024

तारिक का सूरज


तारिक का सूरज एक ऐसी कहानी है जो कल्पना के कैनवास पर अपने मन की दुनिया का एक कोना गढ़ती है। ऐसा कोना जहां रोशनी तनिक अधिक है। तारिक का सूरज दुनिया को थोड़ा ज़्यादा रोशन करती है।

कहानी कुछ यूं है कि तारिक को भी बाकी बच्चों की तरह खेलना बहुत पसंद है और उसका खेलना निर्भर है दिन पर। सूरज डूबा, रात हुई और खेल बंद। शाम होते ही अम्मी की पुकार कि तारिक शाम हो गयी आ जाओ, पढ़ाई करो, खाना खाओ सो जाओ के अनकहे निर्देश कहानी में हैं जो तारिक को खास पसंद नहीं। वो तो रात में भी खेलना चाहता है। इसलिए उसे रात में सूरज की कमी खलती है। अब तारिक कर भी क्या सकता है। एक रोज यूं ही वो कागज पर गोचागाची करते हुए सोचने लगा कि काश रात में भी सूरज उगता तो उसे खेलने को और समय मिलता। सोचते-सोचते तारिक कागज पर सूरज बना देता है और वो सूरज रात को चमकने लगता है। यही है इस कहानी की दुनिया।

तारिक का सूरज पढ़ते हुए हम कल्पना की ऐसी दुनिया में जा पहुँचते हैं जहां दुनिया के सारे बड़े और समझदार लोगों को पहुँच ही जाना चाहिए। क्योंकि असल में तो हम सब के भीतर भी एक तारिक है, जो कहीं खो गया है।

कल्पना, तर्क और संवेदनशीलता के बीच का समन्वय बनाती यह बाल कहानी बच्चों के लिए कल्पना के नए द्वार खोलती है। संवेदना के ऐसे महीन रेशे हैं इस कहानी में कि सूरज रात को उगे तो किसी को परेशानी भी न हो। तो कैसे सब संभाल लिया जाय सब यहाँ काम आती है तारिक की तरकीब।

किसी भी मनःस्थिति में पाठक इस कहानी के पन्ने पलटें कहानी से गुजरते हुए एक खामोशी से भर उठेंगे। ऐसी खामोशी जो दुनियादारी की तमाम पेचीदीगियों से दूर ले जाती है।

इस छोटी सी कहानी में बड़ी से दुनिया के तमाम बड़े-बड़े सवालों के जवाब मिलते दिखते हैं। जितनी बार इस कहानी को पढ़ते हैं एक संवरी हुई दुनिया का ख़्वाब मुस्कुराता नज़र आता है।

नन्हा तारिक रात में भी खेलने की ललक में अपने कागज पर बनाए सूरज को सेम की बेल पर टांग देता है। बेल चढ़ जाती है आम के पेड़ पर और उसका सूरज दिप दिप करने लगता है। तारिक की दुनिया में अब रात में भी सूरज उगने लगता है।

तर्क कहता है कि भला रात को भी कहीं सूरज उगता है? लेकिन कल्पना के आकाश पर क्या नहीं हो सकता। पिछले दिनों आई फिल्म ‘स्काई इज़ पिंक’ का एक संवाद याद आता है जिसमें माँ अपने बच्चे से कहती है, ‘अगर तुम्हारा स्काई पिंक है तो स्काई का कलर पिंक ही है। तुम्हें किसी के भी कहने से अपने स्काई का रंग बदलने की जरूरत नहीं है।‘

शिक्षक जब बच्चों को कल्पना और सृजनात्मक होने के अवसर देते हैं तब भी उसमें काफी दीवारें खड़ी होती हैं जो सामाजिक संरचना के तमाम कारणों ने मिलकर बनाई हैं जो खुलेपन को भी खुलने नहीं दे पाती। ऐसे में यह कहानी बताती है कि इस कहानी और ऐसी तमाम कहानियाँ, कक्षा में मौजूद बच्चों के जीवन के अनुभवों को किस तरह पिरोना है, किस तरह उनका हाथ थामकर आगे बढ़ना है।

बात सिर्फ तारिक के सूरज के रात में भी उगने तक सीमित नहीं रहती है बल्कि उल्लू की उस परेशानी तक जा पहुँचती है जब रात में उगे सूरज के कारण उल्लू जो रात में खाने की तलाश में निकलता है परेशान होकर तारिक की खिड़की पर जा बैठता है।

मासूम तारिक खुद के खेलने के लिए रात में सूरज तो चाहता है लेकिन वो यह भी नहीं चाहता कि उल्लू भूखा रहे। वह उसे खाने के लिए दूध रोटी देता है। अब यहाँ ठहरकर सोचने की बात यह है कि क्या यह सिर्फ उल्लू की बात है, उसकी भूख की बात है। तारिक का उसे दूध रोटी देना कितनी बड़ी रेंज खोलता है मासूमियत का हाथ थामे इस दुनिया को संवार देने की।

उल्लू का या कहना कि ‘लेकिन मैं तो कीड़े खाता हूँ’ तारिक को सोचने पर मजबूर कर देता है। खुद के लिए कुछ चाहना क्या सिर्फ खुद के लिए कुछ चाहना भर होना चाहिए। सवाल और जवाब दोनों इस नन्ही कहानी के बड़े से फ़लक में समाये हैं।

रात को भी तो परेशानी है न सूरज के रात में उगने से। वो हवा से शिकायत करती है। हवा समझती है उसकी बात।

ये जो एक-दूसरे को समझना, अलग होना स्वभाव में फिर भी सहगामी होना अलग-अलग होकर भी साथ मिलकर सुंदर दुनिया को बनाने में, बचाने में अपनी भूमिकाओं को निभाना कितना जरूरी है इसकी कहन है कहानी।

यह कहानी शिक्षकों को ढेर सारे अवसर उपलब्ध कराती है। वे इस कहानी के बहाने बच्चों के मन की दुनिया में क्या-क्या चलता है, कैसे वो सोचते हैं, क्या हो अगर जब वो सोचते हैं वो हो जाए तो जैसे बिन्दुओं पर चर्चा कर सकते हैं, उन्हें सोचने, तर्क करने, कल्पना के आसमान में ऊंची उड़ान लेने को मुक्त कर सकते हैं।

‘इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है...’ जैसे नीरस हो चुके वाक्य से दूर अगर इस कहानी के बारे में एक लाइन में कहें तो यह कहानी बच्चों को मजेदार लगने वाली और अपनी सी लगने वाली कहानी है।

दिन के सूरज में तारिक के सूरज की भी रोशनी है यह पंक्ति हम सबके हिस्से की पंक्ति है। हम सबका होना कहाँ-कहाँ शामिल है, कहाँ-कहाँ खिल रहा है। हमारे होने ने क्या इस दुनिया को जरा भी बेहतर बनाने में कोई भूमिका निभाई है। अगर नहीं तो सोचने की ओर इशारा करता है तारिक का सूरज।

लेखिका शशि सबलोक ने क्या ही तरल और सरल गद्य का प्रयोग इस कहानी में किया है। कम शब्दों के उपयोग के साथ कैसी एक बड़ी दुनिया में गोता लगाया जाता है यह इस कहानी में देखने को मिलता है।

तविशा सिंह ने सुंदर चित्र बनाए हैं। उन्होंने कहानी के मर्म को जस का तस पकड़ा है और कहानी के चित्र वैसे ही बनाए हैं जैसे तारिक ने बनाए हों। नन्हे मासूम हाथों की लकीरों की छुअन महसूस होती है इसमें। अनगढ़पन का भी एक रंग होता है उसकी भी एक खुशबू होती है लेकिन उसका उपयोग कम ही लोग कर पाते हैं। तविशा इन चित्रों को बनाते हुए सीधे तारिक के मन की दुनिया में प्रवेश करती हैं और धीरे से उनकी उँगलियाँ तारिक की उँगलियाँ होने लगती हैं। कहानी के चित्र कहानी का विस्तार हैं। रंगों और लकीरों का लिखी गयी कहानी से अच्छा सामंजस्य है।

तक्षशिला के अंतर्गत जुगनू प्रकाशन ने इसे प्रकाशित किया है।

शिक्षकों को इस कहानी के जरिये कक्षा में काम करने के तमाम अवसर नज़र आएंगे। इस कहानी को बार-बार पढ़ने की जरूरत है। हर बार कुछ नयी समझ नए एहसास की परतें खुलती हैं। पढ़ते हुए हमें महसूस होगा कि आसमान में जो सूरज है उसमें तारिक के सूरज की रोशनी तो शामिल है ही थोड़ी सी हमारे मन के रोशन कोनों की खुशबू और चमक भी शामिल है।

-प्रतिभा कटियार