लंबे समय से एक जद्दोजहद में हूँ कि मेरा पढ़ना छूट रहा है। मुझे लिखना छूटने से ज्यादा तकलीफ होती है पढ़ना छूटने से। पढ़ने से बची हुई जगह में बेकार की व्यस्तता का न जाने कितना कचरा फैलने लगता है। इस छूटने को रोकने के लिए मैंने तमाम किताबें मंगाईं। कुछ पढ़ीं। कुछ पढ़ने की कोशिश में छूट गईं। लिखने और पढ़ने में मेहनत करने की हिमायती मैं बिलकुल भी नहीं। लिखना और पढ़ना सांस लेने जैसा होना चाहिए। सरल और बिना किसी अतिरिक्त प्रयास जैसा।
इस सिद्धांत को कम उम्र में ही अपना लिया था। जब भी कुछ पढ़ने में मेहनत करनी पड़ी उस रचना के आगे सर झुका लिया और खुद से कहा,'प्रतिभा, अभी इसे पढ़ने की तुम्हारी तैयारी नहीं है।' यह तैयारी किसी स्कूल या कॉलेज में नहीं होती है। जीवन में होती है। समझ की तैयारी। बहुत सी रचनाएँ अब भी मेरी तैयारी की बाट जोह रही हैं, या शायद मैं बाट जोह रही हूँ। या शायद कोई बाट नहीं जोह रहा, बाट जोहने के भ्रम फैले हैं।
कुछ प्रिय लेखक जिन्हें पढ़ चुकी हूँ उन्हें फिर फिर पढ़ती हूँ। फिर लौट आती हूँ उस कोने में जहां शायद कोरे पन्नों का जादू रखा है। उन पन्नों को पलटना नहीं चाहती। जादू बचाए रखना चाहती हूँ।
बेवजह सी कोई उदास धुन खुशनुमा मौसम में ढलकर मौसम को और सुहाना बना रही है। उदासी प्रेम का गहना है। जानती हूँ। मुस्कुरा देती हूँ। एक पीले फूल की पंखुड़ी हथेलियों पर रखकर धूप के आगे हथेली फैला देती हूँ। किरणें पंखुड़ी के पीले को सुनहरे में बदल देती हैं।
प्रियंवद सब खेल देखते हुए हंस देते हैं। उनकी हंसी में 'गोधूलि' नज़र आने लगती है। उन्होंने अपने कहे में कहना शुरू किया, 'उस बरस ऋतुएँ थोड़ा पहले आ गयी थीं।' पहले वाक्य को छुआ भर था कि एक पंछी ने उड़ान भरी, ठंडी हवा का झोंका देह को सहला गया। पलकें मूँदीं और बुदबुदा उठी, 'नहीं इस बरस ऋतुएँ तनिक पहले आ गयी हैं।'
ऋतुओं के बदलने की आहट तेज़ हो चुकी थी। मैंने गोधूलि की उस बेला को मुट्ठी में बंद कर लिया। आज शाम उदासी जरा परे सरक गयी थी। गोधूलि खुलने लगी थी। कुछ देर बाद मैंने अपनी देह पर सुख रेंगता हुआ महसूस किया। कि सुर लग चुका था। पढ़ने का सुर। प्रिय लेखक ने उबार लिया था।
किताब जब रात दिन साथ रहने लगे, वाक्य जब रात दिन बतियाने लगें तो ज़िंदगी से शिकायत कम होने लगती है। कहानी में क्या है, यह बताने का कोई अर्थ नहीं लेकिन यह जरूर कहना चाहती हूँ कि लिखना क्या है, कैसे एक लेखक को एक-एक वाक्य लिखने की तैयारी में पूरा जीवन गलाना पड़ता है यह समझ आता है पढ़ते हुए। जीवन के प्रति दृष्टि जितनी साफ होती है लेखन उतना सुंदर होता है। यह कोई सामान्य कहानी नहीं है लेकिन सामान्य ही कहानी तो है। जीवन की तरह कि खुल जाये गांठ तो सरल और उलझी रहे तो मुश्किल बहुत....
इस कहानी से कुछ इबारतें-
- बहुत सी चीज़ें अक्सर या फिर धीरे-धीरे या फिर अचानक ही ख़त्म होकर दिखना बंद हो जाती हैं, जैसे कि प्रेमिका, नदी या कुछ शब्दों का फिर न दिखना।
- मुझे लगा, मेरा यह अनायास जन्मा डर उसी तरह ख़त्म हो जाएगा जैसे और भी डर ख़त्म हो जाते हैं। उसी तरह जैसे स्वप्नों में निरंतरता, प्रार्थनाओं में उम्मीदें और चुंबनों में तृप्ति ख़त्म हो जाती है।
- हर दस्तक की एक गुप्त भाषा होती थी। बिना दरवाजा खोले ही लोग आने वाले को पहचान लेते थे कुछ दस्तकों का सामी आने वाले का इरादा भी बता देता था।
- जीवन में दस्तक उसी तरह शामिल थी जैसे वासना में उत्तेजना, नक्षत्रों में लय और चीख में धार।
- उसने अधिकारी को देश के स्वर्णिम अतीत पर एक कविता सुनाई, फिर देश की वर्तमान बदहाल स्थिति पर एक कविता सुनाई फिर उस संघर्ष पर कविता सुनाई जो क्रांति के दौरान जरूरी होता है। फिर क्रांति कि निश्चित सफलता पर एक कविता सुनाई। अंत में उस युग और यूटोपिया पर एक कविता सुनाई जो क्रान्ति के बाद आएगा।
- उसने कहा अधिकारी होने के लिए कविता की समझ होना जरूरी है। अगर वह कविता नहीं समझेगा तो मनुष्य को कैसे समझेगा, मनुष्य को नहीं समझेगा तो देश कैसे चला पाएगा?
- ईश्वरविहीन प्रार्थनाएँ और अकारण बनी रहने वाली करुणा द्रवित होने लगी थी।
- ईश्वर कहीं दुबका था। नैतिकतायें कहीं लिथड़ रही थीं। धर्म और पुण्य मकड़ी के जाल में फंसे कीड़े की तरह बेबस झूल रहे थे।
- दुनिया का इतिहास सिर्फ महत्वाकांक्षाओं का इतिहास है। महत्वाकांक्षाओं में धँसे लोग ही महान बनाए गए हैं।
- सारे सत्य हजारों साल पुराने हो चुके हैं। सड़ चुके हैं। सिर्फ झूठ है जो हर बार नया होता है।
(कहानी जानने के लिए कहानी पढ़नी होगी। किताब आधार प्रकाशन या अमेज़न से मँगवाई जा सकती है। अगली कहानियों पर अपने पाठकीय नोट्स साझा करती रहूँगी।)