Sunday, June 4, 2023

काफ्काई मन



ये इतवार की सुबह है. एक उदास अख़बार दरवाजे के नीचे से झाँक रहा है. उसे उठाने की हिम्मत नहीं हो रही. लेकिन न देखने से चीजें होना बंद नहीं होतीं, दिखना बंद हो जाती हैं. लेकिन लगता है दिखना भी बंद नहीं होतीं.

कोई बेवजह सी उदासी है जो भीतर गलती रहती है. जैसे नमक की डली हो. वजह कुछ भी नहीं, या वजह न जाने कितनी ही हैं. हमेशा वजहों के नाम नहीं होते. लेकिन वो होती हैं. इतना मजबूत मन न हुआ है, न हो कभी कि आसपास के हालात का असर न हो.

कभी जब हम जिन चीज़ों पर बात नहीं करते वो चीज़ें और गहरे असर कर रही होती हैं. दुःख कितना छोटा शब्द है, सांत्वना कितना निरीह. घटना और खबर के पार एक पूरा संसार है जहाँ बहस मुबाहिसों के तमाम मुखौटे धराशाई पड़े हैं.

कल काफ्का की याद का दिन था. सारे दिन की भागमभाग के बीच काफ्का से संवाद चलता रहा. मैंने उससे पूछा, 'ऐसा क्यों हो रहा है इन दिनों?' उसने पूछा कैसा? मैंने कहा,'कोई बेवजह सी उदासी रहती है. किसी भी काम में मन नहीं लगता. पढ़ना दूर होता जा रहा है, लिखने की इच्छा नहीं होती. बात करने की इच्छा होती है लेकिन किससे बात करूँ समझ नहीं आता. अगर कोई बात करता है तो दिल करता है ये क्यों बोल रहा है. चुप क्यों नहीं हो जाता. सब लोग क्यों बोलते हैं इतना?' ये कहते हुए मैं फफक पड़ी. मैंने सुना कि मैं भी तो कितना बोल ही रही हूँ. किसी से न सही खुद से ही सही. चुप रहना न बोलना तो है नहीं. उफ्फ्फ, अजीब उलझन है.

काफ्का मुस्कुराये और बोले, 'चाय पी लो.'
मैं चाय बना रही हूँ. सामने लिली और जूही में खिलने की होड़ है. लीचियां पेड़ों से उतरने लगी हैं.

देह पर हल्की सी हरारत तैर रही है. काफ्काई हरारत.

1 comment:

Onkar said...

बहुत सुंदर