तितली उपन्यास एक सांस में पढ़ लिया था ऐसा कह सकते हैं लेकिन कुछ भी कहने की बजाय मौन में रहना ज्यादा भला लगा. उपन्यास पढ़ने के बाद जो पहला ख्याल आता है वो यह कि यह उपन्यास मृत्यु के बारे में है लेकिन जाने क्यों मुझे लगा कि असल में यह ज़िन्दगी का उपन्यास है. ज़िन्दगी को थाम के रखने की उस जिजीविषा का जिसमें अवसाद, पीड़ा, बेचैनी शामिल होने लगती है.
तितली उपन्यास को पढ़ते हुए मुझ मारीना बहुत याद आई. नाय्या, मारीना...कार्ल, इरिना.
कोई बात अधूरी छूट जाय तो बहुत दिक करती है यह उपन्यास उसी अधूरी छूटी हुई बात के बारे में है. वो बात जो असल में जिन्दगी थी पूरी.
जीवन क्या है, कितना है. कब कोई जीवन पूरा होता है और कब वो अधूरा रह जाता है. क्या इसका उम्र से कोई लेना-देना है. नहीं जानती, लेकिन इतना जानती हूँ बीच राह में यूँ ही अचानक बिछड़ गए लोग छूट गए लोगों के जीवन में इस कदर रह जाते हैं कि उनका जीवन सच में बहुत मुश्किल हो जाता है.
नाय्या की पीड़ा मारीना की पीड़ा एक जैसी ही तो थी. पीडाएं सहचर होती हैं. वो सच्ची दोस्त की मानिंद साथ हो लेती हैं. किसी भी देश, काल, व्यक्ति की पीड़ा कांधे से आकर टिककर बैठ सकती है. अपने दुःख से, पीड़ा से रिहा होने में कई बार दूसरे की पीड़ा को अपना लेना काम आया है.
तितली को पढ़ते हुए कई जख्म खुलने लगते हैं, कुछ भरने भी लगते हैं. उपन्यास का पहला हिस्सा दूसरे हिस्से की तैयारी सरीखा है. पूरे वक़्त लगता है कि काफ्का आसपास हैं कहीं. हालाँकि वो उपन्यास में कहीं नहीं है. उपन्यास में बहुत सारे लेखकों का जिक्र है, उनके मृत्यु के बारे में लिखे कुछ अंश हैं. कुछ धूप छाँव सा समां बनता है जैसे जीवन की तैयारी हो रही हो. या शायद मृत्यु की. या शायद लम्हों की. मेरे जेहन में हमेशा से मृत्यु की बाबत सबसे पहले काफ्का का लिखा ही उभरता है फिर कामू फिर नीत्शे लेकिन तितली पढ़ते हुए यह विस्तार बढ़ता जाता है. पढ़ना और जीना दो अलग शय हैं. कुछ भी पढ़ना, किसी का भी लिखा पढ़ना जीने की तैयारी नहीं हो सकता लेकिन जिया हुए का स्वाद पढ़ने के संग जब मिलता है तब समझ तनिक और साफ़ होती है.
मुझसे कोई पूछे कि तितली उपन्यास कैसा लगा तो मैं सिर्फ चुप ही रहूंगी. ‘अच्छा लगा’ कहना मुझे अच्छा तो नहीं लगेगा. हालाँकि यह जरूर है कि इसे पढ़ना अपने भीतर के उन अंधेरों में झांकना है जिन्हें हमने छुपा दिया था. उन जख्मों को तनिक मरहम लगाना है जिसे हम इग्नोर किये बैठे थे. सामना करना है जीवन का, उसके हर रूप का. यह उपन्यास उस एहसास का मीठा स्वाद है जो दूर देश में बैठा कोई व्यक्ति महसूस कर पाता है. एक लेखक जब पाठक होता है और अपने प्रिय लेखक की पीड़ा को अपने भीतर समेट लेता है, उससे मिलने का ख़्वाब उसकी आँखों में दिपदिप करने लगता है.
कोई भी लेखक असल में तो पाठक ही है. तो यह उस उस पाठक के अपने लेखक के प्रति प्रेम की कहानी है. उस कहानी में सात समन्दर पार की यात्रा है, लेखक से हुईं खूबसूरत मुलाकातें हैं और जीवन है.
मुझे इस उपन्यास में शायर का किरदार किसी रिलीफ सा लगा. जैसे तेज़ धूप में पाँव जैसे ही जलने लगते हों शायर की उपस्थिति छाया कर देती हो.
मैं एक स्त्री हूँ और मैंने इसे स्त्री नजरिये से पढ़ते हुए पाया कि क्लाउस की प्रेमिका हो, शायर हो, खुद नाय्या हो कितना कुछ अनकहा रह गया है अभी. कितना कुछ सुनना बाकी है उनसे. लेखक ने उपन्यास भर का सामान जमा किया और जो छूट गया मेरा मन उसमें अटका हुआ है. क्यों समझ से भरी स्त्रियों के हिस्से कोई समझ और संवेदना से भरा पुरुष नहीं आता.
कभी-कभी लगता है कि यह उपन्यास अगर स्त्री ने लिखा होता तब यह कैसा होता?
तितली उपन्यास को पढ़ते हुए मुझ मारीना बहुत याद आई. नाय्या, मारीना...कार्ल, इरिना.
कोई बात अधूरी छूट जाय तो बहुत दिक करती है यह उपन्यास उसी अधूरी छूटी हुई बात के बारे में है. वो बात जो असल में जिन्दगी थी पूरी.
जीवन क्या है, कितना है. कब कोई जीवन पूरा होता है और कब वो अधूरा रह जाता है. क्या इसका उम्र से कोई लेना-देना है. नहीं जानती, लेकिन इतना जानती हूँ बीच राह में यूँ ही अचानक बिछड़ गए लोग छूट गए लोगों के जीवन में इस कदर रह जाते हैं कि उनका जीवन सच में बहुत मुश्किल हो जाता है.
नाय्या की पीड़ा मारीना की पीड़ा एक जैसी ही तो थी. पीडाएं सहचर होती हैं. वो सच्ची दोस्त की मानिंद साथ हो लेती हैं. किसी भी देश, काल, व्यक्ति की पीड़ा कांधे से आकर टिककर बैठ सकती है. अपने दुःख से, पीड़ा से रिहा होने में कई बार दूसरे की पीड़ा को अपना लेना काम आया है.
तितली को पढ़ते हुए कई जख्म खुलने लगते हैं, कुछ भरने भी लगते हैं. उपन्यास का पहला हिस्सा दूसरे हिस्से की तैयारी सरीखा है. पूरे वक़्त लगता है कि काफ्का आसपास हैं कहीं. हालाँकि वो उपन्यास में कहीं नहीं है. उपन्यास में बहुत सारे लेखकों का जिक्र है, उनके मृत्यु के बारे में लिखे कुछ अंश हैं. कुछ धूप छाँव सा समां बनता है जैसे जीवन की तैयारी हो रही हो. या शायद मृत्यु की. या शायद लम्हों की. मेरे जेहन में हमेशा से मृत्यु की बाबत सबसे पहले काफ्का का लिखा ही उभरता है फिर कामू फिर नीत्शे लेकिन तितली पढ़ते हुए यह विस्तार बढ़ता जाता है. पढ़ना और जीना दो अलग शय हैं. कुछ भी पढ़ना, किसी का भी लिखा पढ़ना जीने की तैयारी नहीं हो सकता लेकिन जिया हुए का स्वाद पढ़ने के संग जब मिलता है तब समझ तनिक और साफ़ होती है.
मुझसे कोई पूछे कि तितली उपन्यास कैसा लगा तो मैं सिर्फ चुप ही रहूंगी. ‘अच्छा लगा’ कहना मुझे अच्छा तो नहीं लगेगा. हालाँकि यह जरूर है कि इसे पढ़ना अपने भीतर के उन अंधेरों में झांकना है जिन्हें हमने छुपा दिया था. उन जख्मों को तनिक मरहम लगाना है जिसे हम इग्नोर किये बैठे थे. सामना करना है जीवन का, उसके हर रूप का. यह उपन्यास उस एहसास का मीठा स्वाद है जो दूर देश में बैठा कोई व्यक्ति महसूस कर पाता है. एक लेखक जब पाठक होता है और अपने प्रिय लेखक की पीड़ा को अपने भीतर समेट लेता है, उससे मिलने का ख़्वाब उसकी आँखों में दिपदिप करने लगता है.
कोई भी लेखक असल में तो पाठक ही है. तो यह उस उस पाठक के अपने लेखक के प्रति प्रेम की कहानी है. उस कहानी में सात समन्दर पार की यात्रा है, लेखक से हुईं खूबसूरत मुलाकातें हैं और जीवन है.
मुझे इस उपन्यास में शायर का किरदार किसी रिलीफ सा लगा. जैसे तेज़ धूप में पाँव जैसे ही जलने लगते हों शायर की उपस्थिति छाया कर देती हो.
मैं एक स्त्री हूँ और मैंने इसे स्त्री नजरिये से पढ़ते हुए पाया कि क्लाउस की प्रेमिका हो, शायर हो, खुद नाय्या हो कितना कुछ अनकहा रह गया है अभी. कितना कुछ सुनना बाकी है उनसे. लेखक ने उपन्यास भर का सामान जमा किया और जो छूट गया मेरा मन उसमें अटका हुआ है. क्यों समझ से भरी स्त्रियों के हिस्से कोई समझ और संवेदना से भरा पुरुष नहीं आता.
कभी-कभी लगता है कि यह उपन्यास अगर स्त्री ने लिखा होता तब यह कैसा होता?
लेखक जिद्दी है वो अपने सपनों का पीछा करना जानता है. यह बात इस उपन्यास की ख़ास बात है. यह दो लेखकों की कहानी है, एक पाठक जो लेखक भी है का अपने प्रिय लेखक के प्रति प्रेम की कहानी है. यह कोपेनहेगन की धूप, वहां की हवा, पेड़ और भाषा की कहानी है जिसमें कॉफ़ी की खुशबू घुली हुई है. यह कहानी है इमोशनली एक्स्जास्ट होकर पस्त एक लेखक की यात्रा की. नाय्या की उपस्थिति इन सारी कहानियों का वो सुर है जिस पर सधकर ये सब कहानियां आगे बढ़ती हैं.
लेकिन जाने क्यों लगता है कि बहुत सी कहानियां शेष रह गयी हैं वो जीवन के किसी नए मोड़ पर हमारी बाट जोह रही होंगी. सोचती हूँ छत्तीसगढ़ जाऊं तो शायर से मुलाकात होगी क्या?
किताब में प्रूफ की गलतियाँ अखरती हैं. यूँ भी लगता है कि शायर के पत्रों की भाषा और शैली इतनी परिमार्जित न होती तो शायद और अच्छा होता. यह उपन्यास बहुत से सवाल ज़ेहन में छोड़ता है. इसके पूरा होते ही काफी सारा अधूरापन बिखर जाता और यही इसकी खूबसूरती है.
लेकिन जाने क्यों लगता है कि बहुत सी कहानियां शेष रह गयी हैं वो जीवन के किसी नए मोड़ पर हमारी बाट जोह रही होंगी. सोचती हूँ छत्तीसगढ़ जाऊं तो शायर से मुलाकात होगी क्या?
किताब में प्रूफ की गलतियाँ अखरती हैं. यूँ भी लगता है कि शायर के पत्रों की भाषा और शैली इतनी परिमार्जित न होती तो शायद और अच्छा होता. यह उपन्यास बहुत से सवाल ज़ेहन में छोड़ता है. इसके पूरा होते ही काफी सारा अधूरापन बिखर जाता और यही इसकी खूबसूरती है.
2 comments:
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर मंगलवार 7 फ़रवरी 2023 को लिंक की जाएगी ....
http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
बढ़िया समीक्षा
साधुवाद
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