Thursday, March 5, 2020

कई बेआवाज थप्पड़ों की याद दिलाती फिल्म ‘थप्पड़’


'थप्पड़' बस इतनी सी बात? बस इतनी सी बात पर घर छोड़ दिया? इतनी सी बात पर तलाक ले लिया? पागल है क्या? कितना तो चाहता था उसका पति उसे, थोड़ा बहुत तो हो जाता है ऊंच-नीच. इतना एडजेस्टमेंट तो रिश्तों में चलता है. ऐसे सोचने लगें तो एक भी औरत घर में रहे ही न सब घर छोड़कर चली जाएँ. सारी शादियाँ टूट जाएँ. ये तो कुछ ज्यादा ही दिखा दिया फिल्म में.. औरत वो जो घर जोडकर रखे, खुद सहे लेकिन परिवार पर आंच न आने दे. जिन औरतों ने सहा नहीं उनके घर टूटे ही हैं. ये और बात है कि टूटे घर वाली औरतों ने भी कम नहीं सहा. फिर इस फिल्म में तो लड़का सौरी फील भी कर रहा था. लेने भी आया. कितना कहा कि गुस्से में था...लड़की मानी ही नहीं...ऐसे तो चल लिया यह समाज. ऐसे तो निभ गयीं शादियां?

थप्पड़ देखते हुए आसपास से सुनाई देने वाले वक्तव्यों के चेहरे कुछ ऐसे ही थे. ‘इत्ती सी बात...’ यही बार-बार सुनाई दे रहा था. सच कहूँ तो कुछ देर तक समझ में मुझे भी नहीं आया कि इत्ती सी बात को फिल्म का विषय क्यों बनाया. इसमें बहुत कुछ और शामिल हो सकता था. माइनस थप्पड़ जो एक एक्सट्रीम गुस्से की वजह से पत्नी पर निकल गया अमृता की जिन्दगी में सब कुछ तो ठीक था. कुछ ज्यादा ही ठीक था. कितनी लड़कियों के पिता उन्हें इतना प्यार करते हैं भला, कितने पिता अनकंडीशनली बेटियों के साथ खड़े होते हैं. अव्वल तो वो खड़े होना ही नहीं चाहते क्योंकि वो आखिरी दम तक घर बसा रहे की कोशिश करने में लगे रहते हैं बिना यह सोचे कि इस कोशिश में कितनी घुटन होगी. जो पिता साथ खड़े होना भी चाहते हैं उनके आगे ‘समाज क्या कहेगा’ की दीवार आ जाती है.

कितनी लड़कियों को पड़ोस की कोई स्त्री बिना जज किये जोर से गले लगा लेती है. कितनी स्त्रियों को उसकी भाभी या भाई की मंगेतर मजबूती से थाम लेती हैं...अमृता खुशकिस्मत है.

भारतीय समाज की स्त्रियाँ अभी इतनी खुशकिस्मत नहीं हैं. सोचती हूँ कि कौन सी स्त्री होगी जो फिल्म देखकर यह नहीं सोचेगी बस इत्ती सी बात पर तलाक ले लिया, हमने तो इससे हजार गुना ज्यादा सहा, रोज सहते हैं...यही फिल्म का केंद्र बिंदु है. यह एहसास कराना.

जिस नीले रंग की दीवारों वाले घर के ख्वाब अमृता देखती है वो नीला रंग उसकी पसंद तो था ही नहीं, लेकिन उसने पति विक्रम की पसंद को इस कदर आत्मसात किया कि उसे लगा ही नहीं कि उसकी पसंद का रंग तो पीला था शायद. वो इस कदर भूल चुकी है कि पापा से कन्फर्म करती है इस बात को. 'मेरा फेवरेट रंग तो पीला था न पापा?' यह एक और बात है कि कितने पिताओं को अपनी बेटी के फेवरेट रंग और उनकी फेवरेट खाने की चीज़ों के बारे में पता है? हालाँकि सारी ही बेटियों को पता है पिता की पसंद की हर चीज़ के बारे में.

यह फिल्म सिर्फ थप्पड़ के बारे में नहीं है, यह रोज-रोज होने वाली उन छोटी उपेक्षाओं के बारे में है जो आत्म सम्मान को तोडती हैं लेकिन जिन्हें इग्नोर करके स्त्रियाँ घर की डोर थामे रहती हैं बिखरने नहीं देतीं.

'फिर से नयी गाड़ी ? ये आखिर करती क्या है?' अपनी सिंगल पड़ोसन की नयी गाड़ी पर ऐसे कमेन्ट देने वाले पति विक्रम को भले ही अमृता ने 'हार्ड वर्क करती है' कहकर हंसते हुए इग्नोर कर दिया हो लेकिन यह समूचे समाज का आईना है. जब अमृता कहती है ‘मैं भी सीख लूं गाड़ी चलाना?’ तो विक्रम कहता है 'तुम पहले आलू के पराठे बनाना सीख लो'. जब लड़कियां घर के काम में खुद को झोंक देती हैं हैं तो थप्पड़ नुमा कमेन्ट मिलता है ‘तुम चूल्हे में ही घुसी रहना, और चूल्हे से बाहर निकली स्त्रियों पर वो फ़िदा होने लगते हैं. जब वो बाहर निकलती हैं, तरक्की करती हैं तो उनका चरित्र चित्रण होने लगता है. उन्हें गाड़ी चलाना सीखने, आलू का पराठा बनाना सीखने, बच्चे पैदा करने, प्रमोशन हासिल करने, सुंदर दिखने, सामान्य दिखने हर बात के लिए थप्पड़ नुमा कमेंट इतने सहज रूप में मिलते रहते हैं कि स्त्रियाँ भी आदी सी हो जाती हैं इनकी.

क्यों स्त्रियों पर बने चुटकुले स्त्रियाँ ही मजे लेकर पढ़ती हैं, सुनती हैं सुनाती हैं. ये वो थप्पड़ है जिसे एक-दूसरे के गाल पर मारने के लिए हमें तैयार किया गया. एक चेतन स्त्री को हमेशा खतरे के तौर पर ही देखा गया है. चेतन स्त्री, घर, परिवार, समाज सबके लिए खतरा है. वो सब परिवार खुशहाल हैं जहाँ स्त्रियों ने कभी सवाल नहीं किये और पुरुषों ने यह बात कभी महसूस भी नहीं की.

अमृता के पिता जो काफी समझदार और संवेदनशील हैं उन्हें यह सुनकर झटका लगता है जब उनकी पत्नी बुढ़ापे में यह कहती है कि ‘सहा तो उसने भी है’. उन्हें लगता है कि वो तो बहुत ख्याल रखते हैं इसलिए उनकी पत्नी ऐसा कैसे कह सकती है. तब वो कहती है ‘मैं गाना चाहती थी लेकिन अगर मैं गाती तो बच्चे कौन पालता. किसी ने नहीं कहा तो भी मुझे पता था मुझे क्या करना है.’ लेकिन अंतिम वाक्य कि 'तुमने तो भी तो कभी नहीं कहा कि मैं अब गाती क्यों नहीं?' प्राण वाक्य है.

अगर खुद की मर्जी से घर की स्त्रियाँ पुरुषों पर, बच्चों पर, परिवार पर अपनी इच्छाओं को कुर्बान कर रही हैं और आपको यह पता भी नहीं तो आपकी यह उपेक्षा भी थप्पड़ है

बस इत्ती-इत्ती सी ही होती हैं बातें जोड़ने की भी और तोड़ने की भी. अस्तित्व फिल्म का वह दृश्य याद आता है जब तब्बू से उसका घर छोड़ने को कहा जाता है. कहने वाले पति और पुत्र दोनों हैं. वह घर जिसे उसने रत्ती रत्ती जोड़ा था अचानक उसका नहीं रहा. उसी एक गलती की वजह से जिसे पति भी शौकिया कई बार करता रहा है और जिसे खुद के लिए गलती माना ही नहीं.

यह फिल्म बहुत कम है, समाज में इससे कहीं ज्यादा थप्पड़ हैं जो रोज तड़ातड पड़ रहे हैं जिनमें से बेआवाज थप्पड़ों की तादाद बहुत ज्यादा है. यह फिल्म रिश्ता और सम्मान में से अगर चुनना हो तो सम्मान बचाने की ओर ले जाती है.

यह फिल्म स्त्रियों के बारे में है लेकिन इसे पुरुषों को जरूर देखना चाहिए. अपने घर की तमाम स्त्रियों के साथ देखना चाहिए. रो लेना चाहिए थोड़ा सा, महसूस कर लेना चाहिए अपनी गलतियों को. उन स्त्रियों के प्रति सम्मान से भर जाना चाहिए जो रोज आपकी उपेक्षाओ के थप्पड़ खाती हैं बिना शिकायत किये.

हर पिता को यह फिल्म देखनी चाहिए और सोचना चाहिए बेटियों के साथ सुंदर रिश्ता बुनने के बारे में.

7 comments:

उषा किरण said...

बहुत सुंदर समीक्षा लिखी है जरूर देखनी है ये फिल्म 👍

रश्मि प्रभा... said...

एक थप्पड़ ने कितना कुछ याद दिला दिया ... पति की आंखों में असली सॉरी देखने की चाह लिए वह कब तक रुकी रही, इस पर किसी ने गौर ही नहीं किया ।

Dr.NISHA MAHARANA said...

सारगर्भित समीक्षा ...

Meena Bhardwaj said...

बहुत सुन्दर समीक्षा ।

विभा रानी श्रीवास्तव said...

आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 14 मार्च 2020 को लिंक की जाएगी ....
http://halchalwith5links.blogspot.in
पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!

Sweta sinha said...

सूक्ष्म विश्लेषण बेहतरीन समीक्षा।

Sudha Devrani said...

सुन्दर समीक्षा।