शदीद इच्छा थी शिकारा देखने की. देखना चाहती थी कि विधु विनोद चोपड़ा की नजर से खूबसूरत कश्मीर और सुंदर होकर कैसा दीखता है. मैंने कोई फिल्म प्रिव्यू नहीं देखा न कोई रिव्यू पढ़ा. बस कि एक प्रेम कहानी जो कश्मीर के आंगन में जन्म लेती है उसे देखना था. फिल्म टाइप होती चिठ्ठी के साथ खुलती है जो कश्मीर के मसायल के बारे में बात करने के लिए एक युवा अमरीकी प्रेसिडेंट को लिख रहा है. अगले ही फ्रेम में पता चलता है कि 28 साल से करीब 1300 चिठ्ठियां लिख चुके उस युवा को अमरीकी प्रेसिडेंट का बुलावा आ ही गया. शिव नामक यह युवा जो अपना तमाम युवापन चिठ्ठियाँ लिखने में गँवा चुका है प्रेसिडेंट से मिलने अपनी प्यारी पत्नी शांति के साथ निकल पड़ता है. आगरा शहर, ताज होटल, प्रेसिडेंट स्यूट की भव्यता में खुलती है एक प्रेम कहानी 'शिकारा'.
यह खालिस प्रेम कहानी है. फ्रेम दर फ्रेम मोहब्बत जवां होती है, निखरती है, हालात से जूझती है. कश्मीर की कहानी है तो कश्मीर के मसायल भी होंगे. डल झील के नज़ारे भी होंगे और चिनारों की छाँव भी. शिव और शांति की मोहब्बत प्रेम के उस रूमानी दीवान से शुरू होती है जिसे लिखने वाले शिव खुद हैं और उस दीवान की दीवानी को यह पता नहीं. जब पता चलता है तो वही होता है जो हमेशा से होता आया है. दो दिल एक सम पर धड़कते हुए एक शिकारे पर सवार होकर जिन्दगी के सफर पर निकल पड़ते हैं.
शिव बने आदिल और शांति बनी सादिया अपनी तमाम मासूमियत से इस कदर लुभाते हैं कि कश्मीर की फिजाओं में जज्ब होते जाते हैं. मानो वो कश्मीर की कुदरत के ही किरदार हों जैसे चिनार, जैसे झेलम, जैसे सेब के बागान, जैसे वादियों से उठती कोई कश्मीरी धुन, जैसे फूलों भरे शिकारे पर चांदनी रात में की गयी रूमानी सी सैर, शिव और शांति की इस प्रेम कहानी से रश्क किया जा सकता है जिन्होंने पूरी जिन्दगी एक दूसरे से प्रेम किया और प्रेम की उसी खुराक पर जीते हुए दुनिया की तमाम मुश्किलों का सामना किया.
अपनी ही आँखों के सामने अपने बड़े भाई की हत्या देख चुके शिव की टूटन को शांति जिस कसावट भरे आलिंगन से और उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए तरह सहेजती है उसे देख अपने भीतर भी कुछ पिघलता हुआ महसूस होता है. फिल्म में अल्फाज़ की कहन कम है, महसूसने की गढ़न ज्यादा है. प्रेम को असल मायने देती फिल्म एक बड़े से खूबसूरत घर में भी और फिर रिफ्यूजी कैम्प में भी हाथ थामे रहती है.
शांति के ख्वाब को शिव पलकों पर उठाये फिरता है और शिव की इच्छाओं को अपने आगोश में कसकर सहेजती है शांति. उनके ख्वाब ऊंचे हैं लेकिन इंसानियत के आगे, दिल की धडकनों के आगे उन ख्वाबों को बेझिझक कुर्बान करते हैं दोनों बिना कुर्बानी के किसी एहसास के. ऐसा ही तो होता है प्रेम...जो 'मैं' से निकलकर 'हम' में फिर 'हम सब' में तब्दील हो जाता है.
शिव चाहता तो प्रेफेसर बनकर जा सकता था बेहतर जिन्दगी जीने की राह की ओर लेकिन उसने रिफ्यूजी कैम्प में रहकर यहाँ के बच्चों को पढ़ाना चुना.
फिल्म कश्मीर से विस्थापित हुए कश्मीरी पंडितों की कहानी है, लेकिन मुझे यह कश्मीर में मिलजुलकर रहने वाले हिन्दू मुसलमानों के प्रेम की कहानी भी लगी. प्रेम के दुश्मन सियासत करने वालों की भी लगी जो सिर्फ अपने फायदे के लिए सदियों से दो जिस्म एक जान की तरह रह रहे हिन्दू और मुसलमानों के बीच फांक करते हैं. चाहे वो बेनजीर हों, बुश हों या हिन्दुस्तानी लीडरान. किसी को न हिन्दू की पड़ी है न मुसलमानों की सबको अपनी ही पड़ी है. इसी अपनी पड़े से नफरत की आग सुलगा-सुलगा कर राजनीति की जा रही है. वरना लतीफ़ और शिव जिस तरह दो भाइयों की तरह पले-बढे कैसे उनके बीच धर्म आ गया और उन्हें दूर कर गया..
शिव ने और उसके जैसे तमाम लोगों ने अपनों को खोया, अपने ही घर से बेघर हुए, घर होते हुए रिफ्यूजी कैम्प में रहे लेकिन उनके मन में नफरत नहीं पनपी. घर से बिछड़ने का दुःख है लेकिन आक्रोश नहीं. बदला लेने की बात नहीं. मुझे शिव और शांति की इस प्रेम कहानी में समाई विस्थापन की पीड़ा में समस्त स्त्रियों की पीड़ा भी दिखी. अपनी जड़ों से उखड़ना, नयी जगह जाकर बसना और पलट-पलटकर अपनी जड़ों को याद करना. यह हर उस व्यक्ति की पीड़ा है जिसे अनचाहे अपनी जड़ों से उखाड़ दिया जाता है.
यह फिल्म शिव और शांति की प्रेम कहानी के बहाने इंसानियत के प्रति प्रेम की कहानी है. सियासत की उस साजिश को समझने की सिफारिश भी करती है जिसका पेट ही नफरत की आंच पर रोटियां सेंककर भरता है. शिव को किसी से नफरत नहीं, शांति का कोई सपना नहीं सिवाय इसके कि सब प्रेम से रहें और शिव उसके साथ रहे.
रिफ्यूजी कैम्प में छोटे-छोटे बच्चे जिन्हें न मंदिर की समझ न मस्जिद की किस तरह उनकी मासूमियत में नफरत घोल दी गयी कि उनका खेल ही बन जाता है 'मंदिर वहीं बनायेंगे' जिसे शिव सुभीते से प्रेम में बदलने की कोशिश करता है और साथ मिलकर रहने की बात करता है.
तमाम हिन्दुस्तानी जहाँ कश्मीर में हनीमून मनाने का सपना देखते हैं उनके लिए यह जानना दिलचस्प होगा कि एक कश्मीरी हनीमून के लिए कहाँ जाना चाहता है. यह सुंदर फिल्म है. प्रेम में रची बसी कहानी जिसे प्रेम से बयान किया गया है उस खत में जो कश्मीर की वादियों से भेजा गया है.
फिल्म के बारे में बात अधूरी रहेगी अगर राहुल पंडिता का जिक्र न हो जो इस फिल्म के लेखक हैं. बात पूरी नहीं होगी अगर रंगराजन रामबरदन की सिनेमोटोग्राफी का जिक्र न हो और जिक्र न हो इरशाद कामिल के गीतों का. इरशाद साहब मानो अल्फाजों की इबादतगाह में सजदा करते हुए कुछ अल्फाज़ उठा लेते हों, उन अल्फाजों को पलकों से छुआते हुए कागज़ पर रख भर देते हों. इन अल्फाजों को संगीत में ढाला ए आर रहमान, क़ुतुब-ए-कृपा, अभय सोपोरी, सन्देश शांडिल्य, रोहित कुलकर्णी ने.
पूरी फिल्म में कश्मीर की ऐसी खुशबू है कि कश्मीर से इश्क़ और गाढ़ा हो जाता है साथ ही यह दुःख भी कि किस तरह धरती के इस खूबसूरत से हिस्से को, यहाँ के प्यार से भरे हुए लोगों को घायल किया है सियासतदानों ने.
जबसे फिल्म देखी है फिल्म का गीत 'कुछ न होने का दुःख जरा सा लगे, तेरे होने से घर भरा सा लगा'...और 'ए वादी शहजादी, बोलो कैसी हो' न लबों से उतर रहे हैं न जेहन से. कश्मीर से आये इस प्रेम पत्र को प्रेम से पढ़िए बिना कोई हिन्दू मुस्लिम एंगल निकलने की कोशिश किये. यकीन मानिए, इश्क बहुत मुबारक शय है...इश्क़ में मुब्तिला रहिये.
http://epaper.subahsavere.news/m5/2556306/SUBAH-SAVERE-BHOPAL/17-feb-2020?fbclid=IwAR3k1642tTlKVQ35nenPXmY7exzluwGK4rhZMoPdfjbJrgGPX9Kt6KFUxx0#issue/5/1
शिव बने आदिल और शांति बनी सादिया अपनी तमाम मासूमियत से इस कदर लुभाते हैं कि कश्मीर की फिजाओं में जज्ब होते जाते हैं. मानो वो कश्मीर की कुदरत के ही किरदार हों जैसे चिनार, जैसे झेलम, जैसे सेब के बागान, जैसे वादियों से उठती कोई कश्मीरी धुन, जैसे फूलों भरे शिकारे पर चांदनी रात में की गयी रूमानी सी सैर, शिव और शांति की इस प्रेम कहानी से रश्क किया जा सकता है जिन्होंने पूरी जिन्दगी एक दूसरे से प्रेम किया और प्रेम की उसी खुराक पर जीते हुए दुनिया की तमाम मुश्किलों का सामना किया.
अपनी ही आँखों के सामने अपने बड़े भाई की हत्या देख चुके शिव की टूटन को शांति जिस कसावट भरे आलिंगन से और उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए तरह सहेजती है उसे देख अपने भीतर भी कुछ पिघलता हुआ महसूस होता है. फिल्म में अल्फाज़ की कहन कम है, महसूसने की गढ़न ज्यादा है. प्रेम को असल मायने देती फिल्म एक बड़े से खूबसूरत घर में भी और फिर रिफ्यूजी कैम्प में भी हाथ थामे रहती है.
शांति के ख्वाब को शिव पलकों पर उठाये फिरता है और शिव की इच्छाओं को अपने आगोश में कसकर सहेजती है शांति. उनके ख्वाब ऊंचे हैं लेकिन इंसानियत के आगे, दिल की धडकनों के आगे उन ख्वाबों को बेझिझक कुर्बान करते हैं दोनों बिना कुर्बानी के किसी एहसास के. ऐसा ही तो होता है प्रेम...जो 'मैं' से निकलकर 'हम' में फिर 'हम सब' में तब्दील हो जाता है.
शिव चाहता तो प्रेफेसर बनकर जा सकता था बेहतर जिन्दगी जीने की राह की ओर लेकिन उसने रिफ्यूजी कैम्प में रहकर यहाँ के बच्चों को पढ़ाना चुना.
फिल्म कश्मीर से विस्थापित हुए कश्मीरी पंडितों की कहानी है, लेकिन मुझे यह कश्मीर में मिलजुलकर रहने वाले हिन्दू मुसलमानों के प्रेम की कहानी भी लगी. प्रेम के दुश्मन सियासत करने वालों की भी लगी जो सिर्फ अपने फायदे के लिए सदियों से दो जिस्म एक जान की तरह रह रहे हिन्दू और मुसलमानों के बीच फांक करते हैं. चाहे वो बेनजीर हों, बुश हों या हिन्दुस्तानी लीडरान. किसी को न हिन्दू की पड़ी है न मुसलमानों की सबको अपनी ही पड़ी है. इसी अपनी पड़े से नफरत की आग सुलगा-सुलगा कर राजनीति की जा रही है. वरना लतीफ़ और शिव जिस तरह दो भाइयों की तरह पले-बढे कैसे उनके बीच धर्म आ गया और उन्हें दूर कर गया..
शिव ने और उसके जैसे तमाम लोगों ने अपनों को खोया, अपने ही घर से बेघर हुए, घर होते हुए रिफ्यूजी कैम्प में रहे लेकिन उनके मन में नफरत नहीं पनपी. घर से बिछड़ने का दुःख है लेकिन आक्रोश नहीं. बदला लेने की बात नहीं. मुझे शिव और शांति की इस प्रेम कहानी में समाई विस्थापन की पीड़ा में समस्त स्त्रियों की पीड़ा भी दिखी. अपनी जड़ों से उखड़ना, नयी जगह जाकर बसना और पलट-पलटकर अपनी जड़ों को याद करना. यह हर उस व्यक्ति की पीड़ा है जिसे अनचाहे अपनी जड़ों से उखाड़ दिया जाता है.
यह फिल्म शिव और शांति की प्रेम कहानी के बहाने इंसानियत के प्रति प्रेम की कहानी है. सियासत की उस साजिश को समझने की सिफारिश भी करती है जिसका पेट ही नफरत की आंच पर रोटियां सेंककर भरता है. शिव को किसी से नफरत नहीं, शांति का कोई सपना नहीं सिवाय इसके कि सब प्रेम से रहें और शिव उसके साथ रहे.
रिफ्यूजी कैम्प में छोटे-छोटे बच्चे जिन्हें न मंदिर की समझ न मस्जिद की किस तरह उनकी मासूमियत में नफरत घोल दी गयी कि उनका खेल ही बन जाता है 'मंदिर वहीं बनायेंगे' जिसे शिव सुभीते से प्रेम में बदलने की कोशिश करता है और साथ मिलकर रहने की बात करता है.
तमाम हिन्दुस्तानी जहाँ कश्मीर में हनीमून मनाने का सपना देखते हैं उनके लिए यह जानना दिलचस्प होगा कि एक कश्मीरी हनीमून के लिए कहाँ जाना चाहता है. यह सुंदर फिल्म है. प्रेम में रची बसी कहानी जिसे प्रेम से बयान किया गया है उस खत में जो कश्मीर की वादियों से भेजा गया है.
फिल्म के बारे में बात अधूरी रहेगी अगर राहुल पंडिता का जिक्र न हो जो इस फिल्म के लेखक हैं. बात पूरी नहीं होगी अगर रंगराजन रामबरदन की सिनेमोटोग्राफी का जिक्र न हो और जिक्र न हो इरशाद कामिल के गीतों का. इरशाद साहब मानो अल्फाजों की इबादतगाह में सजदा करते हुए कुछ अल्फाज़ उठा लेते हों, उन अल्फाजों को पलकों से छुआते हुए कागज़ पर रख भर देते हों. इन अल्फाजों को संगीत में ढाला ए आर रहमान, क़ुतुब-ए-कृपा, अभय सोपोरी, सन्देश शांडिल्य, रोहित कुलकर्णी ने.
पूरी फिल्म में कश्मीर की ऐसी खुशबू है कि कश्मीर से इश्क़ और गाढ़ा हो जाता है साथ ही यह दुःख भी कि किस तरह धरती के इस खूबसूरत से हिस्से को, यहाँ के प्यार से भरे हुए लोगों को घायल किया है सियासतदानों ने.
जबसे फिल्म देखी है फिल्म का गीत 'कुछ न होने का दुःख जरा सा लगे, तेरे होने से घर भरा सा लगा'...और 'ए वादी शहजादी, बोलो कैसी हो' न लबों से उतर रहे हैं न जेहन से. कश्मीर से आये इस प्रेम पत्र को प्रेम से पढ़िए बिना कोई हिन्दू मुस्लिम एंगल निकलने की कोशिश किये. यकीन मानिए, इश्क बहुत मुबारक शय है...इश्क़ में मुब्तिला रहिये.
http://epaper.subahsavere.news/m5/2556306/SUBAH-SAVERE-BHOPAL/17-feb-2020?fbclid=IwAR3k1642tTlKVQ35nenPXmY7exzluwGK4rhZMoPdfjbJrgGPX9Kt6KFUxx0#issue/5/1
1 comment:
वाह ! कितनी सुंदर समीक्षा, सच ही कहते हैं खूबसूरती देखने वाले की आँख में होती है, हमने भी देखी और बिल्कुल ऐसा ही पाया !
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