सुख क्या है? कोई किताब लिखना? प्रकाशित होना? प्रशंसाओं के घेरे में घिरना? नहीं, यह सुख का भ्रम हो सकता है सुख नहीं. सुख है पीड़ा से मुक्ति जो लिखने से पहले या लिखने के दौरान घेरे होती है, न जीने देती है न मरने देती है. लिख चुकने के बाद तनिक सी जो शांति मिलती है, बहुत थोड़ी सी बहुत कम देर को उसे कभी-कभार सुख जैसा महसूस किया है. वही सुख जो झट से उठकर चल देता है निर्मोही प्रेमी की तरह, बिना पीछे पलटकर देखे. हमें हमारे तमाम नए दुःख, पीड़ा, उलझन, बेचैनी के साथ छोड़कर.
यह छूटना बार-बार का है. सच कहूँ तो अब इस छूटने में ही मन रमता है. खुद का उदास चेहरा ज्यादा अपना सा लगता है.
शोर बाहर घटता है, भीतर घटने वाला सुख या दुःख सब बेआवाज घटता है. ऐसा ही बेआवाज सुख इन दिनों पलकें नम किये रहता है. किताब की बाबत कभी ज्यादा सोचा नहीं, काम के बारे में सोचा. सोचा उसे पूरी निष्ठा और प्रेम के साथ करने के बारे में और उनके बारे में जो इस यात्रा में साथ थे.
किताब की सूचना बहुत संकोच के साथ दोस्तों से साझा की और लगभग सारे ही दोस्तों ने पहली प्रति खरीदने की बात पूरे उत्साह से कही. सबको पहली प्रति खरीदनी थी. किसी ने भी मुझसे अभी तक मुफ्त में किताब की मांग नहीं की है. जो लोग खरीद सके हैं उन्होंने खरीद ली है और जो नहीं पहुँच सके हैं खरीदने तक वो अमेजन के लिंक का इंतजार कर रहे हैं.
दोस्तों का यह प्यार सुख है, और भी एक सुख है, कि पहली किताब खरीदने वाली पहली ग्राहक बनी बिटिया ख्वाहिश. पॉकेटमनी के पैसों से उसने पहली किताब खरीदी भी और औटोग्राफ भी लिया. सुख है किसी के सुख की वजह बनना. किताब दूर कहीं रखी है दोस्त सब बहुत करीब आ गए हैं.
सच, मुझसे किसी ने गिफ्ट में नहीं मांगी किताब...
(फोटो में अनि, ख्वाहिश और दीत्या)
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