बेसबब जागती रातों को परे धकिया कर, दौड़ती-भागती जिन्दगी में से कोई सुबह चुरा लेने का बड़ा सुख होता है. उन सुबहों को सेब, नाशपाती, पुलम आदि के फूलों के बीच अंजुरियों में भरते हुए, भीमताल की टेढ़ी-मेढ़ी सी सडक पे इक्क्म दुक्क्म खेलती धूप को देखते हुए, ऊंची पहाड़ियों के बीच ख़ामोशी से ठहरी हुई झील के किनारे से गुजरते हुए या कभी किसी चाय के ढाबे के किनारे बैठकर पीते हुए कडक चाय, सुनते हुए पहाड़ी (कुमाउनी) धुन...जिन्दगी...हथेलियों पे रेंगती हुई मालूम होती है...कभी पलकों की कोरों पर अटकी हुई भी महसूस होती है...वो पहाड़ी धुन आहिस्ता आहिस्ता फिजाओं में घुलती रहती है...रगों में भी घुलती है हौले से...
बरस बीत गया वो धुन अब भी रगों में रेंगती है...कभी साँसों में सुलगती है...कई रोज से ये धुन सर पे सवार है...छाना बिलौरी का घाम...जिसमे एक बेटी अपने बाबुल को कह रही है कि ओ बाबुल, मुझे छाना बिलौरी यानि जहाँ बहुत तेज़ धूप पड़ती है वहां मत ब्याहना वरना मैं वहां किस तरह रह पाऊंगी, किस तरह काम कर पाऊँगी....
ये कुमाउनी गीत मेरे लिए भूपेन जी की आवाज में ही दर्ज है...हालाँकि इसके मूल गायक हैं गोपाल दा यानि गोपाल बाबू गोस्वामी...बाद में इसे कई लोगों ने इसे अपनी अपनी तरह से गाया...गाते रहेंगे....
बरस बीत गया वो धुन अब भी रगों में रेंगती है...कभी साँसों में सुलगती है...कई रोज से ये धुन सर पे सवार है...छाना बिलौरी का घाम...जिसमे एक बेटी अपने बाबुल को कह रही है कि ओ बाबुल, मुझे छाना बिलौरी यानि जहाँ बहुत तेज़ धूप पड़ती है वहां मत ब्याहना वरना मैं वहां किस तरह रह पाऊंगी, किस तरह काम कर पाऊँगी....
ये कुमाउनी गीत मेरे लिए भूपेन जी की आवाज में ही दर्ज है...हालाँकि इसके मूल गायक हैं गोपाल दा यानि गोपाल बाबू गोस्वामी...बाद में इसे कई लोगों ने इसे अपनी अपनी तरह से गाया...गाते रहेंगे....
इस गीत को सुनते हुए सोचती हूँ इस बरस भी वैसे रास्ते फूलों से भरे होंगे, फयूली वैसे ही फूली होगी, बच्चे स्कूल जाते हुए शरारतें करते जाते होंगे, नन्ही सी पगडण्डी पे वो अकेला पेड़ अब भी मुस्कुरता होगा, अब भी झील के किनारों पे रंगीन नाव सजी होंगी...कुछ भी कहाँ बीतता है...सात ताल के रास्तों को किस तरह हमने शरारतों से भर दिया था, देखो न ये छाना बिलौरी के घाम की तपिश में सारे बीते हुए लम्हे किस कदर चमक रहे हैं...
दोस्त कहते हैं तुम पक्की पहाड़ी हो गयी हो, मैं सुनकर ख़ुशी से झूम उठती हूँ. जिन्दगी जब पहाड़ होने लगी थी तब पहाड़ों का रुख किया था और जिस मोहब्बत से सीने से लगाया था पहाड़ों ने ऐसा लगा था कि बरसों बाद परदेस से आई बिटिया को मायके की छत मिली हो.
जन्म भले ही धरती के किसी भी कोने पे हुआ हो लेकिन महसूसने से लगता है कि इन्हीं पहाड़ों की हूँ कबसे. ये गीत सुनते हुए पहाड़ों से अपनेपन का एहसास और बढ़ता जाता है...मंडवे की रोटी की खुशबू आ रही है पास ही से....
जन्म भले ही धरती के किसी भी कोने पे हुआ हो लेकिन महसूसने से लगता है कि इन्हीं पहाड़ों की हूँ कबसे. ये गीत सुनते हुए पहाड़ों से अपनेपन का एहसास और बढ़ता जाता है...मंडवे की रोटी की खुशबू आ रही है पास ही से....
3 comments:
बढ़िया पोस्ट
bahoot sunder geet aur utni hi sunder post :-)
गीत और पोस्ट दोनों ही खूबसूरत
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