फेसबुक- लम्हा लम्हा दर्ज होती जिंदगी
काश कोई हमें सुन लेता, वहां से जहां शब्दों का कोई काम ही नहीं रहता। काश कोई हमें पढ़ लेता ठीक वहां से जहां अक्षरों में दर्ज होने के कोई मायने नहीं रहते। काश कोई खामोशी की आंच में पकते दुःख में अपने होने के अहसास को मिला देता। काश कोई घड़ी भर को हमें तन्हा छोड़ देता कि अरसा हुआ खुद से बात ही नहीं हुई। लेकिन ये ख्वाहिश तो जिंदगी से कुछ ज्यादा ही डिमांड करने जैसा है। आलम तो यह है कि जो कहा जा रहा है उसे ही ठीक से समझ पाने में दिक्कत है। जो लिखा जा रहा है उसके अर्थों की अर्थी निकालने वालों की कमी नहीं। खामोशी....? किसे वक्त है खामोशी सुनने की, और चुप ही कौन है यहां...हर वक्त आवाज ही आवाज...अपने आप से बात करने पर कितने लाइक्स आयेंगे भला...? अपने आपसे हुई बात को भी चलो झट से दर्ज करके देखते हैं।यह इंस्टेंट काॅफी का जमाना है। हर चीज इंस्टेंट। सुख, दुःख, प्रेम, विरह, रचनाधर्मिता, कला, कविता, कहानी, फोटोग्राफी, समीक्षा, आन्दोलन, खबरें, गाॅसिप, गुटबाजी सबकुछ इंस्टेंट। फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप और न जाने क्या-क्या। बात दिमाग में पूरी तरह आ भी नहीं पाती कि चैराहे पर टंग जाती है। बात पूरी समझ भी नहीं पाते हैं कि लाइक्स और कमेंट्स की भीड़ बढ़ने लगती है। अजीब सा नशा है इसमें...नशा...हां, नशा ही तो है...इस कदर नशा कि एक भी पल इसके बिना रहना मुश्किल लगता है। हाथों में मोबाइल है, मोबाइल हमेशा चैराहे से आपको जोड़े रखता है। बाहर की दुनिया से, अनजान लोगों की दोस्तियों से जुड़े रहने का ऐसा नशा कि अपने आसपास की दुनिया, अपने भीतर की दुनिया सबसे दूरी बढ़ती जा रही है।
मां हाॅस्पिटल मेें है, फेसबुक पे दर्ज है...पिता का इंतकाल हो गया.. फेसबुक पर दर्ज। ब्रेकअप, फेसबुक पर, इन अ रिलेशनशिप फेसबुक पर। सुबह के खाने में पकौड़े खाये या पोहा, फेसबुक पर, आज शाम की लोकल छूट गई....फेसबुक पर...लम्हा लम्हा जिंदगी फेसबुक पर दर्ज हो रही है। कहीं घूमने जाइये तो फेसबुक फोटोग्राफी की ऐसी भीड़ उमड़ी नजर आती है कि क्या कहा जाए...वही पोज, वही मुस्कुराहट, सब कुछ कृत्रिम। जैसे जीवन का उद्देश्य ही फेसबुक भर बनकर रह गया हो। सारे लोग घूमने जाते हैं, हमें भी जाना चाहिए। कितने दिन से अच्छी और नई प्रोफाइल पिक्चर अपलोड नहीं हुई तो निकल पड़े अच्छे दृश्यों और फेसबुक पर अपलोड करने वाली तस्वीरों की तलाश में। कई बार लगता है कि जिंदगी को दर्ज करने की आपाधापी में जिंदगी को जीना भूल गये हैं। किसी झरने के किनारे बैठकर खामोशी से उसकी आवाज सुनने, उसकी धार को महसूसने, प्रकृति के नजारों को आंखों में उतार लेने की बजाय सही फ्रेम की तस्वीर लेकर तुरंत अपलोड करने की हड़बड़ी कहां ले जा रही है पता नहीं....लेकिन जिंदगी फेसबुक पर लम्हा-लम्हा दर्ज हो रही है।
वाह...वाह....लाइक...सुपर लाइक...के बाजार सजे हैं...रात दिन चमचमाते बाजार। रात के एक बजे भी आप इस बाजार से गुजर जाइये तो रौनकें आपको आवाज देंगी। आपके कदम ठिठक जायेंगे। कभी तो उदास कदमों को मुस्कुराहटों की नेमत भी मिल जाती है यहां लेकिन इंस्टेंट...पेन रिलीवर की तरह। उसके साइड इफेक्ट....उन पर भी सोचना जरूरी है।
यह सोचना जरूरी है कि अनजाने कहीं फेसबुक एडेक्शन सिंड्रोम के शिकार तो नहीं हो रहे हैं। कहीं ये लाइक्स, सुपरलाइक्स की दुनिया जिंदगी में दीमक बनकर तो नहीं लग रही। यह ठीक है कि अभिव्यक्तियों को जगह मिल रही है लेकिन उस जगह को भर लेने की हड़बड़ी में काफी कुछ गड़बडि़यां भी हो रही हैं। रात दिन की आॅनलाइन मसरूफियत ने एक किस्म का दबाव भी बनाना शुरू कर दिया है, कुछ अवसाद को भी जन्म दिया है, जीवन में एक अजीब सा छद्म पाॅपुलैरिज्म पैबस्त होने लगा है....जिंदगी ही क्यों कई बार तो मौत भी यहां दर्ज होती नजर आती है....
एक- एक रात तकरीबन डेढ़ बजे किसी की वाॅल पर मैसेज चमकता है, तंग आ गया हूं जिंदगी से...बहुत हुआ अब....और सुबह पता चलता है कि उस शख्स ने मैसेज लिखने के करीब दो घंटे के भीतर फांसी लगाकर जिंदगी खत्म कर ली।
फेसबुक पर लोग उसे समझाते रहे, कुछ चुटकियां लेते रहे...कुछ वजहें पूछते रहे...लेकिन वो जवाब देने के लिए नहीं लौटा...जिस अनहोनी की खबर उसने सारी दुनिया को कर दी थी उसी से अनजान उसके घर वाले दूसरे कमरों में सोए हुए थे।
दो- पिछले कई दिनों से उसकी वाॅल पर लगातार अपडेट्स बढ़ गये थे। कुछ नहीं तो तस्वीरें ही बदली जा रही थीं, गाने शेयर किए जा रहे थे। एक दिन में चार-पांच-छह बार तक स्टेटस अपडेट हो रहे थे। एक दिन तो हर घंटे पर अपडेट। वो खुशी की बात करता था, जिंदगी की बात करता था, जुमलों में बात करता था....फिर अचानक एक दिन सब खत्म हो गया....कोई अपडेट नहीं आया...कभी भी नहीं...कोई नहीं समझ पाया कि उसकी जिंदगी में कौन सा अवसाद उसे निगल रहा है।
तीन-उसकी शादी की तैयारियां जोरों पर थी। फेसबुक पर होने वाले पति की बातें, लहंगों के रंग, मेंहदी की डिजाइन सब शेयर हो रहा था। लेकिन एक रोज जो शेयर हुआ वो यह था कि उसके होने वाले पति की एक्सीडेंट में मौत हो गई। जाहिर है पूरी वाॅल संवेदनाओं से पट गई। काफी दिनों तक लोग फेसबुक वाॅल पर उसे सहेजते रहे, संभालते रहे। बहुत बाद में किन्हीं और सूत्रों से पता चला ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। यह सारा किस्सा लोगों का ज्यादा से ज्यादा अटैंशन पाने के लिए गढ़ा गया था। यह हैं बीमारी के लक्षण। किसी भी कीमत पर अटैंशन चाहिए ही चाहिए। अपनी जिंदगी के निजतम लम्हों को दर्ज करने की कीमत पर भी।
फेसबुक हिंदुस्तान के लिए नया ही है अभी। अभिव्यक्ति का नया माध्यम। मैं इसे चैराहा कहा करती थी। मुझे याद है कि मुझे यह पसंद भी नहीं था कि चैराहे पर जाकर अपनी बात को रखना। यह बात तो कभी समझ ही नहीं आई कि जिस जिंदगी में एक खालिस दोस्त को तरसते हों, उसमें हजारों दोस्त होने के क्या मायने होते हैं। बावजूद इसके फेसबुक जिंदगी में दाखिल हो ही चुका है।
यह अभिव्यक्ति का सुंदर संसार है अपने तमाम जोखिम के साथ। जोखिम, जिन पर अक्सर नजर नहीं जाती। यह सुनकर मुझे तो आश्चर्य ही हुआ था जब मेरी एक मनोचिकित्सक दोस्त स्नेहा बनर्जी ने बताया कि उसके पास आजकल फेसबुक सिंड्रोम के शिकार लोगों की संख्या बढ़ने लगी है। दूसरी तमाम मनोवैज्ञानिक बीमारियों की तरह फेसबुकिया सिंड्रोम को भी पकड़ पाना आसान नहीं। समझ ही नहीं आता कि एक स्वस्थ संवाद के इरादे से जिस दुनिया में प्रवेश किया था, जहां अपनी बात को रख पाने का सुख मिला था, जहां तमाम जाने अनजाने दोस्त मिले थे, जो हमारी बात को हर वक्त सुनने को तत्पर रहते थे कभी लाइक का बटन दबाकर कभी कमेंट करके, वही दुनिया कब बीमारी बनने लगी।
यह मन के उबाल का ठीहा है। जो मन में आया झट से उड़ेल दिया। अब मन के उबाल का ठीहा है तो जाहिर है मन की तरह चंचल भी होगा। हर तरह के भाव दुनिया के सामने झट से रख दिए जाते हैं। पूरी दुनिया, माने आपके आभासी दोस्तों की दुनिया। ये आभासी दोस्त मन के भावों को अलग-अलग तरह से ले रहे होते हैं। किसी को आप दुखी नजर आते हैं अपने स्टेटस में तो सांत्वना के, समझाने के लिए लोग बढ़ते चले आते हैं। कोई मसखरी करता है, टांग खींचता है। मन के नितांत अकेलेपन में यह झूठे-सच्चे लाइक्स, कमेंट्स फौरी तौर पर तो राहत देते से मालूम होते हैं लेकिन खतरा तब बढ़ता है, जब इनकी आदत होने लगती है। इनका नशा होने लगते हैं। लाइक्स कम होने पर विचित्र सी उपेक्षा का भाव हावी होने लगता है। चिड़चिड़ापन होने लगता है। लोग यहां तक स्टेटस पर लिखने लगते हैं कि इतने दिनों में मुझे किसी ने मिस भी नहीं किया। मेरे इतने सारे फेसबुक फ्रेड्स में से कितनों ने मेरा हाल पूछा जब बुखार हुआ, कितनों ने जब फ्रैक्चर हुआ। सुबह की चाय से लेकर रात के खाने तक का मेन्यू फेसबुक पर देखा जा सकता है। इतनी बात तो कभी मां-बाप, भाई बहन, चाचा-ताऊ या दोस्तों से भी नहीं की होगी। लेकिन यहां लम्हा-लम्हा जिंदगी खुल रही है, बिखर रही है।
मन खोलने के इस ठीहे में और भी चीजें दर्ज हो रही हैं, शादी की सालगिरह, पत्नी से प्रेम, गर्लफ्रेंड के लिए लिखा गया खत, इतिहास से उठायी गई कविता, किसी का कोई शेर...सुबह का नाश्ता, दोपहर का खाना, सिटी बस का छूट जाना, मेट्रो में टकराना किसी पुराने दोस्त से, देखना कोई अच्छी सी फिल्म, गरिया देना राजनीति को....कुछ भी। सब कहने की आजादी है...इधर स्टेटस अपडेट हुआ उधर लाइक्स गिरने शुरू। कभी-कभी तो हैरत होती है कि जिस स्टेटस पर झट से लाइक मिलने शुरू हो गये हैं, उसे तो पढ़ने में ही कम सम कम दो मिनट लगते, फिर सेकेंड्स में कोई लाइक कैसे कर सकता है।
मन खोलने के इस ठीहे में और भी चीजें दर्ज हो रही हैं, शादी की सालगिरह, पत्नी से प्रेम, गर्लफ्रेंड के लिए लिखा गया खत, इतिहास से उठायी गई कविता, किसी का कोई शेर...सुबह का नाश्ता, दोपहर का खाना, सिटी बस का छूट जाना, मेट्रो में टकराना किसी पुराने दोस्त से, देखना कोई अच्छी सी फिल्म, गरिया देना राजनीति को....कुछ भी। सब कहने की आजादी है...इधर स्टेटस अपडेट हुआ उधर लाइक्स गिरने शुरू। कभी-कभी तो हैरत होती है कि जिस स्टेटस पर झट से लाइक मिलने शुरू हो गये हैं, उसे तो पढ़ने में ही कम सम कम दो मिनट लगते, फिर सेकेंड्स में कोई लाइक कैसे कर सकता है।
अब तक अपने मन की कहने सुनने को जिस एक दोस्त की तलाश में हम जिंदगी के चक्कर काटते फिरते थे, उसे एक भीड़ रिप्लेस करने की छद्म भूमिका निभा रही है। जब तक इस सबका आनंद मुट्ठियों में है ठीक है लेकिन जैसे ही यह आनंद, कमजोरी बनने लगता है एक अवसाद, एक खालीपन घेरने लगता है। तब हजारों दोस्तों के सैकड़ों कमेंट्स और लाइक्स मददगार साबित नहीं होते....
हां, मुझे आदत है फेसबुक की- सत्रह बरस का अनुज सुबह-सुबह अपनी मां से झगड़ रहा है, हां, मुझे आदत है फेसबुक की। तो क्या करूं, आपके पास तो वक्त रहा नहीं कभी मेरे लिए। आपको और पापा को कभी फुरसत होती है मुझसे बात करने की। जब बात करते हो बस डांटने के लिए या मुझे मेरी कमियां बताने के लिए। जैसे मुझमें सिर्फ कमियां ही हैं, मैं सिर्फ गलतियां ही करता हूं, अच्छा तो कुछ करता ही नहीं। मेरे फेसबुक के दोस्त मेरी कितनी तारीफ करते हैं पता है। मुझे काॅन्फिडेंस आया है कि मैं भी अच्छा लिख सकता हूं, मेरे पास भी ऐसी बात है कहने को जिसे लोग पसंद कर सकते हैं। कितने सारे, कितने अच्छे दोस्त मिले हैं मुझे....
यह भागते-दौड़ते जीवन का एक सिरा है। दौड़ते-भागते हम अपनों से ही कितनी दूर निकल आये हैं। उस अकेलेपन ने, खुद को प्रशंसित करने की इच्छा ने, दूसरों द्वारा स्वीकृत होने और पीठ थपथपाये जाने की आकांक्षा के लिए इस आभासी संसार ने द्वार खोले। जो आपसे कभी मिला नहीं, वो हजारों किलोमीटर दूर बैठकर आपके एक-एक शब्द पर आपको शाबासी दे रहा है। पल भर में निराशा दूर कहीं छिटककर चली जाती है और व्यक्ति खुद को एक नशे में डूबता उतराता महसूस करता है। एक सैलाब, एक कोलाहल बिखरा हुआ है जो हाथ पकड़कर खींच ले जाता है दूर एक आभासी संसार में।
कुछ फासला तो होगा- यह मानवीय स्वभाव है जो लोगों का खिंचाव चाहता है, प्रशंसा चाहता है, खुद को महत्व देना चाहता है और दूसरों से भी महत्व पाना चाहता है। फेसबुक ऐसी ही मानव सुलभ आकांक्षाओं को पूरा करने की जगह है। पल भर में मूड बदलने की जगह। पल भर में अपना गुस्सा उगलने की जगह। जो फेसबुक जिंदगी में शामिल हुआ था, कब वो कब जिंदगी बनने लगता है पता ही नहीं चलता। फेसबुक के जरूरत से ज्यादा जिंदगी में दाखिल होने के तमाम जोखिम हैं जो अक्सर लोगों को पता भी नहीं चलते। लेकिन होता कुछ यूं है कि-
- आसपास के लोगों से कम बात होने लगती है।
- फोन पर बात करना भी कम होता जाता है
- सामाजिक गतिविधियों में भागीदारी कम होने लगती है
- घूमना, फिरना, आउटडोर गेम्स की जगह जिंदगी में कम होने लगती है
- खाना खासकर डिनर का टाइम गड़बड़ाने लगता है
- ज्यादा वक्त इंटरनेट पर बीतने लगता है
- नये-नये फेसबुक फ्रेंड्स में दिलचस्पी बढ़ने लगती है
- घर के लोगों से भी फेसबुक पर बात होने लगती है
- अगर किसी वजह से इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध न हो पाये, कनेक्शन न मिल पाये या नेटवर्क की दिक्कत हो तो बहुत बेचैनी होने लगती है।
- अगर इंटरनेट का इस्तेमाल बंद करने या कम करने को कहा जाये तो चिड़चिड़ापन आने लगता है।
पता नहीं चलता कि कब एक छोटी सी शुरुआत बीमारी बनने लगती है।
- आसपास के लोगों से कम बात होने लगती है।
- फोन पर बात करना भी कम होता जाता है
- सामाजिक गतिविधियों में भागीदारी कम होने लगती है
- घूमना, फिरना, आउटडोर गेम्स की जगह जिंदगी में कम होने लगती है
- खाना खासकर डिनर का टाइम गड़बड़ाने लगता है
- ज्यादा वक्त इंटरनेट पर बीतने लगता है
- नये-नये फेसबुक फ्रेंड्स में दिलचस्पी बढ़ने लगती है
- घर के लोगों से भी फेसबुक पर बात होने लगती है
- अगर किसी वजह से इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध न हो पाये, कनेक्शन न मिल पाये या नेटवर्क की दिक्कत हो तो बहुत बेचैनी होने लगती है।
- अगर इंटरनेट का इस्तेमाल बंद करने या कम करने को कहा जाये तो चिड़चिड़ापन आने लगता है।
पता नहीं चलता कि कब एक छोटी सी शुरुआत बीमारी बनने लगती है।
इन सोशल नेटवर्किंग साइट्स का इतना ज्यादा असर है कि लोगों की जिंदगी पर बन आ रही है। अफवाहें...जानलेवा होने लगी हैं। फेसबुक की मोहब्बत को विषाद बनते देर नहीं लगते। जिंदगी इस कदर बिखरी पड़ी है, यहां कि कोई कभी भी कहीं से भी इसे पलटकर देख सकता है। कोई भी आपकी जिंदगी के लम्हों को चुरा सकता है, जिंदगी में सेंध लगा सकता है। पता भी नहीं चलता कि जिन दोस्तों के लाइक्स और कमेंट्स से एनर्जी मिलती थी, आत्मविश्वास मिलता था वही लाइक्स और कमेंट्स बीमारी भी बन सकते हैं। लाइक्स और कमेंट्स में कमी आना उपेक्षित महसूस करवाता है।
अगर गौर से देखें तो हमारे समाज में अभिव्यक्तियों पर हजार पहरे हमेशा से रहे हैं। देश के लोकतंत्र की तरह जिंदगी के लोकतंत्र का भी हाल रहा। लेकिन लोग अपने-अपने लिए रास्ते तलाशते रहे। जीवन के हर पहलू की तरह इस मामले में भी जेंडर बायस था ही। पुरुषों ने चैपालों में, खेत खलिहानों, चाय की दुकानों में, ताश की बाजी के दौरान कहने सुनने का अड्डा खोज लिया था। जहां घर की झंझट, बाॅस से झगड़ा, बिजनेस में हुआ नुकसान, किसी का किसी चलने वाला चक्कर, सब कुछ होता था।
औरतों के पास होते थे बुलौव्वे, कीर्तन, मंदिर, पानी भरने के बहाने कहीं इकट्ठा होना। लेकिन यहां अभिव्यक्तिों को जब चाहे तब कह पाने वाली बात नहीं थी। कभी होता यूं कि अभी, बस अभी कोई बात कहनी है लेकिन महीने भर बाद कहने का मौका मिला...बात भी गई, उसके कहने का महत्व भी। फेसबुक ने शहरी और कस्बाई जीवन में तो जर्बदस्त सेंध लगाई है। अब तो गांवों में भी अपडेटेड मोबाइल नजर आने लगे हैं। लेकिन अभी खेती, बाड़ी, फसलों के बारे में स्टेटस नहीं दिखते, या कम ही दिखते हैं।
सवाल फेसबुक के होने का और उसके सही इस्तेमाल का है। हमारे भीतर की कौन सी जिजीविषा प्रशंसाओं के पीछे भागने को मजबूर करती है। हम लंबे समय से एक उपेक्षित समाज में जीते रहे हैं। नकारात्मकता यहां तरह-तरह से काबिज रही है। कई बार तो पूरी जिंदगी बीत जाती है, लोगों को अपनी एक खूबी के बारे में पता ही नहीं होता। हम किसी के बारे मंे तब बात करते हैं, जब वो कुछ गलती करता है। उसे नीचा दिखाने, उससे जुड़ी दूसरी तमाम कमजोरियों से जोड़ते हुए नकारा साबित करने में माहिर समाज किसी को मान देने में हमेशा संकोच करता रहा है। झूठे बाबाओं के पीछे भागने वाले लोग अपने बच्चे की सच्ची संभावनाओं को देखने, स्वीकार करने और उसका उत्साहवर्धन को जरूरी नहीं समझते। दूसरे के बच्चे से अपने बच्चे का कंपैरिजन करके उसे नीचा दिखाते हुए ही मानो उसे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया जा सकता हो। एक चोपड़ा जी का बच्चा है 90 प्रतिशत नंबर लाया है एक तुम हो....? जैसे बेहद आम जुमले, सोच जीवन जीने का ढंग बन चुकी है। इस नकारात्मकता की हद यह है कि अगर पास पड़ोस में कोई सचमुच ऐसा काम कर ही दे जिसे नकारना मुश्किल हो तो उसमें अपना योगदान खोजने और उसे साबित करने की ताबड़तोड़ काोशिशें शुरू हो जाती हैं।
ऐसे नकारात्मक और अलोकतांत्रिक समाज में फेसबुक एक रिलीफ की तरह आया है। आमतौर पर यहां प्रशंसाओं का राज चलता है। फेसबुक को डिजाइन करते समय भी संभवतः समाज के इस मनोविज्ञान का ध्यान रखा गया है। उसमें लाइक का आॅप्शन है, अनलाइक का नहीं। कमेंट्स में भी नब्बे प्रतिशत कमेंट्स प्रशंसाओं से भरपूर हैं। जिसे प्रशंसा नहीं करनी होती वो चुप रहे....आलोचना, तीखी आलोचना वाला टेंªड लगभग नहीं है। खासकर व्यक्तिगत स्टेटस पर। हां देश की राजनीति और समाज के सवालों पर खुलकर निंदा करने का चलन है जिसमें हमारे जागरूक और बौद्धिक होने की बात सामने आती है।
ऐसे नकारात्मक और अलोकतांत्रिक समाज में फेसबुक एक रिलीफ की तरह आया है। आमतौर पर यहां प्रशंसाओं का राज चलता है। फेसबुक को डिजाइन करते समय भी संभवतः समाज के इस मनोविज्ञान का ध्यान रखा गया है। उसमें लाइक का आॅप्शन है, अनलाइक का नहीं। कमेंट्स में भी नब्बे प्रतिशत कमेंट्स प्रशंसाओं से भरपूर हैं। जिसे प्रशंसा नहीं करनी होती वो चुप रहे....आलोचना, तीखी आलोचना वाला टेंªड लगभग नहीं है। खासकर व्यक्तिगत स्टेटस पर। हां देश की राजनीति और समाज के सवालों पर खुलकर निंदा करने का चलन है जिसमें हमारे जागरूक और बौद्धिक होने की बात सामने आती है।
ढेर सारा नवेतर साहित्य यहां जन्म ले रहा है। गृहिणियां जो वक्त किटी पार्टी में बिताती थीं अब फेसबुक पर कविताएं लिखने में बिता रही हैं। लोग अपनी संभावनाओं को तलाश रहे हैं।
बुरा नहीं है फेसबुक पर दर्ज होना लेकिन किस हद तक ? छद्म प्रशंसाओं के फेर में खुद को खुदा समझ बैठना अपना नुकसान करना ही है। अटैंशन सीकिंग बिहेवियर कहां ले जायेगा पता भी नहीं चलेगा। यह तो ध्यान में रखना ही होगा कि जो जगह हमारी जिंदगी के कुछ लम्हों को हमारी कुछ बातों को कहने सुनने के मंच के तौर पर थी, उसे कहीं जरूरत से ज्यादा महत्व तो नहीं मिलने लगा है। बाकी है तो यह चाकू की तरह ही, सही इस्तेमाल फल काटकर खिलाने के काम आयेगा और गलत इस्तेमाल या लापरवाही से किया गया इस्तेमाल लहू बहायेगा भी और रुलायेगा भी। तो लम्हा-लम्हा जिंदगी दर्ज होने वाली इन फेसबुकिया दीवारों और दीवानों यानी फ्रेंड्स से थोड़ी दूरी भी जरूरी है ताकि जिंदगी के पास आया जा सके।
(आहा जिन्प )
4 comments:
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 17 - 03 - 2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2284 में दिया जाएगा
धन्यवाद
सार्थक लेख है। आपका ईमेल या फिर मोबाइल नंबर मिल सकता है?
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरुवार 17 मार्च 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
बेहद जरूरी लेख , फेस्बूक मानसिक रोग बन गया है
Post a Comment