जाते वक़्त उसने क्या जिंदगी को पलटकर न देखा होगा? कितनी आवाजों की छुअन को महसूस किया होगा उसने, कितने लम्हों को टटोला होगा। भीतर के, बाहर के तमाम मौसम सहलाये होंगे, तमाम चेहरों को याद किया होगा।
एक गहरी आह भरी होगी। उम्मीद का आखिरी सिरा छोड़ने से पहले, जिंदगी से कट्टी बोलने से पहले कितने संघर्ष किये होंगे। वो उम्र जब कि आँखों में दुनिया को बदलने के सपने भरे थे और सीने में हर तूफ़ान से टकरा जाने का माद्दा, उसने यूँ ही तो नाउम्मीदी का दामन थाम न लिया होगा।
किसी के जाने बाद मर्सिया पढ़ना अश्लील लगता है मुझे कि जाने की वजहें बनते-बिगड़ते देखते रहना, जीने लायक हालात का लगातार ख़त्म होते जाने को चुपचाप देखते जाना और बाद में एक सुसाइड नोट पर बिसूरना, आंसू बहाना, हमारी जिम्मेदारियां इससे कहीं ज्यादा हैं। आखिरी सांस छूटने से पहले हाथ बढाने की जिम्मेदारी. यूँ सांस छोड़कर चले जाना समूची व्यवस्था पर,समाज पर तमाचा ही तो है.
बारूद के ढेर पर है ये समाज। कब, कौन, कहाँ, कितने संघर्षों में मुब्तिला है पता नहीं। कब, कौन, कहाँ आखिरी चाय पी रहा है, आखिरी फोन कॉल पे है, आखिरी मैसेज टाइप कर होगा, आखिरी बार हंस रहा है, हम कुछ नहीं जानते।
ये हत्यारा समाज है, 'हत्याओं' पे 'आत्म' की मुहर लगाकर ठहाके मारने वाला क्रूर समाज। ये कह देना आसान है कि आत्महत्या कायरों का काम है, कायरों का काम है चापलूसी करते हुए, मीडियोक्रर बने हुए, बिना संघर्ष किये सांस लेते जाना। मुझे यक़ीन है इस कोई 'जिन्दा' व्यक्ति ही आत्महत्या कर सकता है. ये समाज, ये व्यवस्था, जिन्दा लोगों के पीछे पड़ा है.... या तो वो जीते जी मर जाएँ या....सचमुच छोड़ ही दें दुनिया।
(उदास रात, बरसात)
2 comments:
सुन्दर अभिव्यक्ति
अजब सी उदासी पसरी है जीवंत समाज में।
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