Monday, November 30, 2015

संसार कोई 'तमाशा' लगता है...



प्रेम क्या है? अच्छा होना क्या है? व्यवस्थित होने के मायने क्या हैं आखिर?

प्रेम का मूल काम हमारे अंतस को रोशन करना है। हम जहां हैं, जिस तरह के हम हैं, वहां से उठाकर हम आगे ले जाना है।

जीवन में अनचाहे आ गये स्थगन को घिस-घिसकर मिटाना और उसे सक्रियता की ओर ढकेलना है। प्रेम नहीं था तो था एक सभ्य] सुसंस्कृत शांत जीवन. वक्त पर उगने वाली सुबहें, वक्त पर ढल जाने वाली रातें...
प्रेम नहीं था तय वक्त पर आ जाती थी गाढ़ी गहरी नींद, सुबह ठीक वक्त पर खुल भी जाती थी। मार्निग वॉक थे, अखबार थे। थोड़ा वक्त पापा का थोड़ा पत्नी और बच्चों का।वीकेंड्स की आउटिंग्स थी कभी दोस्तों के साथ मौज-मस्ती भी।

प्रेम नहीं था तो मन लगाकर काम होता था, बॉस खुश रहता था। प्रेजेंटेशन लल्लन टॉप होते थे और इनीक्रेमेंट मुस्कुराते हुए आते थे अकाउंट में।

सब कुछ कितना सधा हुआ था जीवन में...सब कुछ।

और एक दिन प्रेम हुआ...

लड़के ने वो सब किया जो प्रेम में एक प्रेमी को करना चाहिए। गिफ्ट दिये, डिनर किये, फिल्में देखीं, चुुंबनों का आदान-प्रदान भी। कभी-कभार कुछ आगे भी गये...पर लड़की कहती रही कि तुम नहीं हो...क्यों नहीं हो...कहां गुम हो गये तुम...?

लाख समझाया लड़के ने, 'अरे मैं हूं ना? देखो तुम्हारे सामने...तुम्हारा हाथ थामे बैठा तो हूं। तुम्हारी हर कॉल उठाता हूं, तुम्हारी हर आवाज पर दौड़कर आ जाता हूं...यही तो हूं मैं..' .वो कहती, 'नहीं...तुम नहीं हो...क्यों नहीं हो तुम...कहां गुम हो गये तुम...'

लड़का फिर समझाता अरे, 'मैं यही तो हूं...' वो कहती रही कि' तुम क्यों नहीं हो...' अब झल्लाहट होने लगी. ये क्या रट है कि 'तुम कहां हो, क्यों गुम हो गये.'

एक रोज लड़के ने उसे जाने को कह दिया...
वो रोती रही...लड़का चलता चला आया...लेकिन क्या वो  आ पाया?

ये कैसा प्रेम है जो सब तहस-नहस कर देता है, अच्छी खासी जिंदगी की वाट लगा देता है। भूख-प्यास, नींद काम सब रुक जाते हैं। मुस्कुराहटें अधूरी सी लगती हैं, सारा संसार कोई तमाशा लगता है...

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इम्तियाज, तुम कमाल हो, बस एक बात कहनी है तुमसे कि सबके जीवन में वो एक  भी नहीं होता जो उसे स्पेशल फील कराये...

सबको अपनी कहानी के अंत तक खुद ही पहुंचना होता है कदम-कदम चलकर...इसका कोई शॉर्टकट नहीं बावजूद इसके कि सारी कहानियां एक सी ही तो होती हैं...

सिनेमा पर किसी कविता को झरते हुए देखने का सुख है तमाशा, अपने भीतर गुड़प गुड़प करके गोते लगाना है तमाशा, कैमरे के अंदर से झरते किन्हीं म्यूजिकल नोट्स को आंखों से सुनने का अनुभव है तमाशा...

(तमाशा- प्रेम के उच्चतम से संसार के न्यूनतम तक...)


3 comments:

कविता रावत said...

बढ़िया रोचक फिल्म समीक्षा ..

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (02-12-2015) को "कैसे उतरें पार?" (चर्चा अंक-2178) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Ankur Jain said...

सुंदर समीक्षात्मक लेखन। फिल्म को अच्छा ऑब्जर्व किया है। मेरे ब्लॉग पर भी फिल्म की समीक्षा है आप आमंत्रित हैं।