किसी ने मुर्ग
किसी ने देगची पर चढ़ाये शब्द
जिसको जैसी आंच मिली
उसकी वैसी बनी रसोई
चैन से सोया था मजूर दाल खाकर
रात भर देखता रहा सपने मुर्ग के
मुर्ग खाकर बमुश्किल आई नींद में
सपने में दिखती रही बड़ी गाड़ी
शब्द की देग तो चढ़ी ही रही
कि कोई किस्सा पकने को न आता था
आंच कुछ कम ही रही हमेशा
जागती आखों में कोई शाल उढ़ाता रहा
लोग तालियां बजाते रहे
अधपकी देगों से आती कच्चे मसालों की खुशबू से दूर
कोई बांसुरी बजा रहा है.… सुना तुमने?
8 comments:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, 'छोटे' से 'बड़े' - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 25 अगस्त 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (25-08-2015) को "देखता हूँ ज़िंदगी को" (चर्चा अंक-2078) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बढ़िया
एक अच्छी प्रस्तुती
अधपकी देगों से आती कच्चे मसालों की खुशबू से दूर
कोई बांसुरी बजा रहा है.… सुना तुमने?
सुन्दर शब्द रचना.........
http://savanxxx.blogspot.in
जिसको जैसे आंच मिली
वेसी उसकी पकी रसोई .........अति सुंदर .....आज आहा ज़िन्दगी में आपकी रचना ....तुम्हारी मन्मर्ज़िया मेरी अमानत है पड़ी और आपको खोजती यहाँ आ गई .........बहुत सुंदर लेखनी को तलवार की तरह से चलने का वक़्त आ गया है ....
बहुत सुंदर रचना
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