सबसे सख्त वक़्त में सबसे नाज़ुक एहसासों को सहेजना जरूरी होता है। यह बात या तो कुदरत को पता है या स्त्री को। सो दोनों पूरी शिद्दत से सहेजे हुए हैं बसंत...
कहना...कहना...कहना...सिर्फ कहना। चारों तरफ एक शोर सा बरपा है। हर कोई कुछ कह रहा है। कुछ नहीं बहुत कुछ. सुन कौन रहा है पता नहीं, लेकिन कहे जाने का शोर बरपा है....किताबों की आमदों का शोर, सियासत का शोर और तो और सम्मान पुरुस्कार भी शोर मचा रहे हैं...इन सब शोर से बहुत दूर अगर कोई प्रेम के तराने गा रहा है तो वो है बसंत...यूं जब देश तमाम तरह की सियासी सरगर्मियों में उलझा हो ऐसे में प्रेम के तराने गाने वाले बसंत की बात कुछ बेमौसम बरसात सी लग सकती है लेकिन यकीन मानिए ऐसे ही वक्त में यह बात बेहद लाजि़म है...
लाजि़म है कि सख्त मौसम में रानाइयों की बात हो...शायद इसीलिए लहलहाते पीले फूलों वाले खेतों के आसमान पर सतरंगी दुपट्टे लहराते नज़र आ रहे हैं...ओस की बूंदें खुद तराने गा रही हैं। सबसे सख्त वक्त में सबसे नाज़ुक एहसासों को सहेजना जरूरी होता है। यह बात या तो कुदरत को पता है या स्त्री को। सो दोनों पूरी शिद्दत से सहेजे हुए हुए हैं बसंत...
बसंत जिसकी आहटों ने समूची धरती पर मुस्कुराहटें बिखेर दी हैं... जिसने सूरज की किरनों में मोहब्बत की रोशनी घोल दी है... जिसकी आमद के इस्तेकबाल में समूची कायनात सजदे में झुकी हुई है... जो घायल जिस्मों और रूहों पर अपने एहसास के फाहे रखता है...
वो पलकें बंद करके अपने चेहरे पर अपनी उंगलियां फिराती है...उसे अपने कंधे पर कोई स्पर्श महसूस होता है। मद्धम मुस्कुराहटों के बीच से उठकर वो अपना कंधा टटोलती है...पलाश...मुस्कुराता मिलता है। बसंत की शरारत, पलाश...।
सरसों के फूलों वाली पीली चूनर को सर से ओढ़ते हुए वो चुपके से बुदबुदाती है तुम बाज नहीं आओगे...वो हंसते हुए उसकी पीली चुनर की किनारी पकड़कर साथ चल पड़ता है। धरती की हर स्त्री प्रेयसी है उसकी...। धरती का हर कोना उनके प्रेम की गमक में डूबा हुआ है।
सचमुच, धरती की समस्त स्त्रियां बसंत की प्रेयसियां हैं। शदीद मोहब्बत से भरी, छलकती हुई, बहकती हुई, महकती हुई...और ये कम्बख्त बसंत हजार नखरे करता है, इतराता है। आता है पलाश में ढलकर, चांद रातों के साथ नदी में बहते हुए किसी के आंचल में टिक जाने को, किसी के जे़हन में टंक जाने को।
कितनी मासूम सी है यह अनभिज्ञता कि हम बसंत को कैलंेंडर के पन्नों में तलाशते फिरते हैं। उसके आने को तलाशते हैं गेहूं की कच्ची बालियों में, पीली सरसों में, आम की बौर में...
पलाश के पेड़ के नीचे बैठकर फूलों के खिलने के इंतजार में अब स्त्री नेे अपनी तलाश को रखना छोड़ दिया है। वो समझ चुकी है कि दरअसल, बाहर का यह बसंत तो उसके भीतर की ही चमक है, ख्वाहिश है, आरजू है, हौसला है, मोहब्बत है...कि जब वो झूम के मुस्कुराती है तो यह धरती फूलों से भर उठती है। स्त्री और प्रेम एक-दूसरे के पूरक हैं। बसंत का आना तो सिर्फ एक बहाना है।
प्रेम का जीवन में होना ही है असल में बसंत का होना...और बिना प्रेम के भी कोई जीवन हुआ भला। ये बासंती बयार, ये ये गुनगुनी धूप, ये मौसम की लरज...ये उल्लास हमारे भीतर के बसंत का उत्सव है। कुदरत हमारे भीतर के मौसमों के आगे सजदा करती हुए अपनी शाखें झुका देती है। कि अचानक आसमान पांव तले आ जाता है...और धरती पर फूल ही फूल खिल उठते हैं...मुस्कुराहटों के फूल...दुनिया इसे बसंत का आना कहती है...स्त्रियां इसे प्रेम का उत्सव कहती हैं।
बसंत जिसकी आहटों ने समूची धरती पर मुस्कुराहटें बिखेर दी हैं... जिसने सूरज की किरनों में मोहब्बत की रोशनी घोल दी है... जिसकी आमद के इस्तेकबाल में समूची कायनात सजदे में झुकी हुई है... जो घायल जिस्मों और रूहों पर अपने एहसास के फाहे रखता है...
वो पलकें बंद करके अपने चेहरे पर अपनी उंगलियां फिराती है...उसे अपने कंधे पर कोई स्पर्श महसूस होता है। मद्धम मुस्कुराहटों के बीच से उठकर वो अपना कंधा टटोलती है...पलाश...मुस्कुराता मिलता है। बसंत की शरारत, पलाश...।
सरसों के फूलों वाली पीली चूनर को सर से ओढ़ते हुए वो चुपके से बुदबुदाती है तुम बाज नहीं आओगे...वो हंसते हुए उसकी पीली चुनर की किनारी पकड़कर साथ चल पड़ता है। धरती की हर स्त्री प्रेयसी है उसकी...। धरती का हर कोना उनके प्रेम की गमक में डूबा हुआ है।
सचमुच, धरती की समस्त स्त्रियां बसंत की प्रेयसियां हैं। शदीद मोहब्बत से भरी, छलकती हुई, बहकती हुई, महकती हुई...और ये कम्बख्त बसंत हजार नखरे करता है, इतराता है। आता है पलाश में ढलकर, चांद रातों के साथ नदी में बहते हुए किसी के आंचल में टिक जाने को, किसी के जे़हन में टंक जाने को।
कितनी मासूम सी है यह अनभिज्ञता कि हम बसंत को कैलंेंडर के पन्नों में तलाशते फिरते हैं। उसके आने को तलाशते हैं गेहूं की कच्ची बालियों में, पीली सरसों में, आम की बौर में...
पलाश के पेड़ के नीचे बैठकर फूलों के खिलने के इंतजार में अब स्त्री नेे अपनी तलाश को रखना छोड़ दिया है। वो समझ चुकी है कि दरअसल, बाहर का यह बसंत तो उसके भीतर की ही चमक है, ख्वाहिश है, आरजू है, हौसला है, मोहब्बत है...कि जब वो झूम के मुस्कुराती है तो यह धरती फूलों से भर उठती है। स्त्री और प्रेम एक-दूसरे के पूरक हैं। बसंत का आना तो सिर्फ एक बहाना है।
प्रेम का जीवन में होना ही है असल में बसंत का होना...और बिना प्रेम के भी कोई जीवन हुआ भला। ये बासंती बयार, ये ये गुनगुनी धूप, ये मौसम की लरज...ये उल्लास हमारे भीतर के बसंत का उत्सव है। कुदरत हमारे भीतर के मौसमों के आगे सजदा करती हुए अपनी शाखें झुका देती है। कि अचानक आसमान पांव तले आ जाता है...और धरती पर फूल ही फूल खिल उठते हैं...मुस्कुराहटों के फूल...दुनिया इसे बसंत का आना कहती है...स्त्रियां इसे प्रेम का उत्सव कहती हैं।
कहां, थे तुम इत्ते दिन...अब वो नहीं कहतीं ऐसा कि वो जानती हैं कि बसंत कहीं नहीं जाता, हमेशा हमारे भीतर पैबस्त रहता है। बस कि ये उसके उत्सव का समय है...और इस उत्सव के सारे साजो-सामान इकट्ठा किए हैं कुदरत ने। रंग सारे प्यार के, सुर सारे मनूहार के, रूप दमकता हुआ, नदियों के पानी में आईना देखकर मुस्कुराती, खिलखिलाती अल्हड़ हसीनाएं किसी व्यक्ति के होने न होने से बेजार बस कि प्रेम में डूबी दिन-रात। कभी सूरज को बिंदियां बनाकर लगातीं, कभी बदली का घूंघट ओढ़ती, कभी खिलखिलाते हुए अपने दुपट्टे जोर से हवा में उड़ा देतीं तो आसमान सतरंगी हो उठता...किसी परचम से लहराते उन दुपट्टों पर लिखा होता
प्रेम...यह खुद को शिद्दत से महसूस करने का, अपने आपको छू लेने का वक्त है...अपने प्रेम को अंजुरियों में भर-भरकर उछालने का मौसम हैं....मोहब्बत जर्रे-जर्रे में सांस ले रही है...उन आफताब हुए जर्रों को गले लगाने का मौसम है...
यह असल में कुदरत का सजदा प्रेम के लिए...स्त्री के लिए...बसंत स्त्री के कंधे से टिककर इठला रहा है. जबसे स्त्रियों ने जान लिया है कि प्रेम न कहीं से आता है, न कहीं जाता है वो तो शाश्वत उनके भीतर सांस लेता है...लेता ही रहता है...तबसे दुःख, अवसाद, पीड़ा, विरह सबने अपनी पोटली बांध ली है...इंतज़ार शब्द अब ऊंघने लगा है कि जो कहीं जाता ही नहीं उसका इंतजार कैसा...
चौराहों पर फागुन की आमद के इंतजामात किये जा रहे हैं....बच्चों की खिलखिलाहटों से गलियां, चैबारे, काॅलोनियां गुलज़ार हैं...कि अभी-अभी एक बदली का टुकड़ा गुजरा है बालकनी से होकर... किसी हसीना ने आंखों में काजल लगाया है...उफफफ....कितनी खुशबू बिखरी है चारों ओर...मोहब्बत की खुशबू...ओ रे बसंत...तू अब कहीं नहीं जा सकता...कि तुझे हमने अपने भीतर सहेज जो रखा है...सुना तूने?
प्रेम...यह खुद को शिद्दत से महसूस करने का, अपने आपको छू लेने का वक्त है...अपने प्रेम को अंजुरियों में भर-भरकर उछालने का मौसम हैं....मोहब्बत जर्रे-जर्रे में सांस ले रही है...उन आफताब हुए जर्रों को गले लगाने का मौसम है...
यह असल में कुदरत का सजदा प्रेम के लिए...स्त्री के लिए...बसंत स्त्री के कंधे से टिककर इठला रहा है. जबसे स्त्रियों ने जान लिया है कि प्रेम न कहीं से आता है, न कहीं जाता है वो तो शाश्वत उनके भीतर सांस लेता है...लेता ही रहता है...तबसे दुःख, अवसाद, पीड़ा, विरह सबने अपनी पोटली बांध ली है...इंतज़ार शब्द अब ऊंघने लगा है कि जो कहीं जाता ही नहीं उसका इंतजार कैसा...
चौराहों पर फागुन की आमद के इंतजामात किये जा रहे हैं....बच्चों की खिलखिलाहटों से गलियां, चैबारे, काॅलोनियां गुलज़ार हैं...कि अभी-अभी एक बदली का टुकड़ा गुजरा है बालकनी से होकर... किसी हसीना ने आंखों में काजल लगाया है...उफफफ....कितनी खुशबू बिखरी है चारों ओर...मोहब्बत की खुशबू...ओ रे बसंत...तू अब कहीं नहीं जा सकता...कि तुझे हमने अपने भीतर सहेज जो रखा है...सुना तूने?
(डेली न्यूज़ खुशबू में प्रकाशित )
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