Friday, July 6, 2012

ज़िन्दगी अगर अल्फाज़ होती


हर यात्रा के बाद हम वापस मुडते हैं. वापस अपने ठीहे पर लौटने के लिए. हमारे लौटने की टिकट कनफर्म हो, न हो. तारीख तय हो, न हो लेकिन हमारे कदम वापस लौटने के लिए मुड़ते ही हैं. नहीं मुड़ पाने की स्थिति में हमारी गर्दन मुड़ती है बार-बार और किसी नास्टैल्जिया से जाकर जुड़ जाती हैं आंखें.

हमारी वापस आने की तारीख भी मुकर्रर थी और टिकट भी कनफर्म. हम लौट रहे थे...उस लौटने में हमसे एक शहर छूट रहा था. हम आगत की ओर दौड़ रहे थे विगत से दूर होने को आकुल. लेकिन आगत की ओर दौड़ते हुए न जाने कब, कैसे विगत के तमाम टुकड़े स्म्रतियों में चिपके रह गये. बच्चे के जन्म के सिवा कोई भी आगत उतना निश्छल नहीं होता न ही उतना मजबूत कि विगत को अपने कंधों पर संभाल सके और जिंदगी का बाकी का सफर आसान कर सके.
दिन ने अपनी चौड़ी हथेली को पसार दिया था. आगत के आने वाले पलों की आहटें और बीते हुए पलों की स्म्रतियों का खेल जारी था. दिन की चौड़ी हथेली पर इन लम्हों की धमाचौकड़ी देखते हुए न जाने कैसे उसकी हथेली खुल गई आखों के सामने. उसकी हथेलियों के रेखाओं के जाल में मेरा नाम लिखा तो था लेकिन जहां-जहां मेरे नाम के अक्षर थे, वहां-वहां लकीरें टूट रही थीं. जैसे गाते-गाते सांस अटक गई हो. उसकी खुली हथेली को अपनी हथेलियों से बंद करते हुए इतनी तो आस रहती ही थी कि मेरे नाम के अक्षर तो हैं वहां. मैं उससे कहती कि बंद रखना हथेली कि मेरे नाम के अक्षर कहीं गिर न जायें धरती पर.

वो कहता कि गिर गये तो क्या होगा...तुम तो रहोगी न मेरे दिल में

मैं खामोश रहती, मेरे नाम के अक्षर अगर इस धरती पर गिर पड़े तो...? मैं नहीं चाहती मेरी तरह कोई और भी विरह की वेदना में शहर-दर-शहर भटके. सांस-सांस खुद को जज्ब करे और एक लंबे इंतजार के कांधे पर जिंदगी का सिरा टिका दे.
ज़िन्दगी अगर अल्फाज़ होती तो मैं उसे पलकों पर उठाती, अगर वो राग होती तो उसे दिल में रख लेती और दिल से गाती जिंदगी का राग लेकिन जिंदगी तो वो खुद था और उसके हाथों की लकीरों में मेरे नाम के टूटे अक्षर ही थे बस.

स्म्रतियों में उसकी हथेली की खुशबू कुछ यूं जज्ब हुई कि दिन की खुली हथेली का ख्याल कहीं गिर गया शायद. तभी आसमान ने करवट बदली और उंटों ने अपनी गर्दन झटकी. आसमान में नदियां उतर आईं और सूरज उन नदियों में उतराने लगा. वो अठखेलियां कर रहा था. तेज गर्मी से दुनिया को झुलसाने वाला सूरज अब आकाश गंगा में डुबकियां ले रहा था. कभी उसकी डुबकी लंबी हो जाती है और आकाश का रंग लाल हो जाता. मानो लाल रंग की कोई नदी आसमान में उतर आई हो बस उसकी बौछारें हम तक नहीं आ रहीं. ये लाल रंग की नदी कभी नीली हो जाती, कभी भूरी और सूरज इन नदियों में लोट लगाता फिरता. दिन की हथेली काफी चौड़ी लगी उस रोज. कुछ दिन इतने लंबे होते हैं कि बीतते ही नहीं...
मैंने निर्मल वर्मा की कहानी पर ध्यान लगाना चाहा...‘नींद के लिए छटांक भर थकान, छटांक भर लापरवाही जरूरी है. अगर इन दोनों के बावजूद नींद नदारद हो तो छटांक भर बियर....’ सोचती हूं सदियों की थकान, कुंटलों लापरवाही और लीटरों बियर भी कभी-कभी नींद का इंतजाम नहीं कर पाती. स्मतियां रात भर नींद को धुनती रहती हैं और सुबह तक तैयार कर देती हैं नये सिरे से इंतजार की रेशमी चादर.

छूटते शहर के नाम में कोई दिलचस्पी नहीं रही थी न आने वाले  शहर के नाम में. न पीछे कोई छूटा था, न आगे कोई इंतजार में था. ऐसे सफर अपने आपमें गोल-गोल घूमने जैसे होते हैं बस. किसी अनजान स्टेशन पर उतरते हुए वहीं रह जाने का जी चाहता है. दिन की हथेली बंद हो चुकी थी. आसमान पर चांद की हाजिरी दर्ज हो चुकी थी. उस अनजान से छोटे से स्टेशन पर किसी ने कहा ‘अलवर तो निकल गया...’ तो अचानक दिशाबोध हुआ. गाड़ी चली और न चाहते हुए चलती गाड़ी की सीढि़यों पर अपना पैर रख दिया. जिंदगी बस दो कदम के फासले पर थी फिर भी...

10 comments:

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

उम्दा .. खूब

प्रवीण पाण्डेय said...

जिन्दगी अल्फाज भी जाये,
पर जिससे कहें,
बस उसी को समझ न आये..

Swapnrang said...

...‘नींद के लिए छटांक भर थकान, छटांक भर लापरवाही जरूरी है. अगर इन दोनों के बावजूद नींद नदारद हो तो छटांक भर बियर....’

दीपिका रानी said...

दिल को छूता सा..

Nirantar said...

zindgee alfaazon se kam nahee ,jaisaa chaahe likh lo

Manish said...

ज़िन्दगी अगर अल्फाज़ होती तो कुछ ऐसी ही होती.. सुर एक बार चढ़ता और फिर हौले से उतर आता.. और एक मधुर गीत बन जाता..

Pratibha Katiyar said...

शुक्रिया मनीष आपका भी और आपके दोस्त का भी!

Gaurav Singh said...

कैसे कहूँ की क्या हो रहा है..पढ़ा भी महेसूस भी किया...लगता है आपको जी लिया हो कुछ पल के लिए :) बोहोत गहेरा लिखा

अखिलेश्वर पाण्डेय said...

हमेशा की ही तरह ख़ामोशी के साथ दिल में उतर जाने वाली आपकी बातें, लिखने का रोचक अंदाज़. शुक्रिया.

आनंद said...

मैं नहीं चाहती मेरी तरह कोई और भी विरह की वेदना में शहर-दर-शहर भटके. सांस-सांस खुद को जज्ब करे और एक लंबे इंतजार के कांधे पर जिंदगी का सिरा टिका दे. ...............

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ये तो हो चुका है मौसी .... आपकी जानकारी में या आपकी जानकारी में आये बगैर ....कम से कम एक इंसान ऐसा है जो आपसे मुखातिब है !