न जाने कितने दिन हुए कमरे में बुहारी हुए. गर्द की पर्तों के बीच बैठने का भी अपना ही मजा है. उसकी भी एक खुशबू है जो अपनी सी लगती है. किताबों का बेतरतीब सा ढेर चारों ओर. अखबार के बिखरे हुए से पन्ने. कॉफी के खूब सारे मग. कोई यहां, कोई वहां. एक सितार जिसे अपने छुए जाने का न जाने कब से है इंतजार. कुछ फूल सूखे से, बारिश की बूंदें जो सूखने के बाद अपने निशान देकर वापस लौट गई हैं. कुछ मिस कॉल्स हैं, जिन्हें मिस करने का सुकून है. कुछ मैसेज, जिन्हें पढऩे का कोई चाव नहीं.
अधूरी देखी हुई फिल्मों की लंबी लिस्ट. आधी रची हुई कहानियों का जंगल, कविता...ओह वो तो मुझसे सधती ही नहीं. किताबें देखकर खिल उठता था चेहरा कभी. इन दिनों किताबों ने रास्ता देना बंद कर दिया है. एक साथ कई किताबों पर से गुजरते हुए लगता है कहीं नहीं पहुंच रही. लौट आती हूं अपने सम पर. ढूंढती हूं अपना ही कोई सिरा कि वो सधे तो सधे जीवन भी.
छोड़ो, ये सब नहीं होता मुझसे. उतरती शाम की उदासी ही पीते हैं आज कॉफी के साथ. दोनों का स्वाद काफी मिलता जुलता सा है...
उम्र की तमाम
उदासियों को
फेंटकर,
उबालकर देर तक
आंख का पानी
तैयार की थी
बिना शक्कर और दूध वाली
वो जहर सी कड़वी कॉफी
कि शायद इसे पीकर
कम ही लगे
कड़वाहट जमाने की...
2 comments:
ज़माने की कड़वाहट तो सौ सर्पों के दंश से भी तीखी होती है।
कुछ अजीब और अलग सा महसूस हुआ हमको...एक सुकूँ है इस उदासी में और कड़वहट में मिठास...नहीं पीती हो तो कभी ब्लैक कॉफ़ी ट्राई करिए ...सच्ची! अच्छी लगेगी
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