Friday, January 28, 2011

खेल ही तो है...

हर मौसम से
पतझर की मानिंद
झरता अवसाद
मद्धम मद्धम...

सन्नाटा
चबाते-चबाते
बेस्वाद हो चुकी जिंदगी.

दूर-दूर तक पसरे
एकांत के सेहरा में
किसी बंजारन की तरह
भटकते-भटकते,

अपनी ही सांसों की आवाज
से घबराकर
किसी तरह पीछा छुड़ाना
फुरसत से.

व्यस्तताओं से,
मुस्कुराहटों से,
दुखों को रौंदने की कोशिश
खेल ही तो है...


5 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

दुख या तो सह लें, या आँसू बह लें। कोई रौंद नहीं पाया है दुख को।

Patali-The-Village said...

सुन्दर यथार्थमय कविता| चित्र भी बहुत सुन्दर है|

Unknown said...

मन ठहर कर रह गया है इस खेल में. सचमुच खेल ही तो है.

के सी said...

खूबसूरत कविता है. बहुत अच्छा.

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

यह कविता ठहराव की ओर ले जाती है। दरअसल जब मैं कविता की इन पंक्तियों पर नजर ठहराता हूं, जिसमें आप कह रही हैं किसी तरह पीछा छुड़ाना फुरसत से...तो मैं खुद ठहरा हुआ महसूस करता हूं। यह कविता मुझे एक फिल्म से भी करीब ले जाती है-कार्तिक कॉलिंग कार्तिक। एकांत, बंजारा और न जाने को खुद से बात करने के कितने शब्द, सबकुछ मुझे इस कविता में मिल रही है। बस एक जगह मैं थोड़ा निराश होता हूं, जब पढ़ना पड़ता है-बेस्वाद हो चुकी जिंदगी।