Thursday, December 30, 2010

कितना अच्छा होता है- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

एक-दूसरे को बिना जाने
पास-पास होना
और उस संगीत को सुनना
जो धमनियों में बजता है,
उन रंगों में नहा जाना
जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं ।
शब्दों की खोज शुरु होते ही
हम एक-दूसरे को खोने लगते हैं
और उनके पकड़ में आते ही
एक-दूसरे के हाथों से
मछली की तरह फिसल जाते हैं ।
हर जानकारी में बहुत गहरे
ऊब का एक पतला धागा छिपा होता है,
कुछ भी ठीक से जान लेना
खुद से दुश्मनी ठान लेना है ।
कितना अच्छा होता है
एक-दूसरे के पास बैठ खुद को टटोलना,
और अपने ही भीतर
दूसरे को पा लेना ।


3 comments:

Swapnrang said...

ub ka ek patla dhaga.
achha hai yeh dhaga dheere dheere rengta hai soch ke aakhiri kone tak.

नीरज गोस्वामी said...

लाजवाब करती रचना...अद्भुत...सर्वेश्वर दयाल जी की क्या बात है...कमाल...

नीरज

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत ही सुन्दर रचना।