Sunday, December 5, 2010

बदला-बदला सा लखनऊ

आज यूं ही शहर के मुआयने का मन हो आया. गाड़ी निकाली और निकल पड़े लखनऊ भ्रमण पर. अपना ही शहर ऐसे देख रहे थे मानो पहली बार देख रहे हों. मायावती ने शहर की शक्लो-सूरत कुछ इस कदर बदली है कि देखना बनता है. कल बाबा अम्बेडकर का परिनिर्वाण दिवस भी है. (अब तो महापुरुषों का पेटेंट कुछ पार्टियों ने ऐसे करा लिया है कि उनके बारे में बात करना किसी पार्टी के बारे में बात करना सा लगता है.) एक-एक पत्थर, पार्क में लगे एक-एक पौधे की फुनगी को धो-पोंछकर चमकाया जा रहा था. ऐसा लग रहा था कि पहले से सजी संवरी दुल्हन का बार-बार मेकअप ठीक किया जा रहा हो. कुंटलों फूल रखे थे जिनसे शहर को सजाया जाना था. न जाने कितनी लाइट्स. यकीनन आज रात का न$जारा देखने लायक होगा. 
एकाएक ख्याल आया कि ये वही जगह है जो कभी माफियाओं के नाम से जानी जाती है. मैं जियामऊ की बात कर रही हूं. मेरा निवास स्थल. (अम्बेडकर पार्क से जरा सी दूरी पर) रात तो दूर, दिन में भी रिक्शेवाले यहां आने के नाम से कांप उठते थे. न जाने किसका दिमाग सटक जाये, और रिक्शेवाले के मेहनताना मांगने पर उसे टपका दिया जाए. हमारा वहां आकर बसना एक डेयरिंग स्टेप था, जिसकी हमने बड़ी कीमतें भी चुकाईं. खैर, आज यह पॉश इलाका है. सुपर पॉश. पहले से ठीक सड़कों में रोज क्या ठीक होता रहता है, पता ही नहीं चलता. हमेशा सजी-संवरी बिल्डिंगों का कौन सा श्रृंगार होता है हम कभी समझ नहीं पाते. पर इतना पता है कि आप इन सड़कों से निकलिए तो ऐसा मालूम होगा कि कालीन पर चल रहे हों.
समय सचमुच बहुत बदल चुका है. इस बदले हुए समय में लखनऊ का चेहरा भी बदला है. कितने घोटाले, कितना करप्शन, किसका कितना हिस्सा ये किस्सा तो अपनी जगह ठहरा. फिलहाल, लखनऊ चमक रहा है. संगीत नाटक एकेडमी के रूप में एक ऐसा सुंदर ऑडिटोरियम बना कि पुराने रवींद्रालय की यादें धुंधली पडऩे लगीं. लोगों ने भी इन सारे बदलावों का साथ दिया. वे बदलावों को दिल से लगाने के लिए दौड़ पड़े. नदी में डूबते सूरज को देखने, बाइक्स की रेस लगाने, परिवार के साथ वक्त बिताने और कभी-कभी डूबते सूरज की गवाही में अपने इश्क का इ$जहार करने वालों की भीड़ यहां लगातार बढ़ती ही जा रही है. लगता है कि लोग सचमुच जीना चाहते हैं.
कोई मायावती को कितनी भी गालियां दे, कोसे, लानतें भेजे लेकिन जो एक बार इस मायानगरी में प्रवेश करता है शहर की खूबसूरती उसे हिप्नोटाइज करती है. सीमेंट, सरिया और पत्थरों से तैयार बड़ी-बड़ी इमारतों के बीच भी यह शहर खुलकर सांस लेता न$जर आता है. ढेर सारे ओवरब्रिज ट्रैफिक जाम से निपटने को तैयार हैं. लोग दूर-दूर से आते हैं मायानगरी के दर्शन के लिए. अब लोग लखनऊ को सिर्फ भूलभुलैया, सतखंडा पैलेस, रूमी गेट के लिए ही नहीं जानते. पुराने लखनऊ की ऐतिहासिक इमारतों के साथ नये लखनऊ में उगा यह कंक्रीट का जंगल लोगों को लुभा रहा है. ऊंची इमारतें $जरूर हैं लेकिन किसी के हिस्सा का सूरज फिलहाल नहीं खा रही हैं. (नये लखनऊ में) हजरतगंज का भी रंग-रोगन हो रहा है. उसकी रंगत को लौटाए जाने की तैयारी चल रही है. यानी शहर बदल रहा है. साथ ही हम भी बदल रहे हैं. सरकारों का क्या है वे तो हमेशा से बदलती आयी हैं. सोचती हूं कि अगर हर पॉलीटीशियन अपने-अपने क्षेत्र को लेकर प$जेसिव होने लगे तो कितना अच्छा हो ना? इस बहाने ही सही सबके हिस्से में कुछ खुशहाली तो आयेगी. देश का हर कोना चमक तो उठेगा.

4 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

लखनऊ अब पहचाना नहीं जाता है।

नीरज गोस्वामी said...

काश आप अपने इस दिलचस्प लेख के साथ कुछ फोटो भी दिखातीं तो सोने में सुहागा हो जाता...

नीरज

सुशीला पुरी said...

sundar post !
LUCKNOW ke baare me aur bhi likhiye !

अविनाश वाचस्पति said...

आज दिनांक 18 दिसम्‍बर 2010 के दैनिक जनसत्‍ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्‍तंभ में आपकी यह पोस्‍ट ये लखनऊ की सरजमीं  शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्‍कैनबिम्‍ब देखने के लिए जनसत्‍ता  पर क्लिक कर सकते हैं। कोई कठिनाई आने पर मुझसे संपर्क कर लें। 
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