- प्रवीण शेखर
तो क्या जिंदगी फिर उसी धुरी पर घूमेगी, गोल-गोल, जहां पिछली शाम तक थी? आधी रात को कैलेंडर धीरे से फडफ़ड़ाया और इतिहास के माथे पर एक साल और लटक गया है. अब न वो घर, न वो शाम का तारा, अब न वो रात, न वो सपना. पिछली रात की तेज और सर्द हवा में आधी रात के बाद कैलेंडर का कागज बोल रहा था-गये दिनों का सुराग लेकर किधर से आया किधर गया वो, अजीब मानूस अजनबी था, मुझे तो हैरां कर गया वो.आगे साल भर का स$फर. तीन सौ पैंसठ दिनों और इतनी रातों का सफर. इसी सफर की किसी गली में मिलेगा वो बेनवां रात का मुसाफिर जिसे गये रात तेरी गली तक तो हमने देखा था, फिर न जाने किधर गया वो. वही मुसाफिर हमें पहुंचायेगा नये साल की आखिरी शाम तक, रात तक।
नये साल के पहले अंधेरे में वो भी कुरकुरेव गांव के पहले अध्यापक, पहले कम्युनिस्ट दूइशिन जैसा लगा था और देर रात सवाल साथ-साथ चलते रहे कि संघर्षों, तरह-तरह के भाग्यों, इंसानी आवेगों से भरी जिंदगी क्या रंगों में ढाली जा सकती है? कैसे किया जाये कि भावनाओं का यह जाम छलके नहीं और आप तक पहुंच जाये? कैसे किया जाये कि मेरी सोच, मेरे दिल का दर्द आपके दिल का दर्द बन जाये? लेकिन बहुत सी बातें अमली शक्ल ले पाती हों यह जरूरी तो नहीं, फिर भी इतना तो तय है कि रास्ता इसी के बीच से बनेगा. नए साल की सुबह सपने पालने, बुनने और रास्तों को जन्म देने के लिए सबसे सही वक्त है, शायद. इसी समय धूप सबसे करीने के सात रंगों में फैलती है आंखों पर. रात का सपना होठों पर आता है और सबसे बड़ी बात यह कि इस वक्त रोशनी नहीं बुझती या नहीं हो तो भी. बीती शाम अपना हैंगओवर धुंध, कुहासे, बदली की शक्ल में आये तो भी।
परवीन शाकिर एक मंत्र देती हैं रास्ता काटने के लिए-निकले हैं तो रास्ते में कहीं शाम भी होगी, सूरज भी मगर आयेगा इस राहगु$जर से.अच्छा किसी एक फूल का नाम लो. उसका रंग कैसा है? खुशबू कैसी है? उसकी शक्ल कैसी है? यह शक्ल किससे मिलती है? किसी बच्चे का चेहरा ही याद कर लें, उसके बालों की छुअन को महसूस लें. या फिर उस ख़त को याद कर लें जिसे आपने पहली बार किसी को लिखा था या फिर किसी ने आपको आखिरी बार लिखा था. उन अक्षरों को पढ़ लें, उसके मानी एक बार और समझ लें जैसा वह लिखा गया था. आज नहीं तो ये सारे सवाल कल के लिए सहेज कर रख लें, फिर पूछें. कल नहीं तो परसों या फिर उसके बाद कभी. या फिर बार-बार नहीं तो साल भर. आपको नहीं लगता कि भविष्य में भरोसा, आस्था और जिंदगी की गहन अंदरूनी खूबसूरती की कहानी, उसकी चमक ऐसे ही हल्के -फुल्के और बेतुके भी सवालों उसके जवाबों में छिपी है।
यह समय अजीब है. बदन में चुपके से धंस जाने वाली किरचें हैं. धूल है, शूल है, खुशबू है, रंग है, सुर है वो आंखें हैं, जहां खुदा पनाह लेता है. अब घात या बेवफाई पर टूटकर बिखर जाने, नशे में गर्क होकर मर जाने का रिवाज नहीं है. अब कमजोरियों और दारुण स्थितियों से लडऩे और जीतने का समय है. जीवन की सक्रियता में डूबने का समय है जो किसी नशे में नहीं मिलता. यह छोटी-छोटी बातों में लिपटे बड़े सुखों से लिपटने का समय है.पीटर स्क्रीवन की कठपुतलियों में सुपरस्टार था सामी. 25 सेंटीमीटर के चेहरे पर अचरज के भाव थे. तीखी नाक, माथे पर लाल रंग के बालों के बीच झूलती लट थी जिसे बार-बार संवारने की जरूरत महसूस होती. सामी लोगों का लोकप्रिय पात्र था. उसे लेकर पीटर ने साहस और रोमांच के कई नाटक बनाये. हर कहानी में वह विकट परिस्थितियों में फंसता लेकिन असंभव ढंग से बच निकलता. समुद्री जहाज टूटने पर वह ऑक्टोपस से लड़ा और मत्स्य कन्या ने उसकी जान बचाई. वह हमेशा भचकती चाल से चलता, वजह थी उसके घुटनों के जोड़ सरके हुए थे और उन्हें ठीक करना बड़े-बड़े सर्जन के बस की बात नहीं थी. हर शो के बाद सामी दर्शकों के बीच बैठ बच्चों से अभिवादन करता. थियेटर से बाहर निकलते बच्चे उदास हो जाते कि अब सामी से कब मुलाकात होगी?
उस दिन पीटर हैमिल्टन में शो के बाद सामी को चुन्नटदार थैले में रख रहे थे कि एक बच्ची झिझकती हुई आयी. उसे ठंड लग जायेगी, यह थैला तो झीना है. उसने सामी की ओर संकेत करते हुए कहा. बच्ची ने पीटर की हथेलियों पर कुछ रखते हुए फिर कहा, यह सामी के लिए है, मैंने इसे खुद बुना है, अब इसे सर्दी नहीं लगेगी. वह बड़ी खूबसूरती से तह किया हुआ स्वेटर था. स्वेटर पर नीले रंग की कढ़ाई कर एस अंकित था यानी सामी के नाम का पहला अक्षर. तकरीबन बीस साल बाद न्यू ईयर के मेले में चल रहे शो के बाद पीटर सामी को थैले में रख रहे थे कि आवाज आई, इतनी मुद्दत बाद भी इस पर उम्र का असर नहीं हुआ. कठपुतलियां कभी बूढ़ी नहीं होतीं? पीटर ने मुड़कर देखा तो 30 के ऊपर की एक औरत 10-11 साल की बच्ची का हाथ थामे खड़ी थी.वह कुछ देर सामी के सिर पर थपकियां देती रही. फिर उसकी उंगलियां सामी के चेहरे पर गले से फिसलती हुई पुराने बदरंग स्वेटर पर रुक गई. आंसू छलछला आये. वह पीटर से बोली, आप मुझे पहचानते नहीं हैं. आपके मुझे एक ऐसी अनमोल निधि दी है जिसे मैंने हमेशा संजोकर रखा है. मेरी जिंदगी ऊबड़-खाबड़ रही. घोर दु:ख के दिनों में भी मैं सामी को भूली नहीं और कोई न कोई कहानी बुनकर अपनी बेटी को सुनाती रही. फिर वह बेटी से बोली, यह है सामी. पीटर ने उस बच्ची को गोद में उठा लिया और एक और नन्ही बच्ची की कहानी सुनाई, जिसने अरसा पहले एक कठपुतली के लिए स्वेटर बुनकर काठ से बने तन-मन को बहुत राहत पहुंचाई थी. नए साल में किसी सामी से दोस्ती भी तो हो सकती है. ऊबड़-खाबड़ जिंदगी में कहानी बुनने के लिए और किसी को राहत पहुंचाने के लिए।
अरे हां, आपको नया साल मुबारक!
(लेखक इलाहाबाद के सक्रिय रंगकर्मी हैं. उनका अपना थियेटर ग्रुप बैकस्टेज है)
10 comments:
nice aritcle...
bahut hi sundar baat!
सामी की कहानी तो लाजवाब रही. नये साल के इस्तकबाल का प्रवीण जी का तरीका कमाल का है.
kisi ek fool ka naam lo iska kya matlab hua...yahi soch raha hoon
wah sir waa......h
मुबारक हो नया साल,
सबको मुबारक हो नया साल!
बहुत सुंदर लेख है.मेरे पास सटीक शब्द नही है. कभी कभी कोई गीत सुनकर ऐसा लागता है काश मै गा सकती. ऐसी हि ईर्ष्या हुई हुई इसे पडने के बाद.
बहुत सुंदर लेख है
बहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए.... खूबसूरत रचना......
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