Thursday, December 12, 2019

छोटा उ से उम्मीद


इसमें आश्चर्य की भला क्या बात है कि सारा देश जश्न मना रहा है कि एनकाउंटर न्याय हुआ. क्यों होना चाहिए आश्चर्य कि बाबाओं को बचाने के लिए हिंसक होने तक टूट पड़ने वाली भीड़ उसी पुलिस पर फूल बरसाती है जिसके पास जाकर रिपोर्ट लिखवाने जाने से डरती हैं स्त्रियाँ. पुलिस कस्टडी में हुए रेप की संख्या के बारे में नहीं सोचती जनता तो कोई आश्चर्य नहीं होता. कोई आश्चर्य नहीं होता कि इस जनता में ज्यादातर पढ़े-लिखे लोग शामिल हैं. सांसद से लेकर पत्रकार, साहित्यकार, फ़िल्मकार सब. क्यों होना चाहिए आश्चर्य आखिर? हम अतार्किक लोग हैं. हम भीड़ हैं हमें भीड़ बनना सिखाया गया है, तालियाँ बजाना सिखाया गया है. बात मानना और झुण्ड बनकर किसी के पीछे चलना सिखाया गया है. और यही असल सुख है यह भी हमारे भीतर बो दिया गया है. किस बात पर कितना हंसना है, किस बात को किस हद तक सहन करते जाना है सदियों तक और किसे पीट-पीटकर मार डालना है यह सब हमारे लिए कोई और तय करता है. हमने कब खुद के लिए खुद की मर्जी से सोचना सीखा. हम तो बताई गयी मार्जियों पर अपनी मर्जी की मुहर लगाकर ही जीते जा रहे समाज ही रहे हैं हमेशा से.


क्यों आश्चर्य हो जब आपके तार्किक होने और यह पूछने को कि 'क्या यह कोई न्यायिक प्रक्रिया है' गुनाह मान लिया जाय. शिक्षकों के आन्दोलन को, दरकिनार किया जाय और छात्रों के फीसवृद्धि की मांग को देशद्रोह ही कह दिया जाय.

सवाल पूछना आपका काम नहीं था. ताली बजाना था, जयकारा लगाना था. सवाल पूछोगे तो मारे जाओगे इसमें हैरत क्यों भला. क्यों हैरत हो कि हम यह भी न सोचें कि यही पुलिस अपनी ही महिला अधिकारी की रक्षा में नाकाम है. पुलिस क्या कोई व्यक्ति है? भीड़ क्या कोई व्यक्ति है? नहीं दोनों ही सत्ता के खिलौने हैं जिससे सत्ता अपनी-अपनी तरह से खेलती रहती है.

पुलिस महकमा अपने भीतर भी तमाम लड़ाईयां लड़ रहा है. एक सिपाही छुट्टी न मिलने पर 5 लोगों को मारकर खुद को भी मार लेता है यह बात क्यों चर्चा का विषय नहीं बनती. महीनो उन्हें घर जाने को नहीं मिलता, हफ़्तों छुट्टी नहीं मिलती, 16-16 घंटे ड्यूटी करनी पड़ती है. यह पूरे महकमे की कुंठा भरी बाते हैं. ऐसी कुंठा भरी खबरें पुलिसिया अपराधों की राह प्रशस्त करती हैं. पुलिस अपने नकारेपन को इस तरह ढंकती है और हिट हो जाती है. जनता नाच रही है कि न्याय हुआ है, पर क्या न्याय हुआ है? बिलकुल आश्चर्य नहीं होता कि यही जनता सवाल नहीं करती कि बलात्कार, हत्या व अन्य अपराधों में शामिल लोग संसद में क्यों हैं? ओहो जनता ने ही तो उन्हें चुनकर भेजा है आखिर. क्यों भेजा होगा जनता ने उन लोगों को संसद में यह सोचना मना है. हम तमाशबीन समाज हैं क्योंकि ऐसे ही हम बनाये गए हैं. इसमें आश्चर्य कैसा भला. और जो इस भेडचाल में शामिल नहीं हुए हैं, जिन्होंने सवाल करने बंद नहीं किये हैं, जिन्होंने बेहतर समाज का सपना देखना छोड़ा नहीं, जो हकों के लिए अब भी लड़ना जानते हैं उनका अगर मजाक उड़ाया जाए , उन पर मुकदमे दर्ज हों, उन्हें नजरबंद किया जाय, देशद्रोही कहा जाय तो भला क्यों आश्चर्य होना चाहिए. एक जागे हुए दिमाग से ज्यादा खतरनाक भला और क्या होता है, तो उसे घेरने में तो सत्ताएं जुट ही जाएँगी न?

नहीं आश्चर्य होता कि हम सबको, इस पूरे समाज को धर्म, जाति, मंदिर, मस्जिद और कहीं कहीं सत्ता की चापलूसी से मिलने वाले फायदों, पुरस्कारों आदि की अफीम चटा-चटाकर कठपुतली बना दिया गया है. ये कठपुतलियां भीड़ हैं, साइबर सेल हैं. ये कठपुतलियां विलक्षण लेखक हैं, पत्रकार हैं, फ़िल्मकार हैं. इनके पास तर्क हैं जो इंसानियत की पैरवी नहीं करते धर्म की करते हैं, जाति की करते हैं. तर्क जो अपराधियों में भी धर्म देखते हैं और पीड़ित में भी.

आश्चर्य तो यह है कि कोई उम्मीद है जो अब तक बुझी नहीं है. आश्चर्य तो यह है कि एक सुंदर समाज का सपना है जो तमाम किरचों में टूट जाने के बावजूद बचा हुआ है. दूर किसी गाँव में कोई शिक्षक बच्चों को सुना रहा है प्यार भरी कोई कविता और कोई बच्ची लिख रही छोटा उ से उम्मीद.

3 comments:

अनीता सैनी said...

जी नमस्ते,

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१४-१२-२०१९ ) को " पूस की ठिठुरती रात "(चर्चा अंक-३५४९) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।

जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी

गोपेश मोहन जैसवाल said...

बहुत ज्वलंत प्रश्न उठाया है आपने प्रतिभा जी. इस पुलिस-एनकाउंटर को मैं नाकारा पुलिस की एक नौटंकी मानता हूँ और इसका स्वागत करने वाले प्रशासन को तथा पुलिस पर पुष्प-वृष्टि करने वाले पुरुष-स्त्रियों को इस नौटंकी के पात्र मानता हूँ.
आज हवा पुलिस-एनकाउंटर के पक्ष में बह रही है लेकिन कभी न कभी प्रशासन की और जनता की आँखें खुलेंगी लेकिन हो सकता है कि तब तक ऐसे दस-बारह एनकाउंटर और हो जाएं.

मन की वीणा said...

सटीक समय से और प्रबुद्ध लोगों से सवाल पूछती सार्थक पेशकश।