Monday, March 18, 2019

चुनाव


हमारे जन्म के लिए
नहीं दिया था हमने कोई प्रार्थना पत्र
न हिन्दू या मुसलमान बनकर
जन्मने के लिए
न स्त्री होकर जीने के लिए
न पुरुष होकर
न पंडित, ठाकुर या दलित होकर
जन्म लेने के लिए

न पूछा गया था हमसे
किस देश या राज्य में
लेना चाहते हैं जन्म
कौन सा धर्म पसंद है हमें
किसके रीति रिवाज, परम्परायें
निभाना चाहेंगे हम

बिना अपने चुनाव के इस जन्म को
उसी तरह जीने लगे हम
जैसे जीना तय किया सबने
सिवा हमारे
मन्त्र जपने थे
या पढनी थीं कुरान की आयतें
कहाँ पता था हमें

लेकिन मनुष्य तो हम होते ही
अगर बदल भी जाता
धर्म, जाति, देश, लिंग सबकुछ

धर्म अगर एक ही होता धरती का
जो न होतीं लकीरें सरहदों पर
या हम जन्मे ही होते सरहद पार
तो बदला होता न  सब कुछ
बदल जाती पहचान 
आस्थाएं, विचार

बस कि नहीं बदलता चोट लगने पर दर्द होना
और प्यार पाकर निहाल हो जाना

मुंह में ठूंस दिए गये नारे,
ताली बजाने को उठते हाथ
किसी झुण्ड के पीछे
दौड़ पड़ने का पागलपन
कुछ भी नहीं है हमारा खुद का

यह पागलपन बोया गया है
इस पागलपन से बचना
हो सकता है हमारा चुनाव

समझना होगा खुद ही
कि जन्म हमारा चुनाव नहीं
जीवन हमारा चुनाव हो सकता है
धर्म हमारा चुनाव न सही
संवेदना हमारा चुनाव हो सकती है
जाति हमारा चुनाव न सही
मनुष्यता हमारा चुनाव हो सकती है
जन्म भले हुआ हो धरती के किसी कोने पर
लेकिन पूरी धरती को प्यार करके
उसमें रच बस जाने का सपना
हमारा खुद का चुनाव हो सकता है

मोहरे बनकर सियासत की बिसात पर
नफरत फ़ैलाने को दौड़ते फिरने से बचना
हो सकता है हमारा चुनाव

हमारे यही चुनाव
होंगे जीवन के लोकत्रंत का उत्सव.

2 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

चुनाव पता नहीं कब होंंगे पता नहीं कब होगा लोकतंत्र? भ्रम बना रहे कि है अच्छा है।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (20-03-2019) को "बरसे रंग-गुलाल" (चर्चा अंक-3280) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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होलिकोत्सव की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'