Saturday, May 26, 2018

प्रेम


बीत गयी शामों से चुरा ली थी
खाली हुए चाय के कप की खनक
उतरती शाम की उदासी
और तुम्हारे बटुए से गिरा वो एक सिक्का

तुम्हारी मेहनत की कमाई का वो सिक्का
मेरे प्रेम की कमाई उस शाम में जड़ गया है

वो शाम अब भी महक रही है
खाली हो चुके उन चाय के कपों में
तुम्हारी चुस्कियां अब भी बाकी हैं

बीत चुकी वो शाम हर रोज बीतती है
आहिस्ता आहिस्ता

मैं उसके खर्च होने से डरती हूँ


4 comments:

Anonymous said...

This site was... how do I say it? Relevant!! Finally I have found something
which helped me. Thank you!

radha tiwari( radhegopal) said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (28-05-2018) को "मोह सभी का भंग" (चर्चा अंक-2984) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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मातृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी

सु-मन (Suman Kapoor) said...

सुंदर

Roli Abhilasha said...

प्रेम बढ़ता है हर रोज
जितना खर्च होता है
हर नया दिन
प्रेम को अमरता देता है,
शाम खर्च होती है
पर प्रेम संचय होता है।

बेहतरीन लिखती हैं आप।