Sunday, April 2, 2017

दुःख को विदा



एक स्त्री दुःख को विदा करने जाती है
और देखती रहती है उसे
देर तक दरवाजे पर खड़ी

दुःख भी जाता नहीं एकदम से
ठिठका रहता है ड्योढ़ी पर
ताकता रहता है उसका मुंह
कि शायद रोक ले...

धीरे-धीरे वो अपनी हथेली
उसकी हथेलियों से छुड़ा लेती है
दुःख सर झुकाए देर तक
बैठा रहता है दरवाजे पर

स्त्री के गालों पर बहती नमी
टिमटिमा उठती है
चांद की रौशनी में

इतने बरस के साथी
उदास
डूबे हुए आकंठ स्मृतियों में

भीतर रखा फोन घनघनाता है
वो भारी क़दमों से कमरे में लौटती है
दुःख का हाथ छुड़ाकर
दुःख से कहती है ‘विदा...’

उठाती है फोन
खिल उठता है उसका चेहरा
फोन के स्क्रीन पर 'प्रेम' चमक रहा है
‘मैं जानती थी तुम मुझे छोड़कर कहीं नहीं जाओगे’
वो भावुक होकर कहती है

दरवाजे से वापस आकर मुस्कुराता है दुःख...

4 comments:

Anonymous said...

Very nice Poem . Is it original Poem or translation of some other Poem ?
Anyway ... very nice thoughts ...keep writing.

'एकलव्य' said...

भावनापूर्ण अभिव्यक्ति। सुंदर

Onkar said...

बहुत सुन्दर रचना

Unknown said...

बहुत सुन्दर कविता। शुभकामनाएँ