Thursday, September 3, 2015

कितनी टूटन है अंदर भी बाहर भी

नींद के दरवाजे पर एक भयावह ख्वाब की दस्तक होती है। मैं डर जाती हूं। वो ख्वाब इन दिनों मुसलसल दिक किये है. उसके डर से नींद से छुप जाना चाहती हूं।  चादर को और कसकर लपेट लेती हूं। आंखें बंद कर लेती हूं लेकिन सोती नहीं। उस ख्वाब की  दस्तक बढ़ती जाती है।

मैं सोचती हूं कि चादर के भीतर मैं सुरक्षित हूं। बंद आंखों के भीतर के अंधेरे मुझे छुपा लेंगे।  हालांकि जानती हूं कि बचना आसान नहीं है। वो कभी भी, कहीं भी दबोच लेता है। उसे तो नींदों का भी इंतजार नहीं होता। जागती आंखों में भी आ बैठता है। मेरा तमाम आत्मविश्वास उस भयावह ख्वाब के आगे पस्त हो जाता है। रात के दो बज रहे हैं और मैं कभी फोन को उलट-पुलट रही हूं कभी अपना ध्यान हटाने को कोई पुरानी याद चुनना चाहती हूं।

तकिये के नीचे दाहिनी तरफ मैं सबसे मीठे ख्वाब रखती हूं। और बांयी तरफ उदास जागे हुए पल। बांयीं तरफ का तकिया अक्सर भीगा रहता है। अपनी तरकीब लगाकर मैं दाहिने को बांयी तरफ करके उस गीलेपन को सोखने का प्रयास करती हूं। लेकिन कभी भी कर नहीं पाती। जब मेरी आंख लग जाती है तो मेरी तकिये के नीचे काफी उथल-पुथल होती है।

नींद की ड्योढ़ी पर भयावह ख्वाब की दस्तक बढ़ती जाती है  लगातार... लगातार.... मैं जानती हूं उस ख्वाब की तासीर को। उसके पास मत्यु है। मत्यु से उपजा भय है। ढेर सारी लाशों के ढेर के बीच मैं अकेली...गलती से जीवित बच जाने के दंश को भुगतती। कोई नन्ही सी ठंडी उंगली मेरे पांव से छू जाती है। मैं घबराकर भागती हूं तो एक निर्वस्त्र देह से टकरा जाती हूं, जिस पर से कफन उड़ चुका है। नज़र की आखिरी हद तक कफन ओढ़े सोये पड़े लोग हैं। कफन के नीचे से सिसकियां रिस रही हैं। कोई उन्माद आसपास ही सांस ले रहा है। मैं अपनी मौत से मरने से नहीं डरती...लेकिन ये जरूर चाहती हूं कि जीने की इच्छा की मौत नहीं होनी चाहिए। मैं आंख खोलती हूं तो भी ख्वाब टूटता नहीं। पानी पीने पर भी नहीं। मोबाइल पर कुछ खंगालने की कोशिश पर भी नहीं। कोई किताब पढ़ने पर भी नही। मालूम होता है कोई मुझे पुकार रहा है। मैं भाग रही हूं। लाइट ऑन करती हूं। कमरे के बाहर जाने की हिम्मत जुटाती हूं। 

सुबह आकाश के कोने में आने की तैयारी कर रही थी। ये जो ख्वाब है जो मुझे डराता है, यह क्या ख्वाब ही है सचमुच। काश कि ख्वाब ही होता। सुबह का अखबार खून से भीगा हुआ मालूम होता है...डर के मारे अखबार फेंक देती हूं। सोशल मीडिया में वो नन्ही सी ठंडी ऊँगली पूरा जिस्म बनकर तैरती है. कोई खौफनाक चेहरा अट्टहास करता है...बहुत डर लगता है इन दिनों...


3 comments:

Ritesh Kumar Nischhal said...

Har Shabd Ke Peeche Na Jane Kaisa Asmanjas Tha...Shabdo Ke Motiyo Se Piroye Hui ye Aesi Mala Hai Jise Na Pahan Sakte Hai Na Rakh Sakte Hai..Bas Har Bar Mahsoos Kar Sakte Hai.KUch Paralaukik Satya Sa Lga.Kuch Aisa Jo Kio Lekhak Har Bar Likhna Nahi Chahega.Jab Tak Uski Antaraatma Me Koi Tees Ya Koi Chubhan Na Ho....Sorry Mam Mai Apke Lekh Ki Samiksha Nai Kar Rha Bas Ise Padhne Ke Bad Jhakjhore Hue Mastishk Se Shabd Bahar Aane Ko Wyakul Ho Gye.

AApke Aashirwad Se Lekhan ke Dharatal Par Ankurit Ek Beej -

Ritesh Kumar'Nischhal'

Ritesh Kumar Nischhal said...

Har Shabd Ke Peeche Na Jane Kaisa Asmanjas Tha...Shabdo Ke Motiyo Se Piroye Hui ye Aesi Mala Hai Jise Na Pahan Sakte Hai Na Rakh Sakte Hai..Bas Har Bar Mahsoos Kar Sakte Hai.KUch Paralaukik Satya Sa Lga.Kuch Aisa Jo Kio Lekhak Har Bar Likhna Nahi Chahega.Jab Tak Uski Antaraatma Me Koi Tees Ya Koi Chubhan Na Ho....Sorry Mam Mai Apke Lekh Ki Samiksha Nai Kar Rha Bas Ise Padhne Ke Bad Jhakjhore Hue Mastishk Se Shabd Bahar Aane Ko Wyakul Ho Gye.

AApke Aashirwad Se Lekhan ke Dharatal Par Ankurit Ek Beej -

Ritesh Kumar'Nischhal'

कविता रावत said...

समाज का एक डरावना सच.