Tuesday, July 14, 2015

बारिश, शोर, तन्हाई...


सारी रात सिरहाने बारिश शोर करती रही। अब जबकि रात बीत चुकी है.

महसूस होने के लिए होना जरूरी नहीं होता लेकिन होने के लिए होना ही होता है। बिना हुए महसूस तो हुआ जा सकता है लेकिन हुआ नहीं जा सकता। और जो जगह होने से भरती है वो महसूस करने से नहीं भरती। लेकिन इसके ठीक उलट बिना महसूस हुए होने का भी क्या अर्थ है। कि हथेलियों में हथेलियां हों लकिन कोई जुम्बिश ही न हो। साथ वाली कुर्सी खाली होने पर ज्यादा भरी लगती र्है कई बार और एक साथ दो प्याली चाय पीना भी। अपनी हरारत को अपनी खामोशियों में पीने से बेहतर जीना कोई नहीं। शब्द झूठे हैं कि उनमें कुछ भी नहीं। कुछ भ्रम जिन्हें टूटना ही है एक दिन। महसूस होना टूटता नहीं। कभी-कभी टूटता भी है लेकिन महसूस  होने को होना ही तोड़ सकता है बस।

अजीब बात है कि इंतजार को तोड़ता है इंतजार का टूटना ही। लेकिन शायद इंतजार अपने अस्तित्व में ही खिलने का आदी हो। न होने में होने का सुख बेहतर है, होकर न होने की दुविधा से। इत्ती बड़ी दुनिया में सब तो हैं ही फिर भी कितने तन्हा हैं सब के सब। सच तो यह है कि जिस तनहाई से निकलने की कोशिश में हम हाथ पांव पटकते हैं असल ठौर वहीं है। उसी तनहाई में हमारा केन्द्र है। हमारी जिंदगी के संगीत के सम। जिंदगी के सम से भटककर जिंदगी की लय को तलाश करना फिजूल है।
बारिश इन दिनों मगन होकर नाचती फिर रही है। उसकी लडि़यों को हथेलियों पे लेना अच्छा लगता है लेकिन ऐसा भी लगता है कि इस तरह लडि़यां टूट जाती हैं बारिश की। हर अच्छी लगने वाली चीज की तरफ हाथ बढ़ाने की फितरत भी अजीब है। इस फितरत में बहुत टूटन है


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