Thursday, July 7, 2016

तुम्हारे साथ होना है जीवन में होना... बीथोवन




आज जब हम अपनी भावनाओं को ठीक ठीक महसूस कर पाने से पहले ही पाने प्रिय तक उड़ेल पाने में समर्थ हैं, एक क्लिक पर सात समन्दर पार झट से पहुंचा पाते हैं अपना हाल-ए-दिल उस वक़्त में आइये महसूस करते हैं १८१२ यानि १०४ साल पहले एक प्रेमी की उस पीड़ा को जो अपनी प्रेमिका से दूर है और लम्हा लम्हा उसके लिए तरस रहा है. खतों में खुद को भरसक उड़ेल देने की इच्छा के बावजूद बार बार कुछ बच जाना और फिर-फिर लिखने बैठ जाना...वो आंसू, वो तड़प, वो मिलन की इच्छा और एक अदद ख़त. ये ख़त है सिम्फनी के जादूगर लुडविग बीथोवन का उसकी प्रेमिका के नाम...ख़त तो मिला लेकिन प्रेमिका का नाम नहीं...क्या फर्क पड़ता है...ये एक ही ख़त है जो तीन अलग अलग टुकड़ों में लिखा गया...

अदबी ख़ुतूत : छठवीं कड़ी :

६ जुलाई, 1812 सुबह
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मेरी ख्वाब परी, मेरा खुद का वजूद, आज सिर्फ कुछ शब्द लिखूंगा, वो भी पेन्सिल से. वही तुम्हारी दी हुई पेन्सिल. कल तक मेरा सामान यहाँ से बंध जायेगा. इन सब प्रक्रियाओं में कितना वक़्त जाया जाता है न?

हमारा प्यार क्यों इन सबके बगैर नहीं रह सकता, बिना कोई अपेछा किये, बिना कोई मांग एक दूसरे से किये. क्या इन चीज़ों के बगैर हम महसूस नहीं कर रहे कि किस कदर तुम सिर्फ मेरी हो और मैं सिर्फ तुम्हारा. ओह, यूँ कुदरत की खूबसूरती में डूबते जाना अपने मन मस्तिष्क को एकाग्र कर अनुभूत करना प्रेम. प्रेम अपने इर्द-गिर्द सब कुछ चाहता है, जो कि वाजिब भी है. इसलिए मेरे लिए तुम्हारे होने से ही कुछ भी होने के मायने तय होते हैं, और मैं जानता हूँ कि तुम्हारे लिए भी मेरा साथ कितना ख़ास है. कभी न भूलना प्रिय कि तुम्हारे साथ होना ही जीवन में होना है. तुम्हारे साथ न होने के उस दर्द को तुम समझ सकती हो न, जो मैं सह रहा हूँ इन दिनों?

हमें अब जल्दी ही मिलना चाहिए. देखो न कैसी मुश्किल है कि मैं तुमको वो सब आज नहीं पहुंचा पा रहा हूँ जो मैंने पिछले दिनों जिन्दगी में महसूस किया है, जहाँ मेरा दिल तुम्हारे बेहद करीब था. मेरा अंतर्मन तुम्हें वो एक-एक एहसास देने के लिए बेचैन है. ऐसे कई लम्हे थे जब मैंने तुम्हारी कमी को शिद्दत से महसूस किया. जब मुझे लगा कि मैं कुछ कह नहीं पाऊँगा.

मेरी प्रिय, तुम जानती हो न कि सिर्फ तुम ही मेरी जिन्दगी का अनमोल खजाना हो. जैसे मैं तुम्हारे लिए हूँ. बाकी तो ईश्वर ही जानता है कि उसने हम दोनों के लिए क्या सोचा है...

तुम्हारा वफादार
लुडविग
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सोमवार, शाम, ६ जुलाई

ओ मेरी प्रिय, मैं समझ रहा हूँ कि तुम सह रही हो. अभी मैंने महसूस किया कि ये ख़त मुझे जल्दी से पोस्ट कर देने चाहिए. क्योंकि डाक भी तो सोमवार से गुरुवार के बीच ही निकलती है.

ओह प्रिये, ये क्या जिन्दगी है. कहाँ तुम हो, कहाँ मैं हूँ. तुम मुझमें हो, मैं तुम में हूँ लेकिन हम साथ नहीं. मुझे जल्द ही कुछ करना होगा कि मैं तुम्हारे साथ रह सकूँ.

तो, तुम्हारे बिना...कुछ भी नहीं. जब मैं खुद को इस ब्रह्मांड के बरक्स देखता हूँ तो सोचता हूँ कि कौन हूँ मैं? वो कौन हैं जिसे लोग महान कहते हैं...और फिर...प्रिय सब ईश्वर के बनाये पुतले ही लगते हैं मुझे. यह सोचकर रोना आता है कि तुम मेरे बारे में अब कोई भी खबर शनिवार की सुबह ही पा सकोगी. तुम मुझे जिस तरह बेइंतिहा प्यार करती हो उसके बारे में सोचते हुए मेरा प्यार और...और...और बढ़ता जाता है, मजबूत होता जाता है. अपनी भावनायें कभी मत छुपाना मुझसे.

शुभ रात्रि प्रिय, मैंने अभी अभी पानी पिया है और अब मुझे सो जाना चाहिए. ओह ईश्वर, हम कितने पास, कितने दूर...

तुम्हारा
लुडविग
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७ जुलाई, सुबह

गुड मॉर्निंग प्रिय,

मैं अभी बिस्तर में ही हूँ और तुम्हारे खयालों से घिरा हुआ हूँ. मेरी प्रिये, यहाँ वहां हर जगह तुम ही तुम हो ये सोचकर खुश हूँ, लेकिन फिर उदास भी हो जाता हूँ हमारे बीच की दूरियों के बारे में सोचकर. इंतजार है कब किस्मत हमारी सुनेगी, कब हम साथ होंगे. या तो मैं तुम्हारे साथ रह सकता हूँ या मैं रह ही नहीं सकता. हाँ, अब मैंने फैसला कर लिया है बहुत हुआ इधर उधर भटकना. जब तक मैं तुम्हारी बाँहों में नहीं पहुँच जाता, तुम्हारी बाँहों में अपना घर महसूस नहीं करता मैं अपने भीतर का यह तूफ़ान ख़त में लिखकर तुम्हारे पास भेजता रहूँगा. मेरे ख़त तुम तक मेरे एहसास पहुंचाते रहेंगे और तुमको यकीन दिलाते रहेंगे कि सिर्फ और सिर्फ तुम ही मेरे लिए ज़रूरी हो, मेरी समस्त भावनाएं सिर्फ तुम्हारे लिए हैं. कोई और कभी मेरे दिल तक नहीं पहुँच सकता. कभी नहीं, कभी भी नहीं. हे ईश्वर, क्यों दो प्यार करने वालों को दूर रहना पड़ता है. और यहाँ मेरी जिदंगी..एकदम बिखरी और उलझी हुई

तुम्हारे प्यार ने मुझे दुनिया का सबसे खुश और सबसे उदास व्यक्ति एक ही समय में एक साथ बनाया है. प्रिये मैं चाहता हूँ की यहाँ से रोज डाक निकले और तुम तक रोज एक ख़त मैं पहुंचा सकूँ. अब मैं लिखना बंद करता हूँ ताकि ये ख़त पोस्ट कर सकूँ.

ओह, शांत हो जाओ प्रिये..मुझे प्यार करो...महसूस करो आज...तुमसे मिलने की बेकरारी मेरे आंसुओं में छलक रही है, इसे महसूस करो मेरी जिन्दगी. तुम मेरा सब कुछ हो. मुझे यूँ ही प्यार करती रहो..करती रहो...बगैर मेरे प्यार पे कोई शुबहा किये.

तुम्हारा प्रेमी
लुडविग

(प्रस्तुति- प्रतिभा कटियार)

Wednesday, June 29, 2016

ओ टेम्स की लहरों, तुम मत बदलना



लंदन की सड़कों पर घन्टों घूमते हुए, टयूब (वहां की मेट्रो ट्रेन जैसी) में सफ़र करते हुए, रेस्तरां में खाना खाते हुए, बड़ी-बड़ी बिल्डिंगों के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते हुए, थेम्स की लहरों में हिचकोले खाते हुए, लंदन ब्रिज या टावर ब्रिज के पास तस्वीरें खिंचवाते हुए मन में लगातार कुछ सवाल भी चल रहे थे. जिन्हें कभी लंदन में रहने वाले दोस्तों से, वहां पढने वाले छात्रों से साझा भी किया करती थी. अख़बारों को पलटते समय भी वो जिज्ञासाएं रहती थीं कि इस देश के राजनैतिक मुद्दे क्या हैं? यहाँ किस तरह के अपराध होते हैं, इतनी व्यवस्थित जीवन शैली और मुक्त माहौल में भी लोग उदास और अकेले क्यों हैं आखिर?

लंदन की सड़कों पर घूमते हुए ज्यादातर जो लोग टकराते हैं वो ब्रिटिशर्स ही नहीं होते. तमाम मुल्कों के तमाम लोगों के साथ आप सफ़र कर रहे होते है. आपके आसपास तमाम संस्कृतियां एक साथ सांस ले रही होती हैं. कई भाषाएँ बोली जा रही होती हैं. ध्यान न देने पर हिंदी के अलावा बोली जाने हर भाषा हमें अंग्रेजी सी मालूम होती है. हर गोरा अंग्रेज लगता है लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है. यहाँ तमाम यूरोपीय देशों के निवासी उतने ही अधिकार से रहते हैं जितने अधिकार से ब्रिटिशर्स. रोजगार में, कॉलेजों में, घरों में, कला के क्षेत्र में, सब जगह ये बराबर नज़र आते हैं. तमाम देश के बाशिंदे यहाँ जिस तरह घुले-मिले हैं, सब मानो इसी देश का हिस्सा हो गए हों.

भारत से जाकर लंदन में मॉस कमुनिकेशन करने वाली एक छात्रा बताती है कि उसकी क्लास में ब्रिटिश स्टूडेंट्स से ज्यादा संख्या दूसरे देश के छात्रों की है. तमाम देश के दोस्तों के साथ रहते-रहते उसकी बातचीत में तमाम भाषाएँ शामिल हो चुकी हैं और खान पान में तमाम स्वाद. पूरी दुनिया को एक परिवार की तरह देखने का जो ख्वाब कभी नामुकिन सा लगता था कुछ दिनों के लंदन प्रवास में लगा कि शायद ये यहाँ पूरा हो रहा है. पूरे यूरोप को एक परिवार की तरह देखा जा सकना क्या कम महत्वपूर्ण है.

क्या यह कम महत्वपूर्ण है कि यह देश अपने बुजुर्गों को न सिर्फ पूरा सम्मान देता है बल्कि समूचे अधिकार और सुविधाएँ भी देता है. शारीरिक रूप से अगर कोई कमी है किसी में तो उसके प्रति, उसकी सुविधा, सम्मान और अधिकार के प्रति कितना सचेत है (हालाँकि स्त्रियों को अभी समान श्रम के लिए, समान वेतन की लड़ाई लड़ना बाकी है, जिसकी शुरआत हो चुकी है.) यही सब सोचते हुए दिन बीत रहे थे.

बाहर से दिखने वाली इस खूबसूरत तस्वीर के पीछे एक जद्दोजहद भी चल रही थी, जो सामने से नज़र नहीं आ रही थी. वही जद्दोजहद सामने आई ब्रिटेन के यूरोपीय देशों से अलग होने के फैसले से. भले ही यह फैसला सिर्फ दो प्रतिशत मतदान के अंतर पर आधारित हो लेकिन आज का सच यही है की ब्रिटेन ने खुद को उस परिवार से अलग कर लिया है, जिसमें तमाम यूरोपीय देश शामिल थे.

सारी दुनिया को एक परिवार की तरह देखने का जो ख्वाब था वो भीतर ही भीतर ख़ामोशी से दरक रहा था, चुपचाप. वो जो मिलाजुला होना था, वो जो संस्कृतियों के सम्मिलन का सुन्दर द्रश्य लंदन के मिलेनियम ब्रिज से दिखता था वो इस कदर धुंधला हो जाये क्या ब्रिटेन के लोग यही चाहते थे?

दुनिया को अलग-अलग टुकड़ों में देखना आसान है. लेकिन समूची दुनिया को एक सूत्र में पिरोकर रखना, उनकी स्वतन्त्रताओं, उनकी अस्मिताओं को सम्मान देते हुए, बिना किसी पर अपना प्रभुत्व थोपे साथ मिलकर चलना ही तो मुश्किल है. साथ की यही ताक़त महसूस की होगी स्कॉटलैंड और आयरलैंड ने कि उन्होंने अपने सम्पूर्ण स्वतंत्र अस्तित्व को बरकरार रखते हुए ब्रिटेन का साथ चुना. फिर आखिर वजह क्या थी इस अलगाव की? कौन थे वो अड़तालीस प्रतिशत लोग जिन्होंने अलग होना चुना और कौन हैं वो बावन प्रतिशत लोग जो इस अलग होने को जीत के तौर पर देख रहे हैं.

तो क्या अब लंदन की सड़कों पर कोई जर्मन लड़की अपने प्रेमी से लड़ते हुए जर्मन भाषा में नाराज़ होती नहीं नज़र आयेगी, या वेम्बले में दिखने वाला भारतीय बाजार कहीं गुम जायेगा. तमाम देशों के स्वादिस्ट खाने क्या अब नज़र नहीं आयेंगे. क्या बदल जायेगा इसके बाद? मैं बड़े राजनैतिक और आर्थिक विमर्श की नहीं सिर्फ दुनिया भर के सामजिक सरोकारों के मद्देनजर सोच पा रही हूँ इस वक़्त तो.

एक दोस्त अपनी बेटी की किसी शारीरिक दुर्बलता के चलते लंदन में आकर बस चुका है यह सोचकर कि यहाँ उसकी बच्ची को उसके सारे अधिकार मिलेंगे बिना किसी हीनता के बोध के, वो दोस्त क्या अब लंदन से प्यार करना बंद कर देगा?

क्या ब्रिटेन के लोगों को अपनी उन्हीं ख़ास बातों से दिक्कत होने लगी थी जिनकी वजह से दुनिया उनके साम्राज्यवादी रवैये को भूलने को राजी होने लगी थी.

अलग होना आसान है, साथ होकर चलना मुश्किल है. क्यों ब्रिटेन ने आसान राह चुनी होगी, क्या इस आसान राह के बाद की मुश्किलें उसे नज़र न आई होंगी. और क्यों उसके अलग होने से किसी को ख़ुशी होनी चाहिए कि अलग होना तो हर हाल में कमजोर ही करता है.

हम तो ब्रिटेन से कुछ सीखना चाहते थे ये क्या कि जो सीखना चाहते थे वो खुद उस इबारत को पलट बैठे. मुझे नहीं मालूम था कि महज चंद दिनों के लंदन और स्कॉटलैंड प्रवास के दौरान जो जिज्ञासाएं मन में जगी थीं वो किसी मंथन के तौर पर वहां कई सालों से मौजूद थी. नहीं मालूम था कि इस तरह के हालात सामने आयेंगे. हालात जिसका फायदा किसी को नहीं होना है.

मुझे तो लंदन की यही बात सबसे ख़ास लगी थी कि यहाँ एक साथ कितनी संस्कृतियाँ, कितने देश, कितनी भाषाएँ, कितने स्वाद एक साथ पूरे सम्मान के साथ रहते हैं. टावर ब्रिज की झिलमिलाती रौशनी में जब कोई नौजवान गिटार की धुन छेड़ रहा होता है तो वो किस देश का है, किस भाषा को जानता है पूछने को जी नहीं करता, थेम्स की लहरों पर किस देश की लड़की का चुम्बन किस देश के लड़के के गालों पर दर्ज हुआ करता है किसे फ़िक्र है...अलग होकर ब्रिटेन अब नए रूप में क्या होगा, कैसी होंगी लंदन की सड़कें और उन पर चलने वालों के सैलाब में कौन कम होगा ये सोचने का भी जी नहीं करता....

(डेली  न्यूज़  में प्रकाशित )

Tuesday, June 28, 2016

ओ शहर लन्दन...


एक शहर बारिश की मुठ्ठियों में
धूप का इंतजार बचाता है

थेम्स नदी की हथेलियों पे रखता है
शहर को सींचने की ताकीद

निहायत खूबसूरत पुल कहते हैं
पार मत करो मुझे, प्यार करो

कला दीर्घाओं और राजमहल के बाहर
लगता है कलाओं का जमघट

एक बच्ची फुलाती है बड़ा सा गुब्बारा
कई वहम के गुब्बारे फूटते भी हैं

सिपाही की अवज्ञा कर कुछ बच्चे
ट्रेफेल्गर स्क्वायर के शेरो से लिपट जाते हैं

एक लड़की भरी भीड़ में लिपट जाती है प्रेमी से
और तोहफे में देती है गहरा नीला चुम्बन

भीड़ उन्हें देखती नहीं, वो देखती है
कई रंगों में लिपटे लड़के के करतब

कहीं ओपेरा की धुन गूंजती है
तो कहीं उठती है आवाज ‘टू बी ऑर नौट टू बी...’

बिग बेन के ठीक सामने
खो जाता है समय का ख्याल

एक जिप्सी लड़का गिटार की धुन में खुद को झोंक देता है
कोई जोड़ा उसकी टोपी में रखता है कुछ सिक्के

खाली ‘बच्चा गाड़ी’ के सामने बिलखती औरत
किसी समाधि में लीन मालूम होती है

बारिश के भीतर बच जाता है कितना ही सूखा
और सूखा मन लगतार भीगता है डब्बे जैसी ट्रेनों में

दुनिया नाचती है राजनीती की ताल पर
शहर नाचता है अपनी ही धुन पर

बरसता आसमान क्या पढ़ पाता है सीला मन
या रास्ते ही भीगते हैं बारिश में?

गूगल की हांडी में पकती हैं सलाहियतें
एक स्त्री संभालती है ओवरकोट
कि तेज़ बारिश का अंदेशा दर्ज है कहीं

रास्ते गली वाले जुम्मन चाचा नहीं बताते
गूगल का जीपीएस बताता है

जो बताता है वो सही ही रास्ते
तो इस कदर भटकाव क्यों है

कोई जीपीएस मंजिलें भी बताता है क्या?

शहर की हथेली में लकीर कोई नहीं...

Friday, June 24, 2016

कार्ल मार्क्स का खत जेनी के नाम

हिंदी कविता पेज पर 'अदबी खुतूत' नाम से एक कॉलम शुरू हुआ है. हर गुरुवार को इस कॉलम के तहत एक ख़त की साझेदारी होती है. ख़त जो इतिहास के दिल की धड़कनों को समेटे इतिहास में दर्ज हो गए. वही ख़त जिन्हें जितनी बार खोलो एक रौशनी मिलती है, मोहब्बत की बारिश में भीगने का एहसास होता है...मानसून के इस मौसम जब में हर कोई किसी न किसी रूप में भीग ही रहा है तो आइये हम भी भीगते हैं इन प्रेम पत्रों की बारिश में-प्रतिभा 

कार्ल मार्क्स का खत अपनी पत्नी जेनी के नाम


मेनचेस्टर, २१ जून १८६५

मेरी दिल अज़ीज़,

देखो, मैं तुम्हें फिर से खत लिख रहा हूँ. जानती हो क्यों? क्योंकि मैं तुमसे दूर हूँ और जब भी मैं तुमसे दूर होता हूँ तुम्हें अपने और भी करीब महसूस करता हूँ. तुम हर वक़्त मेरे जेहन में होती हो और मैं बिना तुम्हारे किसी भी प्रतिउत्तर के तुमसे कुछ न कुछ बातें करता रहता हूँ,

ये जो छणिक दूरियां होती हैं न प्रिय, ये बहुत सुन्दर होती हैं. लगातार साथ रहते-रहते हम एक-दूसरे में, एक-दूसरे की बातों में, आदतों में इस कदर इकसार होने लगते हैं कि उसमें से कुछ भी अलग से देखा जा सकना संभव नहीं रहता. फिर छोटी छोटी सी बातें, आदतें बड़ा रूप लेने लगती हैं, चिडचिड़ाहट भरने लगती हैं. लेकिन दूर जाते ही वो सब एक पल में कहीं दूर हो जाता है, किसी करिश्मे की तरह दूरियां प्यार की परवरिश करती हैं ठीक वैसे ही जैसे सूरज और बारिश करती है नन्हे पौधों की. ओ मेरी प्रिय, इन दिनों मेरे साथ प्यार का यही करिश्मा घट रहा है. तुम्हारी परछाईयां मेरे आसपास रहती हैं, मेरे ख्वाब तुम्हारी खुशबू से सजे होते हैं. मैं जानता हूँ कि इन दूरियों ने मेरे प्यार को किस तरह संजोया है, संवारा है.

जिस पल मैं तुमसे दूर होता हूँ मेरी प्रिय, मैं अपने भीतर प्रेम की शिद्दत को फिर से महसूस करता हूँ, मुझे महसूस होता है कि मैं कुछ हूँ. ये जो पढ़ना-लिखना है, जानना है, आधुनिक होना है ये सब हमारे भीतर के संशयों को उजागर करता है, तार्किक बनाता है लेकिन इन सबका प्यार से कोई लेना-देना नहीं. तुम्हारा प्यार मुझे मेरा होना बताता है, मैं अपना होना महसूस कर पाता हूँ तुम्हारे प्यार में.

इस दुनिया में बहुत सारी स्त्रियाँ हैं, बहुत खूबसूरत स्त्रियाँ हैं लेकिन वो स्त्री सिर्फ तुम ही हो जिसके चेहरे में मैं खुद को देख पाता हूँ. जिसकी एक एक सांस, त्वचा की एक एक झुर्री तुम्हारे प्यार की तस्दीक करती है, जो मेरे जीवन की सबसे खूबसूरत याद है. यहाँ तक कि मेरी तमाम तकलीफों और जीवन में होने वाले तमाम अपूरणीय नुकसान भी उन मीठी यादों के साये में कम लगने लगते हैं.

मैं तुम्हारी उन प्रेमिल अभिव्यक्तियों को याद करता हूँ, तुम्हारे चेहरे को चूमते हुए अपने जीवन की तमाम तकलीफों को, दर्द को भूल जाता हूँ...

विदा, मेरी प्रिय. तुम्हें और बच्चों को बहुत सारा प्यार और चुम्बन...

तुम्हारा

मार्क्स

(अनुवाद- प्रतिभा )

पेज का पता है - https://www.facebook.com/wowHindikavita/photos/pb.1477566189171183.-2207520000.1466751110./1697523477175452/?type=3&theater

Saturday, May 21, 2016

जादूगर अनि, जन्मदिन मुबारक!



'आप न तो मेरी नानी की बेटी हो, न मम्मा की बहन तो फिर मेरी मौसी कैसे हुई?' प्यारे से अनि से मेरी दोस्ती की शुरुआत उसके इसी सवाल के साथ हुई थी. मेरा पास कोई जवाब नहीं था, लेकिन वो अब अपने सवाल से खाली था. धीरे-धीरे दोस्ती गहराने लगी, पहले पहल वाली झिझक, संकोच अपनी गठरी बाँध के चलता बना. देवयानी को मैगी और ऑमलेट बनाने किचन की ओर भेजकर हम बिंदास मस्ती करते. चादर तानकर टेंट बनाने का मजा, आहा. बच्चा हुए बिना बचपन का आनंद ले पाना असंभव है, ये राज़  मैं जानती थी. मेरे भीतर का बच्चा मौका पाते ही उछलकर बाहर आने को बेताब रहता ही है. अनि का हाथ थामते ही वो बाहर आ गया.

मैं और अनि  खूब मस्ती करते. उस रोज छुट्टी का दिन था और हमने टेंट बनाने की योजना बनाई. ज़ाहिर है देवयानी के कमरे का हाल तो बुरा होने ही  वाला था लेकिन हम दोनों मूड में आ चुके थे. टेंट बनाने का सामान अनि ने  जुगाड़ना शुरू किया.

हमारा टेंट एक तरफ से बनता तो दूसरी तरफ से गिरने लगता. योजना यह थी कि नाश्ता टेंट में ही होगा. इतने में देवयानी की आवाज आती कि 'चलो उठो, नहाओ तुम दोनो, फिर चलना भी है...' हम दुबक जाते, सोचते कि कैसे न जाने का जुगाड़ बिठाया जाये ताकि सारा दिन खेला जा सके. अनि कहता ' मासी काश कहीं  से फोन  आ जाये कि जहाँ जाना था वहां का प्रोग्राम कैंसिल हो गया .' उसकी इस बात पे उसे खुद ही हंसी आ जाती और हम दोनों मुंह दबाकर हँसते. 

बहरहाल टेंट बनकर ही रहा और हमने नाश्ता टेंट में ही किया. इस दौरान अनि ने पूरे फौजी ढंग से टेंट बनाने में अपनी भूमिका निभाई. जैसे ही मैंने कहा, 'देखो, दुश्मन की फौजें आसपास तो नहीं, हम उनकी बैंड बजा देंगे.' तो वो झट से जवाब देता, ‘हाँ मासी, मैं अभी बैंडवाले को फोन करता हूँ.’ मैं उससे कहती 'हम दुश्मन को हराने की नयी रणनीति बनाएंगे', तो वो मुस्तैद जवाब देता, ‘वैसे मुझे मालूम नहीं है कि रणनीति होती क्या है, लेकिन हम बनायेंगे ज़रूर’ कितनी ही बार वो लम्हे याद करके मुस्कुराई हूँ.

तमाम कुर्सियों और चादर और बहुत सारी स्टिक्स की मदद से बने उस टेंट के अन्दर किये गये नाश्ते के स्वाद और अनि की शरारतों की खुशबू से अब तक सराबोर हूँ. उसकी हर अदा खूबसूरत है. विम्पीकिड की डायरी के लिए उसका दीवानापन, दीवारों पे टंगी उसकी पेंटिंग्स, उसकी तस्वीरों के पीछे की वो तमाम कहानियां जो उसने मुझे बताईं, साथ में मिट्टी के मटके बनाना सीखना, फिर उन्हें धूप में सुखाना, सुबह-सुबह ठंडी हवा में दुबक के खेलना ‘आई स्पाई....’ 

प्यारे अनि, तुम जादूगर हो, तुम्हारे जन्मदिन पर ढेर सारा प्यार तुमको, ढेर सारा दुलार, ढेर सारी मस्ती अभी भी उधार है...लव यू दोस्त...