Friday, August 1, 2025

टूटन



टूटी हुई नींद
चिड़िया का टूटा पंख है
जिसके किनारे 
टूटन के दुःख से सने हैं.

- प्रतिभा कटियार 



कोई ताज़ा हवा चली है अभी ...


हँसती खिलखिलाती, इठलाती, शरारतें करती लड़की उस रोज गुमसुम हो गई जब वो सांझ के काँधे से लगकर झील में बस उतरने जा रहे सूरज को ताक रही थी और साँझ ने उसके माथे  पर पोशीदा सा एक लम्स रख दिया था। उस ठंडी शाम में लड़की के माथे पर रखा गुनगुना सा वो लम्स दहक उठा था। कदंब के पेड़ के नीचे मटरगश्ती करते मुर्गियों के झुंड ने मानो न कुछ देखा, न सुना।

सांझ ने मुस्कुराकर पूछा,'तुम खुश तो हो न?' 
लड़की की आँखें झरना हो चली थीं।
'ख़ुश' यह शब्द उसे उदास करता है इन दिनों।
'ख़ुश...' कितना अवसाद है इसके सीने में।

कोई ख़ुशी अकेले कभी नहीं आती। अपने साथ ढेर सारा अकेलापन, उदासी और पीड़ा लेकर आती है। ख़ुशी कल्पना में अच्छी लगती है। कल्पना में, कविताओं में, कहानियों में, रील में, फेसबुक में, इन्स्टा में उफनाती फिरती है। ये ख़ुशी उदास करने वाली ख़ुशी नहीं है। ये ख़ुशी किसी नशे सी है, जब तक है, तब तक है। कभी-कभी तब तक भी नहीं है।

जैसे चारों तरफ ख़ुशी का कोई सैलाब बिखरा पड़ा है। जल्दी जल्दी ख़ुशी परोसने वाला सैलाब। 
न सुख के भीतर सुख है, न दुख के भीतर दुख। बस एक शोर है।
लेकिन इस शोर के साथ डील करना आसान है। मुश्किल है एक गहरी लंबी चुप्पी के साथ डील करना।
 
साँझ ने साथ चलती एक मीठी सी लंबी चुप्पी के बाद लड़की के माथे पर ये लम्स जड़कर उसे न सिर्फ हैरत में डाल दिया बल्कि उसके खुश होने के भीतर समाये तमाम डर को आज़ाद भी कर दिया। 

अब झील के किनारे 4 जन थे। लड़की, साँझ, ख़ुशी से जन्मा डर और लगभग ठंडी हो चुकी चाय।

सूरज झील में डूबकर बुझ चुका था।
सांझ की आँखें उनींदी होने को थीं और लड़की अपने तमाम डर, बेचैनी को समेट वापस लौट रही थी।

साँझ का उसके साथ लौटना नामुमकिन था, यह  वो जानती थी।
और यह जानना ही सृष्टि का समूचा कष्ट है।

अब न लड़की साँझ के करीब जा पा रही, न खिलखिला कर हंस पा रही है।
वो नरम सा लम्स जिसके भीतर पूरी क़ायनात का सुख समाया था, न जाने कैसे उदास एहसास में बदल गया। सुख के साथ भरोसे का आना जरूरी है, कि वो रहेगा।
लेकिन अफसोस कोई सुख यह भरोसा लेकर नहीं आता। इसलिए हर सुख की आहट असल में उसके बीत जाने की आहट भी है। और यही उस सुख का दुख है।

लड़की ने चाय का पानी चढ़ाया, बालकनी में उचकती धूप को 'हैलो' कहा और गुलाम अली की गज़ल की आवाज़ तेज़ कर दी...कुछ तो नाज़ुक मिज़ाज हैं हम भी...आवाज़ सुबह में घुलने लगी।  

सुबह ने लड़की के माथे पर आई शिकन को चूम लिया था। धूप बिखरने लगी थी.
गुलाम अली की आवाज़ मुस्कुरा उठी थी, कोई ताज़ा हवा चली है अभी....