Saturday, July 26, 2025

एक कोना धूप एक बूंद बारिश- पूरन जोशी


कविता पढ़ते हुए लोग मुझे बेहद पसंद हैं। कविताओं के बारे में ऐसा है कि उन्हें पढ़ने के बाद एक लंबी चुप्पी में उतरा जा सकता है। कविताओं के बारे में बात करना ऐसा ही है जैसा ख़ुशबू के बारे में बात करना, स्वाद के बारे में बात करना, मौसम के बारे में बात करना। हर बात वो कितने ही सलीके से की जाए असल में पूरी बात नहीं हो सकती। भीगना भीग कर ही महसूस किया जा सकता है। फिर भी साहित्य में वो ताक़त है कि आप पढ़ते हुए भीगने का सुख कुछ हद तक ले सकते हैं, कॉफी के बारे में पढ़ते हुए कॉफी की तलब महसूस कर सकते हैं और पढ़ने के बाद बारिश की ओर कदम बढ़ा सकते हैं, कॉफी बनाने के लिए उठ सकते हैं।  

शब्द...शब्द...शब्द...अच्छे, प्यारे शब्द, मीठे शब्द, ढंग से जमाये गए शब्द, शिल्प में सजे शब्द तब तक अधूरे हैं जब तक उनमें अपने समय की उलझन नहीं, बेचैनी नहीं, अधूरी रातों की जाग नहीं, अन्याय के खिलाफ़ प्रतिकार नहीं, कुछ न कर पाने की पीड़ा नहीं और सबसे इतर समय और काल को परख पाने की समझ नहीं। 

पूरन जोशी के पहले कविता संग्रह 'एक कोना धूप एक बूंद बारिश' को पढ़ते हुए मुझे यह सुख मिला। यक़ीन मानिए यह एक बड़ा सुख है। और मुझे हमेशा से यक़ीन था कि पूरन के यहाँ यह सुख मिलेगा। उसके लिखे से पहले से परिचय है। लेकिन उस परिचय से बड़ा परिचय है पूरन की शख्सियत का। बेहद सुलझी हुई संपन्न दृष्टि, उदार मन, विनम्र व्यवहार। जहां वो एक ही पल में किसी को भी अपना बना लेता है वहीं गलत के खिलाफ़ मुखर भी होता है। उसकी कविताओं में यह झलकता है। 
मैं बहुत सारी कविताओं पर बात कर सकती हूँ। लेकिन मैं फिलहाल उसकी कविता हे राम आपके साथ साझा कर रही हूँ- 
 
हे राम! 

तुम उस रोज मेरे देश आए थे बुद्ध 
तब तुम्हारे भेस में अचानक ही 
मैंने मोहम्मद को देख लिया था 

ये उसी दिन की बात है 
जब मैं जामा मस्जिद की उन ऊंची-ऊंची सीढ़ियों पर 
चढ़ते-चढ़ते ठिठक गया था एकाएक 

तभी तुम खुद सीढ़ियों पर आ गए 
और मेरे हाथ अपने समझदार हाथों में 
धरकर तुमने जिक्र किया था 
रामेश्वर के उस सात साला बेटे का 
जो कल के दंगों में खूनमखून हुआ 

फिर तुमने अपने साथ घटी 
उस घटना को भी बताया 
जब सच कहने की वजह से 
टांगा था सूली पर तुमको 
और फिर ईसा बनकर 
इस पूरी दुनिया के 
तारणहार बन गए थे तुम 

तभी लगभग दो हजार साल बाद 
कैसे एक सरफिरे हत्यारे ने 
तुम पर गोली चलाई थी 
और तुमने कहा था 
हे राम!  

पूरन की कवितायें उम्मीद की कवितायें हैं, प्रकृति की कवितायें हैं, अपनेपन की कवितायें हैं। इसमें एक कोना धूप है सदियों से सीले मन लिए लोगों का और एक बूंद बारिश है हालात के सूखे से बंजर होते सपनों  के लिए। आइये, इस संग्रह का स्वागत करें। किताब न्यू वर्ड पब्लिकेशन से आई है। अमेज़न पर उपलब्ध है।  

Wednesday, July 23, 2025

ये औरतें भी न, गज़ब हैं


स्टोव और सिलेन्डर फट चुकने के बाद 
सल्फास की गोलियों के ख़त्म होने के बाद 
अब औरतें तालाब में डुबोकर मारी जा रही हैं 
ठंडी रोटी परोसने पर कूटी जा रही हैं 
छत से सामान की तरह फेंकी जा रही हैं 
कई टुकड़ों में फ्रिज में रखी जा रही हैं 
धीरे-धीरे ठिकाने लगाई जा रहीं 

ओवन में ठूँसी जा रही हैं 
सड़कों पर घसीटी जा रही हैं 
घरों में कूची जा रही हैं 
डॉक्टर हों या कोमा में पड़ी मरीज 
6 महीने की नवजात हो 
या 70 बरस की दादी 
वे बस नोची जा रही हैं 

घर, सड़क, स्कूल, दफ़्तर   
हर जगह कई दर्जन निगाहें उनकी देह के 
हर हिस्से को खंगाल रहे हैं 

वे गर्भ में जिंदा बच जाने से लेकर 
जीवन के हर मोड़ पर 
शुक्रगुजार होना सीख रहीं 

शुक्रगुजार कि वे अब तक जिंदा हैं 
तो क्या हुआ कि उनके सपने मार दिये गए 

वे हर पल ठगी जा रही हैं 
फिर भी वे न प्यार करना छोड़ पा रही 
न भरोसा करना 

और एक आप हैं...?

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मरने से पहले 

मरने से पहले स्त्री के ज़ेहन में 
घूमता है पति का ख़्याल 
बच्चों की फिक्र 
घर के काम 
कुछ हिसाब जो अधूरे रह गए 
कुछ बिल जो पेंडिंग रहे 
कुछ वादे जो पूरे न हो सके 
कुछ पल जो कभी जी न सके 

मरने से पहले स्त्री सबको माफ करती है 
वो अपनी मौत का जिम्मेदार खुद को चुनती है
और पति के उज्ज्वल भविष्य की कामना करती है।  

मरने से पहले पुरुष को 
याद आते हैं पत्नी के सारे ऐब 
वो अपनी मौत से लेना चाहता है 
प्रतिशोध 
उसके ज़ेहन में नहीं आता 
बच्चे का ख़्याल 
न माँ-बाप की चिंता 
न घर के काम 
उसके ज़ेहन में आता है सिर्फ प्रतिशोध 
वो अपनी मौत को शस्त्र की तरह 
उपयोग में लाता है 
और गुहार लगता है पत्नी के लिए
कड़ी से कड़ी सजा की 

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Sunday, July 20, 2025

उनकी दुनिया में हम नहीं थे...


मन का उदास पंछी अपने ही डैने कुतरने लगा था। दिन बुझते ही नहीं थे। रात सुलगती ही रहती थी। हथेलियाँ खोलो तो झप्प से कोई नाउम्मीदी झरे जैसे। ऐसे ही उमस भरे दिनों में जब बदलियाँ आँखों में अटकी हुई थीं दूर बहुत दूर से बादलों ने आवाज़ दी। बादलों की आवारगी हमेशा लुभाती रही है। आवाज़ को मुट्ठियों में बंद कर लिया। पलकें मूँदीं तो भीतर के झरने को रिहाई मिल गई जैसे।

बहते झरने से पूछा, 'क्या कहते हो चलें क्या बादलों के देस' झरने की गति और तेज हो गई। गालों पर गड्ढे उतर आए। सुलगती रातों और न बुझे दिनों को सरकाकर किनारे किया। कुछ ही दिनों में बैक पैक के साथ मैं एयरपोर्ट पर थी। ख़्वाबिदा सी पाजेब अचानक विद्रोही मन में बदल गई। बोर्डिंग पास हाथ में हो तो दुनिया बदलने लगती है।

एयरपोर्ट से हम निकले पनशेट के लिए। शहर के ट्रैफिक को चकमा देते हुए हम जल्द ही शहर के बाहर खूबसूरत रास्तों की ओर निकल पड़े थे। न कोई ऐसा शहर है पुणे कि इसके बारे में कोई पढ़ना चाहे। सब जानते हैं इसे तो। लेकिन मेरे लिए यह यात्रा खास थी। किसी ने कहा था पुणे को इसके भरपूर रंग में देखना हो तो बारिशों में आओ। और मैं बारिशों में ही पहुंची। हमारा पहला पड़ाव था खड़गवासला डैम। नज़र की आखिरी हद तक पानी ही पानी। बादल भी बारिशें लेकर एयरपोर्ट से ही साथ थे। और मन तो था ही पानी पानी। तो पानी की दीवानी मस्त मगन हो चुकी थी। वड़ा पाव का स्वाद, गुड़वाली चाय और पानी के ये खेल...समझ आ गया था यह 5 दिन की यात्रा सुंदर होने वाली है।

खड़गवासला डैम के बारे में शायद कोर्स की किताबों में पढ़ा था कभी। क्या पढ़ा था यह याद नहीं, खड़गवासला नाम याद है। ऐसे न जाने कितने नाम हैं। चिकमंगलूर, कड़कड़डूमा, विशाखापट्टनम और भी बहुत से। ये नाम क्यों याद हैं इसका कोई पता नहीं। बहरहाल, खड़गवासला डैम से मेरी यह पहली मुलाक़ात थी। बारिश की बूंदों ने झालर तान दी थी। ठंडी हवा में पंक्षियों की उदुक फुदक जैसे कोई सुर लगाने की कोशिश कर रही थी। किनारों पर प्यार के जोड़े सिकुड़े, सिमटे हुए बैठे थे। जैसे कबूतर आँखें बंद कर लेता है वैसे ही। उनकी दुनिया में हम नहीं थे, हमारी दुनिया यक़ीनन उनके होने से रोशन थी।

पानी से पानी का मिलना कितना सुंदर होता है। मैं अपनी सजल आँखों के साथ दूर तक फैले पानी के विस्तार पर बरसती बूंदों को गिरते देख रही थी। सारी उथल पुथल ठहर गयी थी। सब शांत। हवा ने मेरे बालों और गालों को सहलाया तो मैंने चौंक के देखा, मेरी चाय आ चुकी थी।

कुदरत के पास कितने सबक हैं, हम सीखते क्यों नहीं। कि किन मसायल में उलझे रहते हैं। जबकि मसला कोई है ही नहीं, प्रकृति के पास भरपूर प्यार है, खाना है, जीवन है। और हम हैं कि जिस ठीहे पर अच्छा लगे वहीं अपने नाम की तख़्ती लगाने की फिराक में सारे सुख स्वाहा करते फिरते हैं। सुख छूटते जाते हैं, जीवन छूटता जाता है।

भूगोल की कच्ची इस लड़की को धरती के हर कोने से प्यार है, हर जीव से, सम्पूर्ण प्रकृति से। कभी कभी लगता है कि जानने ने किस कदर क्षरित किया हमारे सुखों को। फिलहाल मैं चाय के स्वाद में डुबकियाँ लगा रही थी, भीतर एक मीठी रुलाई फूट पड़ने को व्याकुल थी, मैंने अपनी कोरों को चुपके से पोंछते हुए माया आंटी को याद किया, इस बार जगमोहन जी को भी जो कहते हैं, इतना भी क्या सजल होना, हर बात पर। और माया आंटी इस बात को यूं कहती हैं, 'बड़ी-बड़ी आँखों में हमेशा मोटे मोटे आँसू बस टपक पड़ने की राह ताकते रहते हों जैसे।'

उस लम्हे में इन दोनों की याद ने मुस्कुराहट बिखेर दी। लेकिन आँखें कब किसी की सुनती हैं...आगे जाना था सो इस सम्मोहन से छूटना लाज़िम था। दृश्य से जैसे तैसे हाथ छुड़ाया और निकल गए पनशेट की ओर...
जारी....

(पुणे प्रवास)

Thursday, July 17, 2025

तुम्हारी हथेलियों में जादू है क्या?

तुम्हारी हथेली में क्या कोई जादू है, 'लड़की ने लड़के की हथेली को खोलते हुए पूछा।'
लड़के ने हथेली खोली और हवा में उछाल दी। लड़की रूठ गई। लड़का मुस्कुरा दिया। उसने लड़की की पलकें मूँदीं और माथे पर आहिस्ता से चुंबन रखते हुए कहा, 'जादू मेरी हथेलियों में नहीं, तुम्हारे प्यार में है। देखना चाहोगी अपने प्यार का जादू?' लड़की के रूठने में तनिक लरज़ आई लेकिन उसने ठुनकते हुए ही कहा, 'नहीं मुझे कुछ नहीं देखना।' अच्छा? 'बारिश भी नहीं?' लड़के ने शरारत से पूछा।
 
इतनी धूप खिली है, बारिश कहाँ से लाएगा ये। बावला है एकदम। लड़की ने मन ही मन सोचा और मुस्कुराकर बोली, 'हाँ बारिश ले आओ तो मान जाऊँगी।'
 
लड़के ने धीरे से लड़की की पलकों पर रखी अपनी हथेलियों को हटाया। सामने एक बड़ी सी झील थी जिसके किनारे पर बादलों की गुटर-गूँ चल रही थी।

कुछ ही पलों में पूरा मौसम ही बदल चुका था। झील को छूकर आती ठंडी हवा लड़की के गालों से टकराते हुए लाड़ कर रही थी।

तुम तो सच में जादूगर हो...लड़की ने सारा रूठना बिसरा दिया और लड़के के सीने में धंस गयी। तभी गुटर गूँ करते बादलों में से कुछ बादल उठे, अंगड़ाई ली और निकल पड़े अपनी बूंदों की पोटली लिए। नन्ही फुहार समूची झील पर ऐसे झर रही थीं जैसे झरती है उम्मीद।


लड़का भीग रहा था, लड़की भीग रही थी....दूर कहीं पाखी अपनी उड़ान की तैयारी में थे...
(पुणे, पनशेट)

Tuesday, July 15, 2025

पुणे...दोस्त शहर


पुणे शहर की एक ख़ास बात है। यह शहर दोस्ती करने को अकुलाया हुआ सा लगता है। जैसे शहर के सीने में छुपकर मीठी मुलाक़ात की हसरत रहती हो। जैसे ढेर सारे लोगों से, अपनेपन से भरे हुए लोगों से घिरे होने के बावजूद कोई कोना एकांत का सुख तलाश हो, किसी एक निगाह का मुंतज़िर हो जो निगाह उसे ही ढूंढ रही हो।

देर रात बरसती रात में बेवजह सड़कों पर टहलते हुए मैंने शहर से गुलज़ार साहब के शब्द चुराकर पूछा, 'इतने लोग तो हैं, फिर तन्हा क्यों हो?' शहर चुप रहा। वो मेरे साथ हो लिया मानो बांह थामना चाहता हो। मानो कांधे पर सर रखकर थोड़ा रोना चाहता हो, मुस्कुराना चाहता हो। मैंने उसकी मासूम आँखों में अपनी आँखों को रख दिया। हम दोनों साथ चलने लगे। चलते-चलते उसने मेरा हाथ थाम लिया था। यूं हाथ थामकर चलना मुझे भी तो कितना ज्यादा पसंद है, सफ़र ख़ूबसूरत हो उठा था। बारिशें और तेज होती गईं...हम तब तक टहलते रहे जब तक नींद ने उठाकर हमें बिस्तर पर फेंक नहीं दिया।

सुबह उठी हूँ तो मुस्कुराहट खिली हुई है। अब इस शहर में मेरा एक पक्का दोस्त है। शहर ख़ुद। 'चाय पियोगे?' मैंने  शहर से पूछा। उसने हामी भरने के लिए बारिश की लौ तेज कर दी।

इस सुबह में मैं 3 कप चाय बना रही हूँ। मेरी, शहर की और अदिति की। अदिति, हाँ उससे ही तो मिलने आई हूँ। अदिति ख़ुशबू है, ऐसी ख़ुशबू जो सबको बांध लेती है। बरसों पहले इसी शहर में वो अपने प्रेम की मन्नत के बीज बो गई थी। वो बीज अब दरख़्त बन चुके हैं। हम सब उसके प्रेम के दरख़्त के नीचे बैठकर सुकून पाते हैं। हर टूटे बिखरे को, हर छूटते लम्हे को संभाल लेने का शऊर इस लड़की में बहुत है। खयाल का भी खयाल रखने की मानो कोई जिद है अदिति में। हिम्मत, मेहनत और प्यार से बनी यह प्यारी लड़की हमारे घर की लाइफलाइन है। इसलिए, मैं पुणे घूमने नहीं आई, रहने आई हूँ अदिति के पास। अब यहाँ भी एक घर है मेरा।

इस शहर के पास प्यार है, बारिशें हैं, हरियाली है, सुंदर मौसम है और अब अदिति भी है। इस सुबह में सुकून है, सुख है, प्यार है और ढेर सारी उम्मीद है...आख़िर इस दुनिया को प्यार ही तो संवार सकता है। सारे मसायल का हल प्यार के ही तो पास है।

चाय की ख़ुशबू रजनीगंधा के फूलों की ख़ुशबू से आँख मिचौली खेल रही है...बारिश यह खेल देखकर मुस्कुरा रही है। चलो न, चाय पीते हैं।

(पुणे डायरी)