Sunday, June 29, 2025

एवरेस्ट गर्ल मेघा परमार: ज़िद का जादू

कोई दिन, कोई लम्हा ज़िन्दगी का हासिल होता है। यूं महसूस होता है कि शायद इसी लम्हे की तो तलाश थी। कल ऐसा ही एक लम्हा हासिल हुआ। एवरेस्ट गर्ल मेघा परमार से मिलने का, उसे सुनने का, उसे गले लगाने का लम्हा। दैनिक जागरण के संवादी में शिरकत करने आयीं मेघा ने हम सब देहरादून वालों को खूब रुलाया। भीतर उनकी एवरेस्ट यात्रा के अनुभव सुनकर सभागार में बैठे हर व्यक्ति आँखें बेतरह बरस रही थीं। बाहर बरस रही थीं देहरादून की बारिशें। 

ओह, क्या लड़की है मेघा। कोई इतना साहसी भी हो सकता है। ज़िंदगी, जिजीविषा, चुनौतियाँ का सामना करने की  ललक, सपने देखने की हिम्मत और उन्हें पूरा करने की ज़िद से मिलकर बनती है ये एवरेस्ट गर्ल। मेघा, तुम्हारी उपलब्धि एवरेस्ट तक पहुंचना तो है ही लेकिन वहाँ से लौटने की जो यात्रा है उसे लेकर तुम्हारी जो समझ है, हर एक सांस की जो कीमत तुमने हमें बताई, तुमने बताया कि जब सब साथ छोड़ दें, यहाँ तक कि हिम्मत भी टूटने लगे तब भी कोई उम्मीद बची रहती है। 

तुम जब स्टेज से उतरी तुम्हें लोगों ने घेर लिया, तसवीरों का सैलाब, सेल्फ़ी लेने वालों की भीड़ के बीच मुझे तुम्हारी सांसों को छूना था।मैंने तुम्हारी आँखों में देखा और गले लगा लिया। देर तक लगाए रही। तुम्हें चूमती रही। नहीं, कोई तस्वीर नहीं ली बस तुम्हें छू रही थी। वो सांसों की छुअन, वो स्पर्श अपने साथ लेकर लौटी हूँ, मन की तिजोरी में संभाल कर रख रही हूँ। जब भी हिम्मत टूटेगी मैं तुम्हारी सांस की आंच से अपनी टूट रही हिम्मत की मरम्मत कर लूँगी। 

तुम्हारी किताबें सारी बिक चुकी थी, तुम लगातार सबको साइन करके दे रही थीं। मैं तुम्हारी किताब मंगवाउंगी और तुम्हारे साइन लेने तुमसे मिलने तुम्हारे पास आऊँगी। देखो न, यह सब लिखते हुए भी कैसे बारिश हो रही है बाहर भी, भीतर भी। बहुत प्यार तुम्हें मेघा, दुनिया भर की उन स्त्रियों की ओर से जो सपने देखने से अब भी बहुत घबराती हैं...मिलते हैं।    

Friday, June 13, 2025

कुछ सवाल, कुछ बेचैनियों का संसार है ‘कबिरा सोई पीर है’



'कबिरा सोई पीर है' उपन्यास पर जगमोहन सिंह कठैत जी ने आत्मीय और मौजूं टिप्पणी लिखी है। जगमोहन जी लंबे समय से सामाजिक मुद्दों पर गहराई से काम कर रहे हैं। वर्तमान में अज़ीम प्रेमजी फ़ाउण्डेशन में कार्यरत हैं और मुख्य रूप से संवैधानिक मूल्यों को युवाओं के माध्यम से जन जन तक कैसे पहुंचाया जाय, किस तरह जीवन में उतारा जाय ताकि एक ऐसे समाज की संरचना हो सके हो जिसका ख़्वाब संविधान के पैरोकारों ने देखा था इस कार्य की केंद्रीय भूमिका में हैं । इस उपन्यास पर उनकी समृद्ध दृष्टि और विचार अतिरिक्त महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि यह उपन्यास इसी राह में हिचकोले खाते किरदारों की कथा है। प्रतिभा की दुनिया की तरफ से जगमोहन जी का आभार। 

- जगमोहन सिंह कठैत
“कबिरा सोई पीर है” को पढ़कर पूरा किये काफी दिन हो गए हैं लेकिन यह किताब दिमाग से उतर नहीं रही है। तो इसके बारे में लिखना जरूरी लगा। शुरू में ही इस बात को स्पष्ट करना जरूरी लग रहा है कि यह किताब कबीर के बारे में नहीं है ताकि मेरी तरह कोई दूसरे पाठक भी पुस्तक के शीर्षक ये अपेक्षा न लगा लें कि पुस्तक कबीर के बारे में है। यह प्रतिभा कटियार का उपन्यास है। ऐसा उपन्यास जिसे एक बैठकी में पूरा पढ़ा तो जा सकता है लेकिन उपन्यास में आए पात्र, घटनाएँ दिमाग में चलते रहते हैं।

यह उपन्यास किस बारे में है इसके लिए तो उपन्यास पढ़ना होगा फिर भी इसे पढ़ने के दौरान और पढ़ने के बाद जो प्रतिबिम्ब दिलोदिमाग पर बने उन्हें दर्ज करना जरूरी लग रहा है। कुछ हिस्से ऐसे थे जिन्होंने शांति को तोड़ा। कुछ जगह पात्रों की पीड़ाओं को महसूसने के बाद दिल बैठ गया तो कुछ पात्रों ने विपरीत परिस्थितियों मे भी न्यायोचित समाज के आस बँधाये रखी।

उपन्यास जाति से उपजे भेदभावों की पीड़ा को बखूबी उभारता है। न केवल जाति बल्कि जाति में भी महिलाओं की पीड़ाओं को और उनकी मनोदशाओं को किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के दिल के तारों मे झंकार पैदा करता है। एक तरफ वंचित तबके को मिलने वाली सुविधाएं और आरक्षण का उजला एहसास करवाता है तो दूसरी तरफ सफलता चाहे अपनी ही काबलियत से मिली हो लेकिन दलित और वंचित होने के तमगे से निकलने वाले ताने-बाने इतने निर्दयी होते हैं कि उनके घाव ऐसे रिसते हैं कि एक बार को इंसान होने पर ही शक होने लगे।

उपन्यास में यह बात बहुत खूबसूरती से उभरी है कि सत्ता में जो व्यक्ति होते हैं, ये सत्ता चाहे किसी पद की, जाति की, जेंडर या वर्ग किसी भी प्रकार की हो वो आसानी से अपने से नीचे ग्रुप/तबके की प्रगति को अपने से आगे होने की स्थिति को पचा नहीं पाते। यह बात अनुभव और तृप्ति के संवाद मे साफ तरीके से उभर कर आती है जब तृप्ति (दलित लड़की) प्रशासनिक सेवा की मुख्य परीक्षा तो पास कर लेती है लेकिन अनुभव नहीं कर पाता है। परीक्षा की तैयारी दोनों साथ ही करते हैं और लोगों का अनुमान था कि अनुभव तो पास कर ही लेगा लेकिन परिणाम ऐसे नहीं आए। लोगों को लगता है कि तृप्ति दलित होने के कारण परीक्षा पास कर पायी। एक लड़की की प्रगति एक संवेदनशील लड़का जो कि घनिष्ठ दोस्त है कैसे देखता है और क्या महसूस करता है, अनुभव के मन की उथल-पुथल से हम सहज महसूस कर सकते है। 'मैं खुद के भीतर चल रही इस उलझन को समझ नहीं पा रहा हूँ तृप्ति। मुझे लगता था मैं काफी लिबरल हूँ, लेकिन इस एक घटना ने मेरी अब तक अपने बारे में बनाई गई राय को खंडित कर दिया। मुझे महसूस हुआ कि मेरे भीतर काफी पाखंड भरा है, लिबरल होने का पाखंड। मैं आम आदमी ही हूँ, आम पुरुष, बल्कि उनसे भी बुरा। क्योंकि मैंने अपने भीतर लिबरल होने का झूठ पाल रखा है।‘’ अपने मन के भावों को पढ़ पाने के लिए भी तो इंसान को संवेदनशील ही होना पड़ता है नहीं तो ये भाव भी कब लोग पढ़ पाते हैं। लेखिका ने इस भाव को बखूबी उभरा है। और यह वाक्य कि 'देख, है तो वो आदमी ही न और ऊपर से सवर्ण। जाते-जाते जाएगा जो भीतर भरा हुआ ईगो है सुपीरियटी का। यही सब तो दिख नहीं पाता सामान्य दिनों में’ भी एक समझदार व्यक्ति ही महसूस ही समझ सकता है उस व्यक्ति के बारे में जो बदलाव की ईमानदार कोशिश कर रहा है नहीं तो किसी की ईमानदार कोशिश भी धुल सकती है। यह बात तो कोई संवेदनशील लेखक ही उभार कर ला सकता है। एक बात और लेखिका यह लिखकर ‘इंसान का व्यक्तित्व उसके मज़ाक में सबसे ज्यादा खुलता है’ ने मुझे मेरे मज़ाक के अंदाज़ के प्रति मुझे सजग और संवेदनशील कर दिया। कई बार लगा कि बहुत सारे पात्र मेरे आसपास और मेरे घर में ही उपलब्ध हैं।

ईमानदारी एक बड़ा मूल्य है। अकसर तो लोग रुपये पैसे के लेन-देन की ईमानदारी को ही ईमानदारी मानते है लेकिन जो थोड़े समझदार लोग होते हैं वे पॉलिटिकल करेक्टनेस के साथ आचार-व्यवहार को ही ईमानदारी मान लेते हैं। सही मायने में तो ईमानदारी दिल की ईमानदारी होती है और वो भी अपने साथ। अपने विचारों को देख पाने की कि मेरा दिल क्या कह रहा है और दिमाग क्या कह रहा है और अंततः दिल की आवाज़ के साथ का रास्ता चुन लेते हैं। यदि कभी व्यावहारिक रूप से दिल की आवाज़ का रास्ता नहीं भी चुन पाते हैं तो वे दिल और दिमाग की इस बात के प्रति सजग और सवेदनशील होते हैं। इस ईमानदारी की ख़ुशबू आप इस उपन्यास में विभिन्न पात्रों के जरिए महसूस कर पाएंगे।



ऐसा नहीं है कि ये मूल्य लेखिका ने केवल अपनी बौद्धिक कौशलता से पिरो दिये हों बल्कि जो लेखिका को जानते हैं वे उनकी इस संवेदनशीलता की समृद्धि को समझ सकते हैं, महसूस कर सकते हैं। ऐसा नहीं होता है कि लेखन में लेखक के मजबूत पक्ष ही दिखते हैं और ये संभव भी कैसे हो सकता है, ईमानदार लेखन में तो लेखक का पूरा व्यक्तित्व उघड़ आता है। यहाँ भी आप जब उपन्यास से गुजरेंगे तो बहुत जगह पाएंगे कि लेखिका ने बहुत बार पात्रों के नेत्रों को ‘सजल’ किया है। कई जगह ऐसा भी लगता है कि नेत्रों की सजलता या आँखों से दो बूंदों का लुढ़कना कुछ ज्यादा तो नहीं हो गया। इस शब्द की आधिक्यता कभी पात्रों की कमजोरी की तरफ इशारा करती है तो कुछ जगह पठन के वेग को भी हिचकोले लगा देते हैं लेकिन अंततः पढ़ने में आनंद की अनुभूति ही देती है।

अंत में मैं यही कहना चाहूँगा कि जो भी साथी विचार के साथ नहीं भाव के साथ यात्रा करना चाहते हैं, जो साथी दिमाग नहीं दिल की आवाज़ के सहयात्री बनने की यात्रा में हैं यह उपन्यास उन्हें निखारने और सँवारने की यात्रा में सहयोगी रूप में काम करेगी।

(यह टिप्पणी आज जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित हुई है। सुभाष राय जी का शुक्रिया। )

Monday, June 9, 2025

विकल्प क्या है सिवाय नई उम्मीद उगाने के


‘व्हेन लाइफ़ गिव्स यू टैंजरीन्स’ (कोरियन ड्रामा)

देर से प्यास लगी थी। नहीं जानती ये प्यास कितनी पुरानी थी। लेकिन रोम-रोम प्यास से पीड़ित था हालांकि होंठ हमेशा मुस्कुराते रहते थे। सूखे होंठों वाली खुरदुरी मुस्कुराहट। बीते शनिवार, इतवार इस प्यास पर एक झरना फूट पड़ा। उस झरने का नाम था, ‘‘व्हेन लाइफ़ गिव्स यू टैंजरीन्स’’।

16 एपिसोड वाली इस कोरियन सीरीज़ में ज़िंदगी के वो तमाम फलसफे हैं जिन्हें हम किताबों में नहीं हर रोज का जीवन जीते हुए समझते हैं। हर वो चोट जब हम लड़खड़ाकर गिरते हैं, और वो चोट भी जिसे जानबूझकर दुनियादार लोग हमारे हवाले करते हैं। दर्द कितना ही गहरा हो, चोट कितनी भी बड़ी हो, जीवन का क्या विकल्प है सिवाय जीने के। उम्मीद टूटने पर हम क्या कर सकते हैं सिवाय एक नई उम्मीद उगाने के।

जो लोग ज़्यादा समझदार होते, उन्हें दर्द कम होता है या वो ज़्यादा मजबूत होते हैं ऐसा समझना ठीक नहीं है। असल में विकल्पहीनता उन्हें इसके सिवा कुछ होने ही नहीं देती। हालांकि चाहते वो भी हैं कि एक जरा सी खरोंच पर कोई थाम ले, कोई पैरों के छाले देखे और उसकी आँखें भर आयें, कोई दुख के आवेग में जब कुछ न सूझे तो गले लगकर रो पड़े, सर पर हाथ फिरा दे, बिना कुछ कहे आँखों में उतार दे ‘मैं हूँ, हमेशा रहूँगा/रहूँगी’ की आश्वस्ति।

ये दुनिया जीने लायक तभी बनेगी जब हमारे सुख और दुख साझे होंगे। जब कोई बिना किसी जताहट के चुपके से हमारी बरनी में चावल रख जाएगा, हम चौंक कर देखेंगे कि हमारे बहते आंसुओं को कौन पोंछ गया। ये कौन है जिसे हमारे दुख में हमसे ज़्यादा दुख होता है, और हमारे सुख में हमसे ज़्यादा ख़ुश।

चार मौसमों का खेल है जीवन। लेकिन इन चारों मौसमों में साथ निभाने का हुनर हमें सीखना है। हमें सीखना है मनुष्य होना, और मनुष्य होना, और मनुष्य होना। हमें सीखना है किसी की ख़्वाहिशों को पलकों में समेट लेना और उन्हें हक़ीकत का मोती बनाकर उसके माथे पर सजा देना।
  


कभी-कभी लगता है यह प्रेमिल मुस्कान जो 16 एपिसोड तक हर मौसमों के रंग देखते हुए पीढ़ियों में ट्रांसफर होती रहती है वह कोई यूटोपिया है। लेकिन अगले ही पल सर्वेश्वर की वह पंक्ति मुसकुराती है कि ‘सामर्थ्य सिर्फ इच्छा का दूसरा नाम है’।

मैं इस कहानी के बारे में नहीं लिख रही, लिखना चाहती भी नहीं, शायद लिख पाऊँगी भी नहीं। मैं उस असर को उतारकर रख रही हूँ जो लगातार पलकों के भीतर डब-डब कर रहा है। कल शाम एक दोस्त से मैंने कहा, ‘कितनी अच्छी बारिश हो रही है न 2 दिन से’ उसने हैरत से पूछा कहाँ? मैंने यहीं। उसने कहा बाहर तो धूप ही खिली रही दिन भर, रात भी कोई बारिश न थी। मैं हंस दी, चुप रही। असल में बारिश मेरे भीतर हो रही थी। उस बेचारे को नाहक परेशान किया।

माँ के लिए कविता लिखती, बेटी के लिए हर किसी से लड़ जाने वाली, टेबल सजाना नहीं, टेबल पलट देने की ताकीद देने वाली माँ, कभी साथ न छोड़ने वाले प्रेमी, प्रेमियों का साथ देने वाली गाँव की स्त्रियॉं, पहले परेशान करने वाली फिर भर अँकवार गले लगाने वाली सास, चुपके से मदद करने वाली सौतेली माँ, अपनी तमाम पूंजी को आँचल के कोने से छुड़ाकर बच्चों के साथ खड़ी दादी, चावल की बरनी भरते रहने वाले और ऊपर ऊपर गुस्सा दिखाते बुजुर्ग दम्पति, बच्चे, बच्चों के प्रेम और सामने से जीवन की मुश्किलों, गरीबी आदि के लिए माँ-बाप से नाराज़ होते बच्चों का अपने माँ-बाप के लिए कुछ भी कर जाने की इच्छा का एक ऐसा मीठा झरना है कि आप भर अंजुरी अपनी प्यास बुझा लीजिये। 

ज़ेहन से दृश्य उतरते ही नहीं। जैसे कोई लंबी कविता हिचकियों में ढल गई है। ए-सुन और ग्वान सुक की इस कहानी का सार सिर्फ इतना सा है कि जब ये दोनों एक अनजान स्त्री की मदद करते हैं कि उसका सामान चोरी न हो जाए और वो पूछती है, तुमने हमारी मदद की क्यों की, तुम तो मुझे जानते भी नहीं’ और ये मासूम जोड़ा पलकें झपकाकर कहता है, ‘हमें अच्छा लगता है’। इस अच्छा करने को सांस लेने की तरह कर पाना कहाँ सीख पाये हम कि जो सांस हम ले चुके उसे क्या याद रख पाते हैं, फिर किसी के काम आने का एहसास क्यों उठाए फिरते हैं।

ए-सुन और ग्वान-सुक एक दूसरे पर भरोसे की ऐसी सिंफनी है जो एक-दूसरे को हर हाल में जिलाए रहती है, उम्मीद बनाए रखती है। सपने देखते समय सिर्फ भरपूर सपने देखो । उन सपनों को कुदरत के हवाले कर दो। क्या पता कौन सा सपना हक़ीक़त बन लौट आए और मिल जाए एक पुरानी पगडंडी, कोई बिछड़ी हुई कविता या ए-सुन टीचर की जेब को प्यार से भर देती नरम हथेलियाँ।

ग्वान सुक का यह कहना, ‘इतने सुंदर चेरी के फूल खिले हैं, तुम इन्हें देखती क्यों नहीं, मेरे पैरों को ही देखती हो। और ए-सुन कहती है, ‘तुम्हारे पैर इसलिए देखती हूँ कि कहीं तुम गिर न जाओ’।

तो रुक जाओ और देखो इस दृश्य को...आइये तनिक रुक जाते हैं और हिंसा, प्रतिशोध, अहंकार, प्रतियोगिता से ब्रेक लेते हैं। थोड़ा जी लेते हैं...जीवन।

(सीरीज नेटफ्लिक्स पर है)