Sunday, October 10, 2021

मेरी आत्मा मुरझाती जा रही है- मारीना


- प्रतिभा कटियार

अपना देश छोड़ने के बाद मारीना घने अकेलेपन में घिरने लगी थी. उसके आसपास जिस तरह के हालत और लोग थे, उसे लगता था कि उसके लिखे को समझ पाने वाला कोई नहीं. वह अपनी नोटबुक और शब्दों के साथ लगातार गहरे एकांत में उतरती जा रही थी. कलम और नोटबुक उसके इकलौते संवाद के साथी रह गए थे. इन दिनों के बारे में उसकी बेटी आल्या यानी अरिदाना ने 1969 में अपने एक संस्मरण में लिखा, ‘मारीना ऐसे लोगों में से थी, जो लोगों से मिलने-जुलने, कहने-सुनने में, साझेदारी में यक़ीन करती थी. लेकिन यहाँ पेरिस में यह संभव होता नहीं दिख रहा था. मारीना को कोई अगर एक आवाज़ दे तो वह चलकर नहीं, भागकर वह पहुँचने वालों में से थी.’

शायद मारीना की उदासी की यही वजह रही होगी कि उसके आसपास लोग ही नहीं थे, उस माहौल में उस देश में मारीना के लेखन को संभवतः काफी लोग समझ नहीं पा रहे थे. इसी वजह से उसके लिखे की आलोचना भी खूब हो रही थी, लेकिन कुछ लोग थे जो उसे अपना दोस्त मानते थे, उसके लेखन को पसंद को पसंद करते थे और उसकी यथासंभव मदद भी करते थे.

इसी दौरान मारीना की दोस्ती येलेना अलेक्सेंद्रोवना से हुई. वह रूस के पूर्व विदेश मंत्री की बेटी थी. वह अनुवाद करके इन दिनों पैसे कमा रही थी. उसने मारीना को इसके पहले सिर्फ तस्वीरों में देखा था. उससे मिलने के बाद ही वे दोनों एक-दूसरे को पसंद करने लगीं.

वह मारीना के बारे में लिखती है-

‘मैं जिस मारीना से मिली वह मुझे कोई और ही लगी. मैंने, ’माइलस्टोन’ पढ़ते समय जिस मारीना की तस्वीर देखी थी, वह बेहद आकर्षक, गोल चेहरे वाली प्यारी सी मारीना थी, लेकिन जिससे मैं उस शाम मिली वह न तो खूबसूरत थी न ही आकर्षक. वह दुबली पतली, पीली पड़ी हुई निस्तेज सी स्त्री थी. उसे देखकर ऐसा लग रहा था मानो जीवन ने उसे बर्बाद किया है. उसका चेहरा मुरझाया हुआ था, उसके कटे हुए बाल बेजान से थे. उनमें सफेदी झलकने लगी थी. उसकी आँखों में कोई चमक नहीं थी. लेकिन फिर भी वह कुछ विशिष्टता को बरकरार रखे हुई थी. हमने उस शाम देखा कि वह एकदम मुरझाई हुई है. लेकिन बहुत जल्द उसने समय के मुताबिक खुद को बदला और शाम को होने वाली बातचीत में सक्रिय प्रतिभाग किया. वह लोगों से मिलने-जुलने की इच्छुक रहती थी. उनकी उपेक्षा नहीं करती थी. उसकी संवेदना हमेशा उसे लोगों से जोड़कर रखती थी. वह लोगों से जुड़कर रखने की हरसंभव कोशिश किया करती थी.

येलेना अपनी माँ के साथ मारीना के घर के पास ही रहती थी. मारीना उससे मिलने के लिए कभी-कभी उसके फ़्लैट में जाया करती थी. वो वहां उपस्थित लोगों की पसंद की मुताबिक कवितायेँ भी पढ़ा करती थी. येलेना मारीना के वहां आने और मारीना के घर जाने के बारे में लिखती हैं-

हम अक्सर मारीना के घर जाया करते थे. वहां, कविता, साहित्य, प्रकृति व कलाओं पर काफी बातचीत हुआ करती थी जिससे मारीना का उदास चेहरा खिल उठता था. मैं इस तरह की बुद्धिजीवी, तेज बुध्धि वाली सहज बातचीत करने वाली किसी शख्सियत से पहले कभी नहीं मिली थी. हम उसके घर जाते थे. वह हमें कभी चाय तो कभी वाइन पिलाया करती थी. हम कभी-कभी पास के सेंट जॉर्ज चर्च भी जाया करते थे. धर्म के बारे में मारीना के अलग विचार थे. लेकिन वह चर्च की गतिवधियों को बारीकी से देखा करती थी.

सबसे बड़ी दिक्कत मारीना के सामने यह थी कि उसे लिखने का वक़्त बिलकुल नहीं मिल रहा था. रात के खाने से पहले उसे घंटों घरेलू कार्यों को देने होते थे. पुत्र मूर की देखभाल करनी होती थी कभी-कभी दोस्त भी आ जाया करते थे. नतीजतन सब निपटाने के बाद उसका अपने विचारों से, लिखने की इच्छा से नाता टूट जाया करता था. उसने इसके बारे में तेस्कोवा को लिखा-

‘ऐसा लगता है कि सिर्फ मेरा दिमाग ही नहीं मेरी आत्मा भी लगातार मुरझाती जा रही है. कभी-कभी मैं इस तरह भी सोचती हूँ कि भावनाओं के लिए समय की जरूरत होती है, विचारों के लिए नहीं. विचार किसी बिजली की तरह कौंधते हैं जबकि भावनाएं उस रौशनी के नन्हे धागों से जुड़ी होती हैं जैसे दूर किसी तारे की रौशनी से...महसूस करने के लिए वक्त चाहिए...आप भय के, तनाव के साये में महसूस नहीं कर सकते. एक छोटा सा उदाहरण देती हूँ, मेरे सामने फर्श पर ढेर सारी मछलियाँ पड़ी हैं मैं इसके बारे में सोच तो सकती हूँ लेकिन महसूस नहीं कर सकती. मछलियों से आने वाली महक महसूस करने से रोकती है. यानि भावनाओं को विचारों से ज्यादा वक़्त चाहिए. या तो सब कुछ या कुछ नहीं. मैं इन दिनों अपनी भावनाओं को समय नहीं दे पा रही हूँ. अपने महसूस करने को. मैं हर वक़्त लोगों से घिरी रहती हूँ. सुबह के 7 बजे से रात 10 बजे तक मैं घरेलू कार्यों और लोगों से मिलने-जुलने में उलझी रहती हूँ. बेहद थक जाती हूँ. फिर महसूस करने को कुछ नहीं बचता. महसूस करने के लिए वक़्त भी चाहिए और ऊर्जा भी.’

ये हालात, ये द्वंद्व उसकी कविता ‘माइलस्टोन’ में भी दिखते हैं. इन हालात के बारे में उसने लिखा-

‘मैंने जीवन से बहुत कम अपेक्षाएं रखी थीं फिर भी उसने मुझे भयंकर कष्ट दिए. यहाँ पेरिस में लोगों ने उपेक्षित किया, मुझसे नफरत की. वे लोग मेरे लिखे का कुछ भी अर्थ निकालकर उस पर अनाप-शनाप बकवास लिखा करते हैं. उनकी घृणा ने मुझे वहां के सामान्य जीवन से अलग कर दिया है. अख़बार अपने हिसाब से अपनी कहानियां लिख रहे हैं.’

इसके अलावा उसने आगे लिखा-

‘क्या आपने सुना है यूरेशियन द्वारा तंग की जाने वाली घटनाओं के बारे में. संक्षिप्त जानकारी है कि यूरेशियन्स को बोल्शेविकों द्वारा समन भेजे जा रहे हैं. जाहिर है, इस बात के कोई प्रमाण नहीं मिलेंगे वह जो लेखक हैं और प्रवासी हैं वे इसे समझ सकते हैं. मैं इन सबसे बाहर हूँ लेकिन मेरी राजनैतिक शिथिलता पर भी असर पड़ रहा है. यह बिलकुल उसी तरह है जैसे मुझे भी बोलेशेविक समन मिल रहे हैं. सेर्गेई भी इस सबसे काफी परेशान है. वह सुबह 5 बजे से रात 8 बजे तक एक स्टूडियो में काम करता है, जिसके बदले उसे दिन के 40 फ्रेंक मिलते हैं. जिनमें से 5 फ्रेंक आने-जाने के किराये में खर्च हो जाते हैं. 7 फ्रेंक लंच में. सिर्फ 28 फ्रेंक ही बच पाते हैं.’

इस समय मारीना के परिवार में कोई सहयोग राशि नहीं आ रही थी. येलेना उनकी हालत के बारे में बताती हैं-

‘हम अपनी आँखों के सामने मारीना को लगातार गरीबी की ओर जाते, जूझते देख रहे थे... आह...मारीना...वह अपनी क्षमताओं से ज्यादा काम कर रही थी फिर भी कभी-कभी उन्हें भूखा रहने की भी नौबत आ जाती थी. पेरिस में रह रहे रूसी लोगों ने उसके जीवन की आपदाओं को महसूस किया. क्योंकि कविताओं और नाटकों को लिखकर जीवन के निर्वाह के लिए पैसे कमा पाना कितना मुश्किल है यह किसी से छिपा भी नहीं था, लेकिन वह इसके अलावा और कुछ कर भी नहीं सकती थी. ‘अ सोसायटी टू हेल्प फॉर मारीना त्स्वेतायेवा’ का गठन हुआ. जिसके जरिये मारीना के घर के किराये और राशन का इंतजाम किया जाने लगा. रूस से निर्वासितों को देखते हुए समझा जा सकता था कि वाकई में गरीबी होती क्या चीज़ है. मेयुडिन में पड़ोसियों ने मारीना की मुश्किलों को बांटने की कोशिश की. हम उसे यथसंभव मदद करते, लेकिन उसने हम सबको जो दिया उसके मुकाबले वह मदद कुछ भी नहीं...सचमुच कुछ भी नहीं.’

सितम्बर, 1927 में मारीना के घर मेहमान आ गए. ये मेहमान और कोई नहीं उसकी बहन अनस्तासिया थी, जो इटली से आई थी. इस समय वह मास्को के उसी फाइन आर्ट्स के संग्रहालय में काम कर रही थी, जो उसके पिता ने स्थापित किया था. वो मैक्सिम गोर्की पर एक किताब लिखने की योजना में थी. इस बारे में उसने गोर्की को लिखा भी. गोर्की ने उसे और मारीना को महीने भर के लिए इटली आमंत्रित किया. उन्होंने लिखा कि दोनों बहनें चाहें तो उनके घर आकर उनसे मिलें और कुछ दिन साथ रहें. अनस्तासिया ने इटली जाने की बजाय अपनी बहन मारीना के पास पेरिस आने का चुनाव किया.

उसने अपने पेरिस निवास के बारे में लिखा-

‘आल्या और मूर से लम्बे समय बाद मिलकर बहुत ख़ुशी हुई. उनका फ़्लैट भी काफी अच्छा था, लेकिन ऐसा लगा कि मारीना थक चुकी है और शिथिल पड़ने लगी है. उस पर उम्र का असर भी दिखने लगा है. उसने महसूस किया कि मारीना अपने बेटे मूर की परवरिश, आल्या की परवरिश से अलग कर रही है. इस बार परवरिश में वह ज्यादा संवेदनशील दिखी. मारीना की ऊर्जा मास्को से आने वाली खबरों के चलते लगातार कम हो रही थी.

एक शाम जब मारीना अपने छोटे से दीवान पर लेटी थी, जहाँ वह अक्सर लिखने-पढ़ने का काम भी किया करती थी और कभी-कभी सो भी जाया करती थी उसने आँखों में आंसू भरकर सिगरेट पीते हुए कहा, ‘क्या कोई समझ सकता है कि मैं इन हालत में कैसे लिख पाती हूँ. जब मुझे लिखने की इच्छा होती तब मुझे बाजार जाना होता है, अपने पास बचे हुए पैसों का हिसाब रखना होता है और बाज़ार में देखना होता है कि कैसे सस्ता खाना मिल जाए जो मेरे पास बचे हुए पैसों में आ सके. मैं अपने पर्स में हमेशा घर और घर से जुड़ी चिंताएं और काम लेकर चलती हूँ. इन सबके बाद मुझे घर की सफाई करनी पड़ती है, खाना बनाना होता है, आल्या और मूर का ख़यालरखना होता है, शारीरिक भी और भावनात्मक भी. जब यह सारे काम निपट जाते हैं तो मैं निढाल होकर इसी जगह लुढ़क जाती हूँ. देर रात...शरीर थका हुआ होता है और दिमाग खाली...एक शब्द भी लिख नहीं पाती. मैं अपनी पढ़ने की मेज़, अपने कमरे और लेखन के लिए थोड़े एकांत को तरस रही हूँ, और यह हर रोज का किस्सा हो चला है...’

प्यारी मेज़

तेरह बरस हो गए, हमें एक-दूसरे के साथ
हमारे प्यार और एक-दूसरे के प्रति वफादारी के
तेरह बरस
मुझे तुम्हारे एक-एक कण के बारे में पता है
और तुम्हें मेरे.
क्या हुआ कि तुम कोई लेखक नहीं हो
एक के बाद एक जिज्ञासाओं को तुमने संभाला है
बताया है कि आने वाला कल कुछ नहीं होता
जो होता है आज होता है, अभी होता है.
मेज़, जिसने सहेजे पाठकों के पत्र और पैसे
डाकिए की लाई चीज़ें
काम ख़त्म करने की समय सीमाएं
और रोज़ लिखी जाने वाली एक-एक पंक्ति
मुझे मिलने वाली ज़िंदगी की चुनौतियाँ
न मिलने वाला सम्मान
हो सकता है कल जब मेरे अतीत को खंगाला जाए
तो कहा जाए बेचारी बेवकूफ़ ग़रीब औरत...
(डेविड मैकडफ के अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित)
अनुवाद- प्रतिभा

उसने अपनी डायरी में लिखा -

‘मेरे पास वर्तमान में कोई ऐसी जगह नहीं थी, जहाँ मैं खुद को सुरक्षित महसूस कर सकूं...न ही भविष्य की मुठ्ठी में ऐसी कोई उम्मीद थी. इस इतनी बड़ी समूची दुनिया में मुझे मेरे लिए एक इंच जगह भी ऐसी नहीं नजर आती थी, जहाँ मैं अपनी आत्मा को निर्विघ्न, बिना किसी डर के उन्मुक्त छोड़ सकूं. मैं धरती के उस अंतिम टुकड़े पर हूँ जिस पर मैं इसलिए खड़ी हूँ, क्योंकि मेरे होने से वह ख़त्म नहीं हो सका है. मैं इस छोटे से टुकड़े पर अपनी पूरी ताकत से खड़ी हूँ.

मैं ख़ुद भी किसी दूसरे की दुनिया में दख़ल न देती. किसी तकनीकी दुनिया में जिसका मुझसे कोई जुड़ाव ही न हो. मैं अकेली आत्मा हूँ...जिसे सांस लेने तक के लिए हवा नहीं मिल पा रही. और पास्तरनाक भी कोई नहीं, आंद्रेई ब्येली भी कोई नहीं...हम हैं, लेकिन हम अंतिम हैं. सिर्फ यह पूरा युग ही मेरे ख़िलाफ़ नहीं, सिर्फ लोग ही मेरे ख़िलाफ़ नहीं हैं, मैं भी इनके ख़िलाफ़ हूँ.’

तेस्कोवा को एक पत्र में उसने लिखा-

‘मैं नींद में बकबक करती हूँ. मैं बीस वर्ष के नौजवानों को देखती हूँ और ख़ुद को देखती हूँ, लेकिन कोई मुझे नहीं देखता. मेरे बाल सफ़ेद होने लेगे हैं, मैं सचमुच बूढ़ी होने लगी हूँ. एक स्त्री अपने छोटे से बच्चे के साथ लगातार बूढ़ी होते हुए. पर हो सकता है कि वह वाकई में मुझे देख ही न पा रहे हों. यह बड़ा कड़वा अनुभव है कि आप लोगों के लिए उपस्थित होकर भी न जैसे ही हों. कोई आप पर ध्यान ही न दे रहा हो.’

वेरा बूनिना को एक पत्र में मारीना ने लिखा-

‘पिछले कुछ बरसों में मैंने बहुत कम कविताएँ लिखी हैं. अब मुझसे मेरी कविताएँ कोई नहीं मांगता, न ही उन्हें स्वीकार करता है. उन्होंने मुझे गद्य लिखने के लिए कहा है. जब फ्रीडम ऑफ रशिया’ हुआ करता था तो मैं निश्चिंत होकर किसी भी तरह की कविताएँ लिखा करती थी, क्योंकि मैं जानती थी कि वह मेरी कविताओं को जगह देंगे. उन्होंने मेरी लिखी हर चीज को जगह दी, इसके लिए मैं उनकी दिल से आभारी रहूंगी लेकिन ‘फ्रीडम ऑफ रशिया’ में जब से रोज़ोनोव आया और उसने लम्बी कविताओं पर एकदम से रोक लगा दी. उसने कहा कि उसे 12 पेजों के लिए 15 कवियों की जरूरत है.

मैं अपनी लंबी कविताओं को लेकर कहाँ जाऊं? मेरी कविता ’द स्वान’ भी लगभग बेकार गई, क्योंकि वह बहुत लम्बी थी. इन्हीं वजहों से और भी बहुत सी लम्बी कवितायेँ बेकार गयीं. इसी सबके चलते अब गद्य लेखन शुरू हो गया. ऐसा नहीं कि गद्य लिखना मुझसे पसंद नहीं है, मुझे पसंद है लेकिन सच तो यही है कि इस ओर मुझे धकेला गया है, और अब मैं गद्य लिखने के लिए अभिशप्त हूँ.

निःसंदेह कविताएँ मुझ तक खुद आती हैं. लेकिन यह भी सच है कि आप कविताओं को जबरन नहीं लिख सकते. हालाँकि इन दिनों मेरा थोड़ा सा भी खाली वक़्त गद्य लिखने में जाता है. कविताएँ छोटे-छोटे टुकड़ों में डायरी में उतरती रहती हैं. अब भी कभी 8 लाइन, कभी 4 लाइन, कभी 2 लाइन. कभी-कभी मैं उनका तेज़ प्रवाह भी अपने ऊपर महसूस करती हूँ लेकिन फिर मैं कुछ भी नहीं लिख पाती...बहुत सारे ब्लैंक्स दिमाग में आ जाते हैं...सब कुछ धुंधला-धुंधला सा होता है.’

(प्रजातंत्र अख़बार में आज 10 अक्टूबर 2021 को प्रकाशित)

3 comments:

Ravindra Singh Yadav said...

नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (11 -10-2021 ) को 'धान्य से भरपूर, खेतों में झुकी हैं डालियाँ' (चर्चा अंक 4211) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

#रवीन्द्र_सिंह_यादव

Manisha Goswami said...

बहुत ही उम्दा 😍💓
हमारे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है 🙏

Onkar said...

सुन्दर प्रस्तुति