आप कितना ही सफर तय कर लें जिन्दगी में लेकिन पहले कदम की याद पूरे सफर में तारी रहती है...जब भी किसी सफ़र की ओर कदम बढाती हूँ पहले कदम की याद जरूर आती है. पहली बार कोई निर्णय लिया था खुद से. सबकी इच्छा के विरुद्ध, किसी की परवाह किये बगैर. वो बड़े ऊबे से, घुटन भरे से दिन थे. पता नहीं था कि वजह क्या है लेकिन भीतर मानो कोई धुआं सा भरा था. कोई कुहासा जिसे बाहर आने की राह नहीं मिल रही. यूँ मालूम होता था कि सांस भी बड़ी मुश्किल से ली जा रही हो...उन दिनों में ही मास कम्युनिकेशन के छात्रों को पढाना शुरू किया था. असल में वो उस घुटन उस कुहासे से निकलने का प्रयास था जो बहुत काम आया. पढ़ाया क्या ये तो पता नहीं लेकिन सीखा बहुत अपने छात्रों से.
2006 की बात है. कुछ छात्र हैदराबाद जा रहे थे, ईटीवी में इंटरव्यू देने. उन्होंने कहा, मैम आप भी चलिए न साथ. मेरे लिए इस तरह का कोई ऑफर ही बहुत अलग सा अनुभव था. अकेले इत्ती दूर बिना किसी वजह के, बिना किसी काम के. लेकिन अंदर से तीव्र इच्छा हुई कि चल ही दूं बस. उन दिनों बेरोजगार थी. या यूँ कहिये माँ होने की नौकरी चुनकर दूसरी नौकरी को छोड़कर बैठी थी तो छुट्टी वुट्टी लेने का कोई चक्कर नहीं था. लेकिन एक बहुत बड़ा विकराल प्रश्न था सामने कि घर में क्या कहूँगी, इज़ाजत कैसे मिलेगी. और जब इज़ाज़त नहीं मिलेगी तो पैसे कैसे मिलेंगे? खैर समस्याएँ भी थीं और एक सहमी सी इच्छा भी...
उन दिनों ज्योति बैंगलोर में थी और उसकी दीदी गुडिया दी (मेरी भी दीदी) हैदराबाद में थीं, बस यही सहारा बना कि ज्योति से मिलने जाना है. कुछ अनुवाद का काम किया था तो कुछ पैसे थे हाथ में...तो टिकट करा लिया गया. ट्रेन में स्लीपर में हैदराबाद...वहां से बैगलोर जाना था.
मुझे याद है उस वक़्त घर का कोई भी सदस्य खुश नहीं था. आधे रास्ते तक झंझावात घेरे रहे, सफ़र पूरा होता रहा....लेकिन भीतर कुछ भी शांत नहीं था. फोन पर ठीक से कोई बात नहीं करता था...जैसे हम किसी अपराध में लिप्त हों.
हम घूम रहे थे, हुसैन सागर के किनारे घंटों टहलते, मेरे छात्र बेटू को घुमाने ले जाते मस्ती करते, गुडिया दी जीजा जी भी हैदराबाद को झोली में भर देने को व्याकुल थे, पहली बार परिवार के बगैर एक अलग दुनिया में थी...लेकिन जिससे भागकर आई थी वो लगातार उंगलिया थामे रहा...हैदराबाद से तब भी बहुत प्यार मिला था. आत्मविश्वास मिला था.
लौटकर आई तो मेरे भीतर बहुत कुछ बदल चूका था. मैंने अब अकेले निकलना सीख लिया था. खुद टिकट बुक करना सीख लिया था. अब आर्थिक मजबूती और आत्मविश्वास को सहेजना था. यूँ तो ग्रेजुएशन के बाद से ही आमदनी शुरू हो चुकी थी पहले फ्री लांसिंग की फिर नौकरी की लेकिन वो आमदनी परिवार की साझा आमदनी थी इसलिए हर खर्च का जवाब देना होता था. अब नए सिरे से अपने लिए बिना जवाबदेही वाला कमाना था. हैदराबाद से लौटकर आई तो नए आत्मविश्वास से नए सिरे से नौकरी की तलाश शुरू की और जल्द ही दैनिक जागरण में नौकरी मिल गयी.
समय बदल चुका है. अब खूब घूमती हूँ, किसी भी वक्त कहीं भी आ जा सकती हूँ. आवारापन जिन्दगी का हिस्सा बना रखा है, बेटू समझदार है वो आवारा होने देती हैं, खुश होती है माँ को घूमते देखकर.
'क' से कविता हैदराबाद की पहली सालगिरह में शामिल होने को जब प्रवीन और मीनाक्षी ने आवाज दी तबसे वो पहली यात्रा की स्मृतियों की पोटली खुलने लगी...हैदराबाद मेरे लिए मुक्ति की पुकार का शहर है, आत्मविश्वास को सहेज देने वाला शहर है, गमों को फूंक मारकर उड़ा देने वाला शहर है. इस शहर के सीने से लगकर रोने का बहुत मन था. इस शहर को शुक्रिया बोलने का बहुत मन था, इस शहर से कहना था कि तुमने मुझे जिन्दगी की बागडोर थामना सिखाया है...ये शहर चुपके से सब ठीक कर देता है...'क' से कविता एक ख्वाब था उस ख्वाब को पंख लगाकर यूँ हैदाराबाद के आसमान पर उड़ते देखने का सुख आज बोनस है...
प्रवीन और मीनाक्षी शायद जानते भी नहीं कि उन्होंने मुझे क्या क्या दिया है और कितना समृद्ध किया है ठीक उसी तरह जिस तरह गुडिया दी, हरनीत, आशीष, प्रणय (जो अब इस दुनिया में नहीं है) विक्रांत, नवीन नहीं जानते कि उस वक़्त में उनका साथ कितना कीमती था...हाँ ज्योति सब जानती है.
उस बार (2006 में ) शहर ने मेरी नाउम्मीदीयों को किनारे लगाया था, इस बार आत्मविश्वास को परवान चढ़ाया है...हैदराबाद मेरी जिन्दगी में हमेशा ख़ास था और ख़ास रहेगा...इस शहर की अनुषा, सुदर्शन, सारिका, गजाला, शारदा, सलीम साहब,आचार्य नन्द किशोर, ऋषभ देव जी ये सब अब अपनों में शामिल लोग हैं...
हाँ हैदराबाद मेरा अपना शहर है...मेरा भी वहां एक घर है...
शुक्रिया हैदराबाद !