Friday, March 10, 2017

क्यों है एग्जाम का हौव्वा?



इम्तिहान...एग्जाम...परीक्षाएं...सर पर सवार हैं...किसके? विद्यार्थियों के तो नहीं. फिर किसके सर पर सवार हैं? माँ बाप के, टीचर्स के, स्कूलों के, नौकरी देने वालों के? किसके सर पर सवार हैं ये जबकि चिंता तो सबको है कि बच्चे परेशान न हों, समाज बेहतर बने, शिक्षा का मकसद सिर्फ रोजगार की ललक में इकठ्ठा की गयी डिग्री न हो. तो फिर झोल कहाँ हैं? क्यों हमारे बच्चे मार्च आते ही डरने लगते हैं और जून आते ही खुश हो जाते हैं... यह सवाल बराबर खाए जाता है. जैसे और दूसरे तमाम सवाल खाए जाते हैं.

मैं जिस तरह सोचती हूँ उस तरह जीने का प्रयास करते हुए उसे महसूस करने का प्रयास भी करती हूँ. उस महसूसने के आधार पर सोचने को बदला भी है कई बार. कि सोचने और बात करने और जीने के बीच अगर कोई डिस्कनेक्ट है तो कुछ तो गड़बड़ है. तो ऐसा ही मैंने परीक्षा शब्द के साथ करने की कोशिश की. मेरे भीतर जो डर, जो भय 'परीक्षा' शब्द को लेकर बोये जा चुके थे उनका मैं कुछ नहीं कर सकी लेकिन यह प्रयास ज़रुर किया कि यह डर किसी और को न दूं. मैंने अपनी बेटी को कभी भी इस शब्द के घेरे में फंसने नहीं दिया.

जब क्लास के सारे बच्चे, बच्चों के पैरेंट्स घबराये होते थे हैं और मेरी बेटी मजे से खेल रहे होते हैं. एग्जाम को मुंह चिढाना उसे आता है. कल पेपर है इसलिए खेलना और टीवी देखना कभी बंद नहीं हुआ. न ही सोने से पहले हमारा गप्प मारने का सिलसिला. मुझे याद नहीं मैंने कभी भी उसे कहा हो पढाई करने को. बस यह कहा कि 'मजा न आये तो मत पढना, और मजा आने में अगर कोई दिक्कत आये तो ज़रूर बताना.' यह सिलसिला जारी है.

लेकिन समाज घर में सीखे हुए को चुनौती देने को तैयार रहता है. आज वो आठवी क्लास का इम्तिहान देने गयी है वैसे ही जैसे रोज जाती है, न कोई टीका, न दही चीनी न स्पेशल वाला गुड लक कि दिन अच्छा बीते और खूब मजे करो स्कूल में इस कामना के साथ रोज भेजती हूँ आज भी भेजा. लेकिन सवाल इतना भर नहीं है.

अब कुछ सवाल उसके भी हैं. मैंने उसे एग्जाम से डरना नहीं सिखाया लेकिन समाज एग्जाम नाम का डंडा लेकर पीछे पड़ा हुआ है. एक हौव्वा बना है चारों तरफ. बच्चे परेशान हैं, टीचर्स डरा रहे हैं, नाइंथ में आओ तब पता चलेगा...एग्जाम अब उसके अपने क्लास में नहीं होते. अलग से बड़े हाल में होते हैं. साथ में बैठे दोस्त अनजाने चेहरे बन जाते हैं, एग्जाम के दौरान आसपास अपने जाने पहचाने टीचर्स की जगह अनजान खडूस चेहरे टहलते हैं.

मेरा उसे बचपन से यह समझाना कि 'एग्जाम कुछ नहीं होता यह भी रोज के जैसा एक दिन है जिसे एन्जाय करो' धराशाई होने लगता है. वो पूरी हिम्मत से, लगन से मेरी सीख को बचाने की कोशिश करती है लेकिन कभी कभी हारने लगती है. तब मुझसे लडती है, सवाल करती है, 'क्यों इतना इम्तिहान का हौव्वा बना रखा है सब लोगों ने. जो आपने हमें सिखाया है वही तो पूछना चाहते हैं न? कोई नया पूछने में तो दिलचस्पी है नहीं किसी की? तो पूछ लो न आराम से, इतना डराते क्यों हो?' पेपर में सब आता होता है फिर भी काफी देर तो इस 'खतरनाक' माहौल से एडजस्ट करने में लग जाता है. वो उदास हो जाती है. कहती है 'मम्मा मुझे एग्जाम से डर नहीं लगता लेकिन ये एग्क्साम टाइम स्कूल जाने में मजा नहीं आता. '

एक रोज उसने बताया उसके क्लास एक बच्चा एग्जाम हॉल में बेहोश हो गया. वो डर के मारे बेहोश हो गया था. बहुत सारे बच्चों के पेट में दर्द होने लगता है, चक्कर आना, उलझन, घबराहट होना सामान्य बात है. बेटी कहती है, मेरे सारे दोस्त इतने परेशान होते हैं एग्जाम टाइम में कि मुझे भी बुरा लगने लगता है. क्या एग्जाम शब्द का यह हौव्वा दूर नहीं कर सकते आप लोग? मेरी बोलती बंद हो जाती है.

मुझे उन पैरेट्स के चेहरे आते हैं जो बच्चों के कम नम्बर आने पर बुझ जाते हैं और बहुत अच्छे नम्बर लाने के लिए टीचर्स से कहते हैं 'आप मारिये इसे जितना चाहे लेकिन नम्बर कम नहीं आने चाहिये.' जिनके लिए बच्चे का रिपोर्ट कार्ड उनका स्टेट्स सिम्बल है. वो पैरेंट्स भी याद आते हैं जिन्हें बच्चों को स्कूल भेजने का मतलब अच्छे नम्बर से पास होकर ही पता है.

इस अच्छे नम्बर के संसार पर बहुत सवाल हैं? रिपोर्ट कार्ड में अच्छे नम्बर जमा करने के चक्कर में जिन्दगी के रिपोर्ट कार्ड से नम्बर लगातार कम किये जा रहे हैं...यह तो ठीक नहीं है न? हमारे बच्चे परेशान हैं उन्हें इस नम्बर रेस से मुक्त तो करो.

3 comments:

Anita said...

परीक्षा को हौवा बनाकर माता पिता बच्चों के साथ कितना बड़ा अन्याय कर रहे हैं, पर यह बात वे समझ नहीं पाते, सराहनीय पोस्ट !

कविता रावत said...

एक अघोषित कर्फ्यू लग जाता है परीक्षाएं चलती हैं जब
हमारे बच्चों के तो रिजल्ट भी आ गया है
अच्छी विचार प्रस्तुति

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 16-03-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2606 में दिया जाएगा
धन्यवाद