Thursday, October 29, 2015

मक़ाम 'फैज़' कोई राह में जचा ही नहीं


गुलों में रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले

क़फ़स उदास है यारों, सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले

जो हमपे गुज़री सो गुज़री मगर शब-ए-हिज्राँ
हमारे अश्क तेरे आक़बत सँवार चले

कभी तो सुबह तेरे कुंज-ए-लब्ज़ हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्क-ए-बार चले

मक़ाम 'फैज़' कोई राह में जचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले.

- फैज़ अहमद फैज़

Tuesday, October 27, 2015

वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ जिसमें न मौका सिसकी का



वो काम भला क्या काम हुआ जिसका बोझा सर पे हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ जिसका चर्चा घर पे हो

वो काम भला क्या काम हुआ जिसमे साला दिल रो जाये
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ जो आसानी से हो जाये

वो काम भला क्या काम हुआ जो मजा नहीं दे विह्स्की का
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ जिसमें न मौका सिसकी का

वो काम भला क्या काम हुआ जिसकी न शक्ल इबादत हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ जिसकी दरकार इज़ाज़त हो

वो काम भला क्या काम हुआ जो कड़वी घूँट सरीखा हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ जिसमे सब कुछ मीठा हो

- पियूष मिश्र


Thursday, October 22, 2015

हिज्र की शब और ऐसा चांद

पूरा दुख और आधा चांद
हिज्र की शब और ऐसा चांद

इतने घने बादल के पीछे
कितना तन्हा होगा चांद

मेरी करवट पर जाग उठे
नींद का कितना कच्चा चांद

सहरा सहरा भटक रहा है
अपने इश्क़ में सच्चा चांद

रात के शायद एक बजे हैं
सोता होगा मेरा चांद...

- परवीन शाकिर 

Tuesday, October 20, 2015

पूर्णता अभिशाप है


एकांत बड़ी महफूज जगह है. बाहरी एकांत नहीं, भीतर का एकांत। गहन एकांत। उदासी के सबसे कीमती ज़ेवर उसी लॉकर में रखे होते हैं. उदासियाँ जब इश्तिहार सी होने लगती हैं तो उनकी आत्मा पे सलवटें सी पड़ने लगती हैं. उन्हें बचा के रखना ज़रूरी है. सहेज के.

ज़माने भर में कोहराम मचा है, सब कह रहे हैं, मैं भी कह रही हूँ. इन दिनों कुछ ज्यादा ही कह रही हूँ. लेकिन सोचती हूँ सुन कौन रहा है. मौन एक कोलाहल में तब्दील हो चुका है. कहते कहते थक जाना, सोते सोते जग जाना। सांसों की आवाजाही पे कान धरके घटती बढ़ती उसकी लय को पकड़ने की कोशिश करना।

इस एकांत में सबसे ज्यादा जो काम होता है वो खुद को खारिज करने का होता है. मुझे शोर अच्छा नहीं लगता। मैं अपनी ही आवाज से डरने लगी हूँ. ऐसे गहन एकांत में सांस की लय भी साफ़ सुनाई देती है. एकदम साफ़.

मुझे नींद आ रही है लेकिन जानती हूँ जैसे ही आँखें बंद होंगी नींद गायब हो जाएगी। कभी कभी यूँ लगता है कि मैं अपनी देह की कब्र में जागती हुई कोई लाश हूँ. मिटटी में दबी मिटटी। अँधेरे में दफ़न अँधेरा। रौशनी की उम्मीद बेमानी है. अजीब बात है कि दफ़न होकर भी चैन नहीं है.

चैन होता क्या है आखिर? सोचती हूँ कब था चैन जीवन में. जब कोई लम्हा वक़्त की शाख से टूटकर गिरने को हुआ था और हमने अपना आँचल फैला दिया था. वो टूटकर गिरना मुक़्क़मल नहीं हुआ, न हसरत से तकता इंतज़ार, लेकिन वो जो अधूरापन था, वो चैन था शायद।

किसी इच्छा का पूरा होना कुछ नहीं होता, इच्छा का होना सबकुछ होता है. उस इच्छा के होने में ही जीवन है, चैन है, शांति है. पूर्णता अभिशाप है.


Saturday, October 17, 2015

चुप रहना गुनाह है


चीखो  दोस्त
कि इन हालात में
चुप रहना गुनाह है

चुप भी रहो दोस्त
कि लड़ने के वक्त में
महज बात करना गुनाह है

फट जाने दो गले की नसें
अपनी चीख से
कि जीने की आखिरी उम्मीद भी
जब उधड़ रही हो
तब गले की इन नसों का
साबुत बच जाना गुनाह है

चलो दोस्त
कि सफर लंबा है बहुत
ठहरना गुनाह है

कहीं नहीं जाते जो रास्ते
उनपे बेबसबब दौड़ते जाना
गुनाह है

हंसो दोस्त
उन निरंकुश होती सत्ताओं पर
उन रेशमी अल्फाजों पर
जो अपनी घेरेबंदी में घेरकर, गुमराह करके
हमारे ही हाथों हमारी तकदीरों पर
लगवा देते हैं ताले
कि उनकी कोशिशों पर
निर्विकार रहना गुनाह है

रो लो दोस्त कि 
बेवजह जिंदगी से महरूम कर दिये गये लोगों के
लिए न रोना गुनाह है.

मर जाओ दोस्त कि
तुम्हारे जीने से
जब फर्क ही न पडता हो दुनिया को
तो जीना गुनाह है

जियो दोस्त कि
बिना कुछ किये
यूं ही
मर जाना गुनाह है....

Tuesday, October 13, 2015

लौटाया जाना जरूरी है


हालांकि लौटाये जाने पर भी
सब कुछ लौटता नहीं फिर भी
उधार की चीजें लौटाया जाना जरूरी है

नहीं लौटता वो रिश्ता
जो चीजों की उधारी के दरम्यिान
कायम हो जाता है
हमारी जरूरतों से

पढ़ी हुई किताबों के लौटाये जाने पर
नहीं लौटते पढ़े हुए किस्से
किताब के पन्नों पर चिपकी,
मुड़ी ठहरी हमारी नजर
हमारी उंगलियों की छुअन...
देर तक उसका सीने पे पड़े रहना
किताब के पन्नों में भर गई हमारी ठंडी सांसें

मांगी गई स्कूटर लौटाये जाने पर
वापस नहीं लौटता वो सफर
जो उधारी के दौरान तय किया गया हो
उधार के स्कूटर पर बैठकर मिलने जाना महबूबा से
उसका सहमकर बैठना पीछे वाली सीट पर
रास्ते में सफर के दौरान उग आये नन्हे स्पर्श
और रक्ताभ चेहरा, सनसनाहट
नहीं लौटती स्कूटर लौटाने के साथ...

महंगे चाय के कप लौट जाते हैं पड़ोसियों के
लेकिन नहीं लौटती उन कपों को ट्रे में रखकर
लड़केवालों के सामने ले जाने की पीड़ा
और भीतर ही भीतर टूटना कुछ बेआवाज

लौटाये गये म्यूजिक एलबम के साथ
नहीं लौटता उम्र भर का वो रिश्ता
जो सुनने के दौरान कायम हुआ
उस संगीत से

लौटाये जाने पर नहीं लौटते वो आंसू
जो उधार के सुख से जन्मे थे

फिर भी उधार ली हुई चीजों का
लौटाया जाना जरूरी है...


Sunday, October 11, 2015

प्यार का पता नहीं लेकिन...



हम दोनों ही अपने रास्ते खो चुके थे
और नए रास्ते तलाश रहे थे

हम दोनों बहुत थक गए थे
लेकिन हारे नहीं थे

हम दोनों उदास थे
और मुस्कुराहटें ढूंढ रहे थे

हमारी त्वचा पे उभर आई झुर्रियों में
किसी रिश्ते का नाम नहीं था

हम दोनों खो गए थे खुद से
लेकिन एक-दुसरे को थामे हुए थे

हमारे भीतर थोड़ी सी मृत्यु शेष थी
और एक पूरा जीवन

प्यार का पता नहीं
लेकिन कुछ था हमारी हथेलियों में
रेखाओं के अलावा...

Tuesday, October 6, 2015

अंतिम छोर पर



मैं अपनी भावनाओं के अंतिम छोर पर खड़ी हूं। न मुझे अब अंदर से कुछ महसूस होता है न बाहर से। अगर संक्षेप में कहूं तो मैं एक पुरानी घिस चुकी किसी स्वचालित मशीन के जैसी हो चुकी हूं। रोजमर्रा की जरूरतों की फेहरिस्त ने मेरे दिमाग को खत्म कर दिया है। मैं मेयुडन और विज्नोरी में एक आम गृहिणी की जिंदगी जी ही चुकी हूं। घर के सारे काम करना, अब भी वही कर रही हूं। घर के सारे काम जो मुझे आते हैं, मुझे नहीं आते हैं सब। जो मुझे एकदम पसंद नहीं। हर वक्त घर के कामों में, चिंताओं में उलझे रहना, सुबह से रात तक बस खटते रहना...मैं यह सब कर रही हूं। चाहते न चाहते...मेरे पास कोई विकल्प नहीं है। बस जो काम मैं नहीं कर पा रही हूं वो यह कि मैं हफतों कुछ लिख नहीं पाती हूं....लेकिन कौन इसे जरूरी काम समझता है...कौन...

- मरीना त्स्वेतायेवा  की डायरी, १९३१