ये कौन अपनी नींदें यहाँ भूल के चला गया है. ये कौन है जिसने शहर को पीले फूलों वाला गुलदस्ता बना दिया है. ये कौन है जिसने सड़कों को रंग-बिरंगे फूलों से भर दिया है, किसने बादलों के कानों में मोहब्बत का राग छेड़ दिया है, ये कौन है जिसने हवाओं के पैरों में खुश्बुओं की पाज़ेब बाँध दी है, किसने सपनों को पंख लगाकर उन्हें आसमान में ऊंचा उड़ने को छोड़ दिया है, कहाँ से आ गयी हैं इतनी खिलखिलाहटें कि उदासियाँ घबराने लगी हैं....उफ्फ्फ !
दूर कहीं बज रही है एक पहाड़ी धुन. एक लड़की पहाड़ से नीचे उतर रही है, एक पहाड़ उसके भीतर उतर रहा है, धरती की सारी नदियां उसकी आँखों में समायी हैं और वो अपनी आँखों की मशक से छिड़क रही है मोहब्बत के सूखे दिलों पर प्रेम का जल....धरती मुस्कुरा रही है इन दिनों, सुना तुमने!
6 comments:
सचमुच इन शब्दों से सुंदर चहुँ ओर बिखर-बिखर गई धरती की मुस्कराहट...
बहुत सुंदर रचना. आभार...
सच कहा, ध्यान से देख सकें तो धरती भी मुस्कराना जानती है।
रेवा की देह पर बड़ी खरोंचे हैं.
कोई आया था जो अपने मन के छिलके उतार कर यहाँ फेंक गया. कौन था जो अपने मन के बीज कूट - कूट कर यहाँ बिखेर गया. यहाँ दूर तक उदासी के चीड़ उगे हैं.
कौन है जो जेठ में यहाँ हिचकियाँ लेता है ? पतझड़ किसकी आँख का आंसू बन यहाँ झरता है ? सावन किसका रूंधा हुआ कंठ है ? दिन यहाँ किसका नाम लेकर सांय सांय करते हैं ? रातें किसकी हड़फूटन से अटी रहती हैं ?
यहाँ पानी का रंग देखने वालों का जमावड़ा है. रेवा पानी के नीचे फड़फड़ाती है.
जंगल काट देने से ही जिन्न मुक्त हो जाते तो चीड़ के जंगल कब के गूंगे हो चुके होते...
[ अमरकंटक डायरी, 2012]
:-)
कीप स्माइलिंग.
बहुत उम्दा प्रस्तुति।।।
सुन्दर , बदलता मौसम कुछ अलग बैचेनी पैदा कर देता है
सुन्दर रचना
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