'आप में अहंकार बहुत है,' उसने अपनी मजबूत आवाज में कहा था। मेरी आंखें भर आई थीं। मैंने अपना चेहरा उठाया और उसके चेहरे को पढ़ने की कोशश की कि वो जो कह रहा है उसमें सच कितना है। हालांकि उसकी आवाज में सच घुला हुआ था।
उसके जाने के बाद उसके कहे का हाथ थामे घंटों खड़ी रही। 'आप में अहंकार बहुत है।' इसके पहले तो लोग मुझे विनम्र, मदुभाषी, सहज, संकोची कहते थे। अहंकार...ऐसा तो किसी ने कभी नहीं कहा। बहुत सोचा फिर भी ध्यान नहीं आया कि किसी ने ऐसा कहा हो। खुद आत्ममंथन किया कि ऐसी कौन सी बात है, जिसके चलते उसने मुझे अहंकारी कहा होगा। मैं तो सबकी सुनती हूं। अपनी गलती मान लेती हूं। खुद को कमतर ही समझती हूं। कभी सोचा ही नहीं कि मुझे कुछ आता भी है। हर किसी से सीखने को उत्सुक। इन सबमें अहंकार कहां है....और अचानक हंसी आ गई। इस बात को कबसे सर पे उठाये घूम रही हूं...अपनी ही पड़ताल में उलझी हूं। यानी इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रही हूं कि मुझमें अहंकार है। यह स्वीकार न कर पाना है क्या? अहंकार ही तो है। अपनी सहजता, विनम्रता वगैरह का गुमान।
मेरे उस दोस्त ने ठीक ही कहा था कि विनम्रता भी एक किस्म का अहंकार है। समाज जिन्हें सद्गुण कहता है, उन्हें अपने ही हिसाब से परिभाशित करता है। ऐसा होना अच्छा है वैसा होना बुरा है। सबका ख्याल रखना, ठीक से बात करना, बड़ों का सम्मान करना, छोटों से प्यार करना, वर्ग, जाति, धर्म भेद की दीवारों को लांघकर एक इंसान होने की ओर अग्रसर होना। इन बातों को हम गंभीरता से समझते हैं और धारण करने की ओर अग्रसर भी होते हैं। धीरे-धीरे हमारे भीतर चेतन या अवचेतन में हमारे खुद के बेहतर होने की बात जमा होने लगती है। अपने इस बेहतर होने के गुमान को हम सुबह षाम पानी देते हैं, पालते पोसते हैं। मैं तो सबका भला करता हूं। किसी का कभी अहित नहीं किया। अपने हिस्से की रोटी भी दूसरों को खिला देता हूं. मुझमें कैसा अहंकार...यह जो 'मैं' है...असल जड़ यही है कम्बख्त! हम कितने ही विनयी, मधुर, दयालु हो लें 'मैं' नहीं छूटता. यही अहंकार है।
(उसने एक बात और कही थी कि सद्गुण धारकों में जितना अहंकार होता है उतना अवगुण धारकों में नहीं होता। इस बारे में कभी और )
अपने उस दोस्त की शु क्रगुजार हूं कि उसने मुझे मेरे अहंकार से परिचित कराया। परिचित होने के बाद इस अहंकार का मैं क्या करूंगी, क्या नहीं यह तो नहीं जानती लेकिन खुद के एक सच से वाकिफ तो हुई। अब मैं खुले मन से स्वीकार करती हूं कि हां, है मुझमें थोड़ा सा अहंकार क्योंकि मुझमें मेरा 'मैं' बाकी है अभी।
'मैं' को त्यागना आसान नहीं लेकिन 'मैं' को पाना भी आसान नहीं। अपने होने को महसूस करना, उसे इस दुनिया से बचाकर सहेज कर रखना। अभी मैं किस तरह त्यागूं अपना 'मैं' कि अभी तो इसे दबाये, छुपाये किसी तरह बचाने की ही जद्दोजेहद में उलझी हूं। एक जिद सी है कि खुद को मरने नहीं दूंगी, चाहे कुछ भी हो जाए....और ये मेरा अहंकार है तो है...
जरूर इस अहंकार से मुक्त होना चाहूंगी एक दिन लेकिन उसके पहले अपने होने को जी तो लूं जरा।