Monday, January 28, 2013

आपन गीत हम लिखब...



अब अपनी बात हम खुद लिखेंगे
जैसे चाहेंगे वैसे जियेंगे
न जी पायेंगे अगर मर्जी के मुताबिक, न सही
तो उस न जी पाने की वजह ही लिखेंगे,
हम खुद लिखेंगे चूल्हे का धुआं
सर का आंचल, और बटोही में पकती दाल के बीच
नन्हे के पिपियाने की आवाज और
ममता को ठिकाने लगाकर भूखे बच्चे को पीट देने की वेदना
हम खुद लिखेंगे अपनी उगार्इ फसलों की खुशबू
और कम कीमत पर उसके बिक पाने की तकलीफ भी.
यह भी कि निपटाते हुए घर के सारे काम
कैसे छूट ही जाता है हर किसी का कुछ काम
और देर हो ही जाती है आए दिन आफिस जाने की
कि हर जगह सब कुछ ठीक से जमा पाने की जिद में
कुछ भी ठीक न हो पाने की पीड़ा भी हम ही लिखेंगे
लिखेंगे हम खुद कि जिंदगी के रास्तों पर दौड़ते-दौड़ते भी
चुभती हैं स्मतियों की पगडंडियों पर छूट गर्इ परछार्इयां
और मुस्कुराहटों के पीछे कितनी चीखें छुपी हैं
न सही सुंदर, न सही इतिहास में दर्ज होने लायक
न सही भद्रजनों की बिरादरी में पढ़े-सुने देखे जाने लायक
फिर भी हम खुद ही लिखेंगे अपने बारे में अब सब
और खुद ही करेंगे अपने हस्ताक्षर अपनी रचनाओं पर


यह कविताओं की बात नहीं है. यह जीवन की बात है. हम औरतों के जीवन की बात है. हम औरतें जिन्होंने कभी कुछ कहना नहीं सीखा बावजूद इसके कि हम बोलती बहुत हैं. कमर और पीठ के दर्द से कराहते हुए भी कोर्इ हमसे पूछे कि कैसी हो गुडडन की अम्मा तो हम चिहुंक के जवाब देती हैं मजे में हैं...

न जाने कितनी सदियों से हमें किसी विषय सा देखा गया. हमारे बारे में लिखा गया. लिखा गया हमारा भोगा हुआ सच इतने सुंदर ढंग से कि हमें लगा कि हम खुद के ही सच से अनजान थे अब तक तो. लिखने वालों को आता था हमारी संवेदनाओं की उन पर्तों तक पहुंच पाना जहां अक्सर हम खुद ही नहीं पहुंच पाते थे, या कभी पहुंच पाते थे तो हमारे हाथ पांव थक चुके होते थे और जेहन बेहाल कि कुछ सोचने का मन भी नहीं करता था. हम अपनी जिंदगी के पन्नों से खुद को बेदखल करने में ही आसानी पाते थे. या सच कहें तो कहां फुर्सत थी हमें अपनी बिंवाइयों की ओर देखने की या माथे पर उभर आयी सलवटों को टटोलने की. कब था वक्त हमारे पास कि अपने आंसुओं का स्वाद चख भी सकें और पन्नों पर रख भी सकें. सदियों से हमने बस चलते जाना सीखा और सीखा मुस्कुराना जीवन जैसा भी मिला उसे जीना. शिकायत करने के लिए हमने गढ़ लिये भगवान और अपने सर पर जमा लिया व्रतों उपवासों का ठीकरा. कि भूखे पेट में भी हमने अपने लिए भूख का ही रास्ता चुना र्इश्वर तक पहुंचने का और नंगे पैरों के लिए चुना जलती दोपहरों में नंगे पांव रेगिस्तान पार करने की तरकीब. सुना था कि खुद को तड़पाने से कम होते हैं दिल के टूटने के जख्म और मिट जाते हैं जिंदगी से सारे गिले.

हमने न लिखना सीखा न पढ़ना, हमने तो बस जीवन को सर पर उठाया और भटकते फिरे इस गली से उस गली. इन्हीं गलियों से भटकते हुए कहीं कोर्इ मुसाफिर टकराया तो हम मुस्कुरा दिये. उस मुसाफिर को लोगों ने कवि कहा. उस कवि ने हमारी मुस्कुराहटों के भीतर के छेद का भेद पा लिया. उसने उसी भेद को लिखा, लिखा कि जीवन मुशिकल है सित्रयों का कि वो छुपाये रहती हैं आंचल में दूध और अांखों में पानी कि किसी ने अंगार देखे आंखों में तो दर्ज किया कि हिम्मत की ऐसी मिसाल न देखी न सुनी. पूरी दुनिया को सित्रयों की दुनिया में दिलचस्पी हुर्इ और कविताओं की फसल लहलहाने लगी. पूरी दुनिया में सित्रयों के जीवन के पन्ने लिखे जाने लगे. लिखे जाने लगे उनकी आंखों के आंसू और होठों की मुस्कान. रूस हो या जर्मनी, अमेरिका हो या अफ्रीका दुनिया के हर देश में सित्रयों पर कविताओं की बाढ आने लगी. कहीं सौंदर्य की अपरिमित परिभाषाएं कहीं वेदना के करूण स्वर.

हम पर लिखने वाले हमारे शुभचिंतक थे. वो हमारी दुनिया के दुख, दर्द, आंसू और मुस्कान सामने लाना चाहते थे. वो हमारा हाथ थामकर हमें अवसाद के अंधेरों से मुक्त करना चाहते थे. हम उन्हें उत्सुकता से देख रहे थे. उनके उस लिखे में खुद को देख रहे थे जो उन्होंने हमसे जानकर हमारे लिए लिखा था.

हम आभार से भर उठे. लगा कोर्इ तो है जिसने हमें हमसे भी ज्यादा जाना. जिसने हमारी सांसों के भार को जस का तस उतार दिया और उस दर्द को भी जिसे सीने से लगाये हमें आदत सी हो चली थी वैसे ही जीने की. सूरज की रोशनी को माथे पर हमने कभी रखा ही नहीं उसे हमेशा दूसरे का हिस्सा जानकर, मानकर ही खुश रहे. खुश रहे दूसरों के लिए छांव बुनने और अपने लिए धूप चुनने को ही माना अपने हिस्से का सच. हमारा यही सच बना दुनिया भर के कवियों के लिए औषधि. हम विषय बने और हमारी दुनिया के दरवाजे कविताओं के मार्फत खुलने लगे.

एक रोज साफ-सफार्इ, झाड़ू बुहारन करते-करते कलम हमारे हाथ भी आ गर्इ. उसे छूकर देखा तो जुंबिश महसूस हुर्इ. कागज पर फिराया तो कुछ शब्द जी उठे. हम घबरा गर्इं. ये क्या होने लगा. भला हम कैसे लिख सकते हैं कुछ भी. अपना ही लिखा समेटकर छुपा दिया. डर के मारे पसीना आ गया हमें. किसी ने देख लिया तो? नहीं...नहीं...हमने तो कुछ भी नहीं लिखा. हम क्या जानें लिखना पढ़ना. लोगों को ही हक है हम पर लिखने का, हमारे बारे में लिखने का. ये अक्षरों का जादू था या हमारे भीतर पड़े अंकुर कि कलम हमें लुभाने लगी और जब-तब हम कुछ लिखने लगे. नहीं पता था कि वो कविता है भी या नहीं बस इतना पता था कि हमने अपने बारे में कुछ खुद लिखा था. पहली बार. पूछा नहीं था किसी से, महसूस किया था. कुछ आड़ी-टेढ़ी इबारतें थीं कुछ लेकिन उनमें हमारा भोगा हुआ सच सांस ले रहा था. लिखना कोर्इ डाइनिंग टेबल पर रखा फल नहीं था हमारे लिए कि उठाया और खा लिया. दूर किसी बीहड़ की यात्रा के बाद न जाने कितने कांटों मेंं आंचल उलझाने के बाद, लहूलुहान देह को संभालते हुए किसी फल के पास पहुंचने जैसा था ये. ये था वैसा ही जैसे सदियों की प्यास को होठों पर सजाकर तपती दोपहरों में रेत के धारे पार किये जाएं. हमारे शब्दों में रूमानियत कम रूखापन ज्यादा आया. हमने अपने आपको सौंदर्य की उपमाओं से पार किया और जीवन के सख्त सौंदर्य को रचा. रचा हमने अपना संसार. अपनी ख्वाहिशों का संसार.

ये सफर आसान नहीं था हमारे लिए. चूल्हे पर जलती रोटियों के बीच, बीमार बच्चे के माथे पर पटटियां बदलते हुए, भागकर पकड़ते हुए सिटी बस, बास की डांट खाने के बाद मुस्कुराते हुए कस्टमर डील करते हुए लिखने का सफर आसान नहीं था लेकिन यकीन मानिए राहत भरा था. जब रोने का होता था मन तो हम आंसू लिखने लगे और जब खुश हुआ दिल का कोर्इ कोना तो दुपटटा झटककर हमने आसमान से सारी खुशियों को धरती पर झाड़ लिया. लिख लिया धरती का हर कोना अपने नाम और आसमान को झुका लिया कदमों में. अब हम मुस्कुराने लगे कि अब हम खुद लिख रहे थे अपना ही सच. झाड़कर दुनिया की तमाम कड़वाहटें हमने मुस्कुराहटें लिखीं. हमने अपने संघर्ष लिखे. नहीं...हमारा लिखना सिर्फ हमारे इर्द-गिर्द भर सिमटा नहीं रहा. हमने देश दुनिया समाज को अपनी नजर से देखा, सुना, समझा, जाना और महसूस किया. हमारे लिखे ने हमेंं कारावासों का रास्ता दिखाया. हमें देश से निष्कासन मिला, समाज से बहिष्कार मिला. ये हमारी ताकत थी कि हमारे लिखे से खतरा महसूस होने लगा देश, दुनिया, समाज को.

उन लोगों को भी जिन्होंने हमारे हितैषी होने का भ्रम देकर हमें लिखने को उत्साहित किया था. उन्होंने हमें हौसला दिया और दिशा भी, निर्देश भी. प्रोत्साहन भी और प्रशंसाएं भी. कि अचानक हमें बिठाया जाने लगा सफलताओं के नये-नये आसमानों पर कि हमने अपना सच कहना सीख लिया है. वो हमारे मसीहा थे जिन्होंने अपने कंधों पर हमारे लिखे को उठा रखा था.

हमने लिखना ही नहीं पढ़ना भी सीख लिया था. हमें खुद दिशाबोध होने लगा. हमें निर्देशों की जरूरत नहीं रही. न इसकी कि कोर्इ बताये कि कैसी कविता अच्छी होती है कैसी बुरी. किस तरह लिखा जाए तो वो श्रेष्ठ कहलायेगा और किस तरह का लिखा कूड़ा कहलायेगा. हमने सोचा अगर सारे ही लोग मानेंगे निर्देश तो सिर्फ अच्छी कविताएं ही लिखी जायेंगी और सिर्फ श्रेष्ठ कवियों का ही जन्म होगा. तो क्यों न तोड़ी जाए आचार संहिता और लिखा जाए नया विधान. कि न सही मेरी कविता में दुनिया को बदलने का माददा, न छापे कोर्इ साहित्य संपादक इसे अपनी प्रतिषिठत पत्रिका में, न मिले कोर्इ वाहवाही और पुरस्कार कि ये सब आप ही रख लो सरकार कि हमें तो बस लिखने दो वो सब जो हम लिखना चाहते हैं. टूटते हैं कविता के मापदंड तो टूटने दो, हम सजा भुगतने को तैयार हैं. सित्रयों की कूड़ा कविताओं का दौर रख देना इस दौर का नाम फिर भी लिखना है हमें अपनी जिंदगी का पूरा सच. नहीं बनाना लिखते वक्त किसी को प्रेम का देवता न ढांकनी ही किसी सियासतदां की काली करतूत. जानते हैं हम हमारी दुनिया में अब किसी के निर्देशों की जगह नहीं बची. हम अभय हुए हैं. डरते नहीं किसी से. न आलोचना से बुरा लगता है हमें न प्रशंसाओं से इतराते फिरते हैं हम. अरे, प्रशंसाओं का भ्रामक धनुष तो सीता स्वयंवर से भी पहले ही तोड़ दिया था हमने.

हमारा ये बेखौफ होना कैसे रास आता भला इस दुनिया को. नर्इ चौसर बिछार्इ गर्इ. नर्इ बिसात. नये नियम. बड़े मोहब्बत से हमें समझाया गया कि कविता लिखना बहुत जोखिम का काम है. इंसान इतिहास में दर्ज होता है कविता लिखकर. चंद बड़े नामों को आंखों के सामने दर्ज किया गया. देखो, तुम भी ऐसे ही चमकोगी इतिहास में. कितना सुंदर लिखती हो तुम बस कि थोड़ा ध्यान रखो. भाषा अच्छी है बस जरा विचार को मोड़ो, भावों में जरा सा परिवर्तन करो, न ऐसे नहीं...वैसे लिखो फिर देखो कैसे तूफान आता है. सचमुच आने ही लगा तूफान. औरतों ने अब तूफानी गति से लिखना शुरू कर दिया है. हर कविता तूफान लाती है, वो तूफान जाता कहां है यह पूछना अभी बाकी है. दिशा निर्देशों की तालिका सूची टंगी हैं यहां वहां. लिखी जा रही हैं खूब सारी कविताएं हर रोज...लेकिन शायद ये वो कविताएं नहीं हैं जिनको लिखने के लिए पहली बार कलम थामी थी हाथ में. खुरदरी ही सही पर उनमें एक खुशबू थी जिसे दुनिया ने महसूस किया था. एक सच था जिससे समाज ने खतरा महसूस किया था लेकिन बहुत जल्द हमारी कलम रेशमी शब्दों से परिचित करा दी गर्इ. उसे वो रास्ते बता दिये गये जहां से होकर कविता लोकप्रियता की ओर बढ़ती है.

आज फेसबुक से लेकर ब्लाग, वेबसाइट, आरकुट हर जगह कविताओं की बाढ़ आर्इ हुर्इ है. ग्रहिणी हो या कामकाजी औरत, कंपनी की सीर्इओ हो या डाक्टर, इंजीनियर, पत्रकार हर कोर्इ अभिव्यकित के हथियार को हाथ में थामे है. हर कोर्इ लिख रहा है. उनका लिखना जितना सुंदर है उनके लिखने को निर्देशित करना उतना ही गलत लगता है मुझे. फूल को अपने ही ढंग से खिलने देने पर ही उसका असल सौंदर्य सामने आता है. आखिर किस खतरे के प्रति आशंकित है यह समाज कि अगर सित्रयां खुद अपनी मर्जी से अपने सफर पर चल पड़ेंगी तो क्या हो जायेगा...कहीं कोर्इ भूचाल नहीं आ जायेगा, बस कुछ सच सामने आयेंगे. आने दीजिए ना...मत भरमाइये हमें कि हम बिना पुरस्कारों के, बिना लोकप्रियता के ही भले. हम तो खुश हैं कि हमने सीख लिया है सच को सच और झूठ को झूठ लिखना. कितनी खलबली है आपके समाज में....

(अहा जिन्दगी के साहित्य विशेषांक में प्रकाशित)

Sunday, January 20, 2013

तुझसे नाराज नहीं जिन्दगी...


(दृश्य - एक सजा संवरा से कमरा है. हर चीज करीने से. एक टेबल और दो चेयर. टेबल पर अभी पीकर रखे गये चाय के कप के निशान हैं.)

जीवन- तुम हंसती क्यों रहती हो?
मत्यु- क्योंकि तुम रोते रहते हो.
जीवन- मैं कहां रोता हूं. मैं तो खुश रहता हूं.
मत्यु- तो मैं कहां हंसती हूं. मेरा तो स्वभाव ही है ऐसे दिखने का.
जीवन- तुम झूठ बोलती हो. तुम असल में हमारी लाचारगी का उपहास करती हो.
मत्यु- देखो, मैंने तुम्हें लाचार नहीं कहा, तुमने खुद कहा.
जीवन- मैंने कब कहा?
मत्यु- अरे, अभी...कहा ना
जीवन- ओ...हां. मैं तुमसे डरता हूं न जाने क्यों? उसी डर में रहता हूं.
मत्यु- मुझसे डरते हो. मुझसे? मैं ही तुम्हारा एकमात्र सत्य हूं. तुम्हें तो मुझे प्रेम करना चाहिए.
जीवन- अरे, नहीं चाहिए सत्य. तुम दूर रहो मुझसे. मैं खुश रहूंगा.
मत्यु- तो तुम्हें लगता है कि मेरे न रहने पर तुम खुश होगे.
जीवन- हां, एकदम.
मत्यु- तो ठीक है. मैं तुम्हारे पास नहीं आउंगी. कभी नहीं. चलो अब खुश हो जाओ.
जीवन- हम्म्म्म

कई बरस बाद
(दृश्य- एक वीरान सा आंगन. पतझड़ का मौसम. बरामदे से सटे उलझे हुए से कमरे में जिसे देखकर लगता है कि कभी वो बेहद करीने से रहा होगा में एक बिस्तर पर लेटा हुआ छत को ताकता एक बूढ़ा.)
जीवन- कबसे तुम्हारे इंतजार में हूं. तुम कहां हो. क्यों नहीं आतीं. मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूं. हर पल तुम्हारे आने की आहटों पर कान लगाये बैठा हूं.
(पत्तो की सरसराहट की आवाज...)
जीवन - तुम आ गयीं...मुझे पता है तुम ही हो. बोलो न तुम आ गयीं ना?
नियति- तुम्हें किसका इंतजार है मालूम नहीं. ये तो मैं हूं हर पल तुम्हारे पास. तुम्हारी नियति. लो थोड़ा पानी पी लो.
जीवन- नहीं...नहीं पीना मुझे पानी. गुस्से में गिलास फेंक देता है. तुमसे नफरत है मुझे. चली जाओ यहां से.
नियति- हंसते हुए. मैं चली जाऊं? मैं ही तो हूं तुम्हारी नियति. मैं चली जाउंगी फिर...
जीवन- फिर क्या...तुम चली जाओगी तो सब ठीक हो जायेगा. मुझे मुक्ति मिल जायेगी.

(नियति जोर से हंसती है. तभी एक दूसरी खूबसूरत लड़की आकर नियति के करीब खड़ी हो जाती है. उसका नाम मुक्ति है. )

मुक्ति- क्या हुआ. तुम क्यों हंस रही हो?
नियति- अच्छा हुआ तुम आ गयीं. ये पड़ा है तुम्हारा आशिक. कहता है इसे मुक्ति चाहिए.
(मुक्ति जोर से हंसती है.)
मुक्ति- मैं जब भी इसके पास गई ये लोभ, मोह, माया, वासना में खुद को उलझाये बैठा मिला. आज इसे मुक्ति चाहिए.
(तभी किसी और के हंसने की आवाज आती है. एक और स्त्री का प्रवेश.)
मत्यु- हां, तुमसे ठीक पहले ये मेरी कामना कर रहा था. जबकि कई वर्ष पहले इसने मेरा तिरस्कार किया और कहा कि मैं इससे दूर रहूं.
नियति- यही इसका दोष है कि जब जो इसके पास है तब इसे वो नहीं चाहिए. जो है उसका तिरस्कार, जो नहीं है उसके पीछे भागना.
जीवन- मुझे मेरे दुखों से मुक्ति चाहिए. मैं दर्द से तड़प रहा हूं. मेरी मत्यु को बुलाओ कोई. मेरी देह को आराम मिले.

(तीनो नियति, मुक्ति और मत्यु मिलकर हंसती हैं. तभी किसी के जूतों की आहट होती है. एक सजीला नवयुवक प्रवेश करता है. वो सबको देखता है और मुस्कुराता है. तीनों उसकी ओर प्रश्नवाचक निगाह से देखती हैं.)
लड़का- मैं यथार्थ हूं.
तीनों एक साथ- हुंह....
लड़का- देखो सच यही है कि अब इसके मुक्त होकर मत्यु के पास जाने का समय आ गया है. क्यों नियति?

(नियति ख़ामोशी से सर झुका लेती है. जीवन सबको बुझती हुई नजर से देखता है और यथार्थ की बांह पकड़ लेता है. उसकी आंखों में आंसू हैं. वो मत्यु का आलिंगन करके दर्द से मुक्ति चाहता है. नियति उसे दूर से देख रही है...तेज हवा का झोंका आता है और एक पत्ता टूटकर उड़ते हुए जीवन के करीब आकर गिरता है....)
परदा धीरे-धीरे गिरता है.

Saturday, January 19, 2013

जिंदगी सांस लेने का नाम है किसने कहा...


उसके आंसुओं में जो नमक था वो प्यार था. उसकी मुस्कुराहट में जो रुदन था वो कविता थी। उसकी कविता में जो धड़कता था वो दिल था, उसके दिल में जो छुप के रहती थी, वो जि़ंदगी थी...
वो कौन है...?
ये किसकी बात है?
वो हम हैं. ये हम सबकी बात है. 
जिंदगी सांस लेने का नाम है किसने कहा? जि़ंदगी तो हवा में उछाल दिये जाने वाले उन लम्हों का नाम है, जो उम्र भर हमें जिंदा होने के अहसास से भरते हैं
और कविता...?
वो क्या है...?
हमें हमारे होने के अहसास से जो चीज भरती है वो कविता ही तो है. एक ओर ये हमें हमारे और करीब ले आती है तो दूसरी ओर हमसे हमें ही मुक्त भी कराती है. जि़ंदगी और कविता साथ-साथ चलती हैं. एक के बगैर दूसरे का कोई अस्तित्व ही नहीं. हालांकि अक्सर हमें यह अहसास ही नहीं होता कि कविता हमारे इतने करीब रहती है. इतने करीब कि इसके होने से जिंदगी के मायने ही बदल जाते हैं. इतने करीब कि कभी आंसुओं को थाम लेती है गिरने से पहले और अनजाने पकड़ा जाती है मुस्कुराने की वजह. 
तू इतने पास है कि तुझे कैसे देखूं
जो जरा दूर हो तो तेरा चेहरा देखूं...
ऐसे ही रहती है कविता हमारे आसपास. उसके होने पर उसका होना महसूस भी नहीं होता लेकिन उसका न होना शिद्दत से महसूस होता है. लगता है जिंदगी मानो रूठ गई हो. 
कविता....और जिंदगी... एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. बच्चे के इस धरती पर जन्मे पहले रुदन का जो आलाप है, जो संगीत है, जो लय है वही तो है कविता...उसी लय का हाथ थाम हम जीवन के सफर पर निकलते हैं. दुनिया, समाज और ढेर सारी उठा-पटक के बीच कविता हमारे भीतर की नमी को बचाकर रखती है.
अक्सर लोग कहते हैं कविता हमें समझ में नहीं आती या हमारा कविता से कोई वास्ता नहीं है लेकिन ठीक उसी पल उनके होठों पर कोई धुन आकर खेलने लगती है. चुपके से कोई याद होठों पर मुस्कुराहट बनकर सज जाती है, उन्हें ये पता ही नहीं चलता कि यह सब कविता की ही कारस्तानी है. जिंदगी को महसूस करने की शिद्दत का नाम कविता है. 
कविता क्या वो होती है जो कागज पर कलम से लिखी जाती है. कुछ सुंदर शब्दों  का चयन, कोई आकार, कोई विचार और कविता...
नहीं...कविता हमेषा शब्दों पर बैठकर जि़ंदगी तक नहीं आती. वो चोर दरवाजों से दाखिल होती है हमारी जि़ंदगी में. 
पलटती हूं कागज तो अक्षर उड़ जाते हैं कई बार. दूर किसी पेड़ की फुनगी पर बैठकर मुंह चिढ़ाते हैं. हाथ बढ़ाओ तो हाथ नहीं आते...कभी हाथ आते भी हैं तो अर्थ वहीं टहनी पर छोड़ आते हैं. हां, कुछ षब्द जरूर कागज पर जगह घेर लेते हैं. कविता के डायनमिक्स, उसके मीटर, क़ाफिया, रदीफ सबमें परफेक्ट होने के बाद भी वो खेल करती है कई बार. अपने होने में अपना न होना छुपाकर छलती है कवि को और बेचैन करती है पाठक को कि पढ़ने के बाद भी पाठक खाली हाथ और लिखने के बाद भी लेखक बेचैन ही. किसी षरारती बच्चे सी लगती है कविता कभी-कभी कि तोड़ती है सारे नियम, भंग करती है सभ्यता के सारे कायदे, रौंदती है कोमलता के तारों को और घेरती है इतिहास में मजबूत जगह. 
किसी पुर्ची में से कहीं झांकती है कभी तो कभी ठेंगा दिखाती है किसी कविता संग्रह के भीतर से भी. पुरस्कारों, समीक्षाओं, तालियों के षोर से बहुत दूर बैठकर वो देखती है अपने ही नाम पर होने वाले तमाम करतबों को और थककर चल देती है गांव की किसी ऊबड़-खाबड़ पगडंडी पर. 
कविता क्या है...कहां है...उसके हमारे जीवन में होने के अर्थ क्या हैं...कब वो होती है हमारे जीवन में, कब नहीं. ये बड़े सरल से लगने वाले कठिन सवाल हैं. दरअसल, कविता का होना, न होना कविता को ग्रहण करने वाले व्यक्ति की सामर्थ्य पर निर्भर करता है. वो दृश्य जो किसी के लिए दृश्य है, किसी के लिए एक घटना, किसी के लिए खबर और किसी के लिए कविता. कविता दरअसल संवेदना है. इसीलिए मैं कविता को किसी फ्रेम में बंधे हुए रूप में नहीं देख पाती. 
कविता हमारी संवेदनाओं की पनाहगाह है. हमारे आंसुओं का ठौर, बेचैनी को थामने वाली कोई दोस्त और आक्रोश को सहेजने वाली साथी. कवि होना कोई लग्जरी नहीं है. यह एक पेनफुल जर्नी है, एक अवसादमय यात्रा. साथ ही एक खुशनुमा अहसास भी. हमारे भीतर हमें बचाये रहने वाली.
कवि के जीवन में भी जीवन उसी तरह दस्तक देता है जैसे औरों के जीवन में लेकिन कवि जीवन के हर रंग, हर रूप, हर पहलू को द्विगुणित करके देखता है. ख़ुशी के एक सामान्य से पल में वह आसमान की उंचाइयां छू लेता है और दुख की मामूली सी खरोंच उसे मत्यु के करीब ले जा सकती है. शायद इसीलिए उन पर पागल, स्रीजोफेनिक होने जैसे लेबल लगते रहते हैं. लेकिन इस दुनिया को दुनिया बनाने में उन पागलों का बड़ा योगदान है. उन्होंने  समाज को जिस गहरी संवेदना से जज्ब किया, उसी जज्बे से गलत का प्रतिकार किया और उसी तल्खी से अपनी वेदना को लिखा भी.
समय के पन्नों पर मानवीय सभ्यता की हर करवट को उकेरती है कविता. इतिहास, भूगोल, मनोविज्ञान, राजनीति सबको समेटते हुए, देष की, भाशाओं की, संस्कति की तमाम सरहदों को पार करते हुए वो अपने होने को बचाकर रखती है. साथ ही बचाकर रखती है हममें हमारे बचे रहने की उम्मीद भी. हमारे रूखे-सूखे जीवन में रूमानियत की बारिष लेकर आती है कविता और जिंदगी को बारहमासा मुस्कुराहट तोहफे में देती है. कभी-कभी आंसू भी. 
इसके होने से हमारी सुबहें, हमारी षामें हर लम्हा बदलने लगता है. आज हमारे जीवन में मुस्कुराने की जितनी भी वजहें हैं उसकी जड़ में कहीं न कहीं कविता ही है और जिंदगी की तमाम मुष्किलों से जूझने का जो माद्दा है वो भी कविता ही है. मानवीय सभ्यता का इतिहास तो पुस्तकालयों में सुरक्षित रखी किताबों में मिल जायेगा लेकिन अगर इतिहास को धड़कते हुए महसूस करना है तो सूर तुलसी, दादू, रहीम, बुल्ले षाह, नानक, मीरा, कबीर, खुसरो, गालिब, फैज़, फिराक़ की गलियों से गुजरना होगा. समय और समाज की हर धड़कन इन गलियों में पैबस्त है अपनी खुशबू के साथ, पूरी तासीर के साथ. 
कई बार लगता है कि अगर कविता न होती तो कैसा होता यह जीवन. कितना खुश्क, नीरस और ऊब से भरा हुआ. मानवीय सभ्यता की संवेदनाओं का हाथ कविता ने ही तो थाम रखा है. 
कई बार यह सवाल किया जाता है कि आजकल कैसी कविताएं लिखी जाने लगी हैं, गद्य सी ही लगती हैं. फिर कविता और गद्य में अंतर ही क्या? क्यों कोई गद्य का टुकड़ा कविता कहा जाता है और कोई गद्य. समय ने मुझे जिन चीजों के जवाब दिए हैं उनमें से एक यह भी है कि कविता असल में अपने फार्म में नहीं रहती, वो अपने भाव में रहती है. गद्य के जिस टुकड़े को कविता कहा जाता है, उसमें कविता के भाव होते हैं, रिद्म, लय. इस रिद्म और लय से मेरा आशय तुकबंदी या काफिया रदीफ से नहीं है. मेरा आशय है पोयटिक एसेंस से. किसी का पूरा व्यक्तित्व ही कविता सा जान पड़ता है और किसी की कविता भी कविता सी नहीं लगती. 
हालांकि मैं खुद अभी कविता को समझने की प्रक्रिया में हूं. खुद को लगातार अकवि कहती रही, फिर भी कवि कहकर पुकारी जाने लगी. अपनी इसी उलझन को मैंने एक बार नामवर जी से साझा किया था कि जब कोई कवि कहता है तो गहरे संकोच में गड़ जाती हूं. इतनी बड़ी चीज है ये कविता कि मुझसे सधती ही नहीं है. उन्होंने मुस्कुराते हुए पूछा था, जिंदगी सधती है क्या? 
मुझे जवाब मिल चुका था. 
तो आपने कविता लिखना क्यों छोड़ा मैंने उन्हें छेड़ते हुए पूछा,
वो मुस्कुराए, मुझसे भी सधती नहीं थी कम्बख्त. 
मैं उस न सधने को भी सम्मान से देखती हूं और जो कुछ भी लिखती हूं अपने प्रिय कवियों को समर्पित करती चलती हूं. अपना अनाड़ीपन, अनगढ़पन, कच्चे अनुभव, तरल संवेदनाएं, जिंदगी की उहापोह, सब कुछ. 
जिस पल हम अपने लिखे से अपने लिए उम्मीद करने लगते हैं उसी पल हम नकली हो जाते हैं. हमारी कविता हमारी वेदना की, हमारे अंतर्द्वन्द्व की पनाहगाह है. इसलिए मैं हमेशा श्रद्धा से सर झुका देती हूं जीवन में मिली उदासियों के सम्मुख. 
कविता सिखाती है जि़ंदगी के हर रंग में खिलना, महकना. प्यार करना पूरी कायनात से और अपनी जिंदगी को नये तर्जुमान देना. जिंदगी की इसी रूमानियत को समेटने के इरादे से ही आज हम सब एक साथ मिल बैठे हैं. अपने जीवन में मौजूद कविता का सम्मान करने, उसके प्रति अपना आभार प्रकट करने और उसका हमारी जिंदगी में बने रहने का इसरार करने को. साथ ही दुआ करने को कि उसके होने को महसूस कर पाने की क्षमता भी हममें लगातार समृद्ध होती रहे.

(अज़ीम प्रेमजी फौन्डेशन द्वारा आयोजित 'जीवन में कविता के मायने' विषय पर आयोजित गोष्ठी में पढ़ा गया परचा)
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Photo courtesy - Google, Artist Angela Skoskie

Sunday, January 13, 2013

मैंने...तेरे लिए रस्ता बिछाया है...


वो चाय की प्याली के साथ धूप का एक टुकड़ा भी रख गई थी सिरहाने. उसके होठों पर कोई गीत रखा था, जिसे उसने मेरे करीब आते हुए छुपा लिया था फिर उस गीत की खुशबू उसके होठों के आसपास थी. मैंने उसे कहा, जोर से गाओ ना...वो शरमा गई. नहीं दीदी, हमको नहीं आता. कोई बात नहीं गाओ ना...ये मेरी पसंद का गीत है. मैंने कहा. वो शरमाते हुए गाने लगी...'ये जिंदगी उसी की है जो किसी का हो गया....प्यार ही में खो गया...' फिल्म अनारकली के इस गीत के साथ ही अतीत की एक खिड़की खुलती है. तीस बरस पहले..एक छोटा सा सीलन भरा कमरा. मरियल सी रोशनी फेंकता बल्ब. जमीन पर बिछी चटाई और उस पर रखा हारमोनियम. मां इसी गाने को सीख रही थीं. बजाना भी, गाना भी. मां के चेहरे पर तब जो खुशी थी, जो इत्मिनान जो सुकून वो मानो इस गाने में रच बस गया. आज कितने बरस बीत गये, जब भी ये गाना सुनती हूं लौटकर अतीत के उसी टुकड़े में पहुंच जाती हूं...धड़क रहा है दिल तो क्या दिल की धड़कनें न सुन...सुषमा अब भी गा रही थी.

कुछ गाने अपने अस्तित्व को इतना बड़ा बना लेते हैं कि वो सिर्फ किसी का लिखा गीत किसी आवाज या किसी का कंपोजिशन भर नहीं रह जाते. वो उन लम्हों की दास्तान बन जाते हैं जिन लम्हों को जीते हुए सुना था गीतों का. ऐसा ही एक गीत याद आता है बूढ़े पहाड़ों पर...'इन बूढ़े पहाड़ों पर कुछ भी तो नहीं बदला....' बेहद कम लोकप्रिय एलबम का यह गीत हमारे घर में किसी आरती या भजन सा बस बजता रहता था. गुलजार साब की आवाज, सुरेश वाडेकर की गायकी और विशाल भारद्वाज का शायद पहला कंपोजिशन. हमारी मासी रहती थीं उन दिनों हमारे साथ. उन्हें भी यह गाना खूब पसंद था. बाद में वो जब भी आतीं कहतीं, बिट्टा वो वालो गाना नाईं हैं....बूढ़े पहाड़ों वालो. हमैं बहुत नीको लगत है...मासी अब नहीं रहीं...उस कैसेट को रिलीज करने वाली पैन म्यूजिक कंपनी बंद हो गई. लेकिन वो गाना अब भी न जाने कितनी सारी यादों के साथ धड़कता रहता है दिल के बहुत पास...अब जबकि पहाड़ों पर आशियाना बना लिया है तो सोचती हूं सचमुच कुछ भी तो नहीं बदला....इन बूढ़े पहाड़ों पर.

ऐसे ही न जाने कितने किस्से याद आते हैं. अपनी दोस्त ज्योति के साथ जेठ की दोपहरों में लू फांकते हुए थकने के बाद किसी कोने में सिमटकर कैसेट पर सुनना सत्या का वो गाना 'तू मेरे साथ भी है...तू मेरे पास भी है....' ये गुलजार साब की दीवानगी का नया-नया दौर था. 'मैंने...तेरे लिए रस्ता बिछाया है...सूरज उगाया है...' गाने की वो लाइनें चलो हंसे...हंसते ही हंसते ही हंसते रहें...तो हम दोनों सचमुच खूब हंसते...हमने इस गाने को इतना सुना था कि कैसेट इसी गाने पर आकर अटक जाती थी. जिस समय लोग कल्लू मामा और सपने में मिलती है कुड़ी मेरी...सुन रहे थे हम गुलजार साब के बिछाये रास्ते ओढ़े बैठे थे...आज भी इस गाने में काॅलेज के दिन ज्योति के साथ की गई आवारागर्दी याद आती है.

अतीत की परछांइयों को टटोलो तो न जाने कितने नग्मे सांस लेते महसूस होते हैं. न जाने कितनी रातें गुजार दीं मेंहदी हसन साब को सुनते हुए 'जिंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं मैं तो मरके भी मेरी जान तुम्हें चाहूंगा....' लेकिन ये गाना मेरी स्मतियों में दर्ज है प्रकाश की आवाज में. बनारस की वो शाम, मणिकर्णिका घाट के सामने से गुजरते हुए जीवन और मत्यु के बीच के फासले को मिटते हुए देखना और ऐसे में प्रकाश की मीठी आवाज में छिड़ना जिंदगी का ये राग कि जिंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं...मैं तो मरके भी मेरी जान तुझे चाहूंगा. इस गज़ल में गंगा की लहरों की छुअन अब तक बाकी है...और बाकी है बहुत कुछ.

एक बार देर रात देहरादून की वादियों देर तक चलने वाली संगीत की महफिल मे स्वाति ने सुर साधा था...
' आज मेरे पिया घर आयेंगे..' .उस रोज तेज बारिशों वाली रात थी. घाटियों में बारिश की आवाज में स्वाति की आवाज की खुशबू घूल गई थी...अनहद नाद बजाओ री सब मिल....गाते-गाते सुबह हो गई थी....पूरी धरती धुली हुई जिस पर सूरज की मद्धिम किरनों ने फूलों के साथ मिलकर चैक पूरी थी. वो गाना उस दिन से कैलाश खेर का नहीं रहा मेरा और स्वाति का हो गया...देहरादून की उसी रात में कोई जादू रहा होगा कि तब जो मेहमान बनके आई थी शहर में अब इसी शहर में बस गई हूं....
याद करती हूं दिल्ली की वो रात जब निजाम की दरगाह में खुद से विदा मांगने गई थी. कोई इच्छा नहीं थी मन में कि जाने क्यों लग रहा था कि दिन जिंदगी के दिन बस पूरे हुए...हजारों बार सुना हुआ छाप तिलक जब वहां बैठे सूफी गायकों ने छेड़ा तो लगा उन्हें कुछ दे सकूं ऐसा तो कुछ भी नहीं है मेरे पास....' कागा सब तन खाइयो...चुन चुन खाइयो मांस दो नैना मत खाइयो जिन्हें पिया मिलन की आस...' हजारों बार सुना हुआ छाप तिलक उस रोज एकदम अलग था....न वडाली ब्रदर्स न साबरी बंधु न कोई और बस कि कुछ फकीरनुमा गाने वाले और फकीर ही सुनने वाले...


गानों से जुड़ी यादों के सिलसिले में बहादुर शाह जफर की उस गज़ल का जिक्र तो बेहद जरूरी है जिसे एक सत्रह बरस के लड़के की आवाज़ ने अपना बनाकर तोहफे में दिया था. गुलाम अली साहब भी उस रोज उस पर मेहरबान हुए होंगे कि अपनी आवाज का रंग उसे बख्शा था..;कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें इतनी जगह कहां दिले-दागदार में...' दिन जिंदगी के खत्म हुए शाम हो गई...फैला के पांव सोयेंगे कुंजे मज़ार में....उस बच्चे जिसका नाम आसिम है ने अपने बचपन में अपने अब्बा से इसे सुना और सीखा था. अभी उसकी तालीम की मासूमियत पर जमाने के किसी रंग की कोई पर्त नहीं चढ़ी थी. उसकी आवाज शाह के लिखे के संग डूब उतरा रही थी. गंगा के किनारे टहलते हुए कही गई विजय भाई की बात याद हो आई कि हम खुद भी चाहें तो हमेशा वैसा नहीं गा सकते जैसा कभी गा चुके होते हैं...ये बिल्कुल लिखने जैसा भी है कि हम चाहें तो भी अपने ही लिखे जैसा दोहरा नहीं सकते...यह बिल्कुल जीवन जैसा भी तो है ना? जिंदगी के लम्हों से कुछ नग्मे चुनते वक्त क्या-क्या न याद आया....

(अहा जिन्दगी के संगीत विशेषांक में प्रकाशित)

Saturday, January 12, 2013

याद कैलेण्डर



जनवरी-

सर्दियों के लिहाफ से चुपके निकलता है सूरज
कुछ चहलकदमी करके, वापस लौट जाता है
यादों को लौटने का हुनर क्यों नहीं आता...

फरवरी-
सुर्ख फूलों की क्यारियां,
बच्चों की हंसी की खुषबू
तेरी याद सी मासूम...

मार्च-
धरती ने पहनी धानी चूनर
लगाया अमराइयों का इत्र
और तेरी याद का काजल...

अप्रैल-
झर गयी हैं स्मतियां
खाली पड़े हैं आंखों के कोटर
नये भेश में आर्इ है याद इंतजार बनकर...

मर्इ-
हांफते दिनों का हाथ थाम
रात तक बचा ही लेता हूं
आंख की नमी...तुम्हारी कमी....

जून-
गुलमोहर और अमलताष
कुदरत के दो रंग, दो राग
तीसरा तुम्हारी याद...

जुलार्इ-
बूंदों की ओढ़नी
मोहब्बत का राग
और तुम्हारा नाम...

अगस्त- 
दिन की किनारी पर बंधे
दिन... रात...
और तुम्हारे कदमों की आहट

सितंबर-
लाल आकाष पर समंदर की परछांर्इ
रात के माथे पर उगते सूरज की तरह
जैसे तूने जोर से फूंका हो रात को...

अक्टूबर-
वक्त की षाख से उतरकर
कंधे पर आ बैठे हैं
सारे मौसम...

नवंबर-
न जाने कितने लिबास बदलने लगा है दिन
षाम सजनी है किसी दुल्हन की तरह
तेरा जिक्र करता है करिष्मे क्या-क्या...

दिसंबर -
मीर की गजलों का सिरहाना बनाकर
धूप में बैठकर सुनता हूं
तेरे कदमों की आहट....

(31 दिसंबर 2012 को दैनिक जागरण में प्रकाशित)