दिन को पकड़ने को हाथ बढ़ाया तो शाम के आंचल का कोना ही हाथ लगा. वो भी जल्दी ही सरक गया...सर्द गहराती रातों को आने की बड़ी जल्दी रहती है... बड़े से विंडो ग्लास के बाहर मौसम कैसा ठहरा सा था. इत्मीनान से शाख पर रखे पत्ते मानो कोहरे की खुशबू में नहाने को बेताब हों...सिरहाने रखे चिनार के पत्तों पर नमी सी रखी है हालांकि कमरे में ओस का कोई कतरा भी नहीं.
6 नवंबर
जब हम जागे तो मुट्ठियों में सुबह छुपी हुई थी. बारामूला और गुलमर्ग...मुझे क्या याद रहा. रास्ते...रास्ते...रास्ते...पथिकों को रास्तों से प्यार न होगा तो किससे होगा. एक बार फिर खुद को रास्तों के हवाले करना. गुलमर्ग रास्ते भर पुकारता रहा 'आ जाओ... ' इतने खूबसूरत रास्ते कि इन्हीं रास्तों में रह जाने को दिल चाहे. न भूख न प्यास...ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते जाते बर्फ से ढंकी पहाडि़यां और करीब आती जाती, खामोश जंगलों के बीच से गुजरते हुए हम सब कितने खामोश थे. हम सब...एक से धरातल पर. सबको पता है कि खामोशी के राग की तासीर कैसी होती है. मैं किसी ईश्वर को नहीं जानती लेकिन कुदरत के करीब जाते हुए महसूस कर पाती हूं उन आंसुओं की नमी को जो प्रार्थना या दुआ के वक्त ढुलक आते होंगे...' मुझे मुझसे मुक्त करो...' ऐसे ही बुदबुदा उठे थे होंठ...शायद यही मेरी प्रार्थना का ढंग है...गुलमर्ग की दिल लुभाने वाली खूबसूरती को देखते हुए अचानक सिहरन सी हुई. कोई आवाज कानों से टकराई...'अभी रिहाई का वक्त नहीं आया.' किसने कहे होंगे ये शब्द ...दूर-दूर तक तो कोई नहीं था. हां, सामने बर्फ से ढंकी चोटी के ठीक उपर चमकता सूरज पल भर को छुप गया था...सिर्फ पल भर को. जिंदगी की सलाखें बड़ी मजबूत हैं.
जब हम जागे तो मुट्ठियों में सुबह छुपी हुई थी. बारामूला और गुलमर्ग...मुझे क्या याद रहा. रास्ते...रास्ते...रास्ते...पथिकों को रास्तों से प्यार न होगा तो किससे होगा. एक बार फिर खुद को रास्तों के हवाले करना. गुलमर्ग रास्ते भर पुकारता रहा 'आ जाओ... ' इतने खूबसूरत रास्ते कि इन्हीं रास्तों में रह जाने को दिल चाहे. न भूख न प्यास...ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते जाते बर्फ से ढंकी पहाडि़यां और करीब आती जाती, खामोश जंगलों के बीच से गुजरते हुए हम सब कितने खामोश थे. हम सब...एक से धरातल पर. सबको पता है कि खामोशी के राग की तासीर कैसी होती है. मैं किसी ईश्वर को नहीं जानती लेकिन कुदरत के करीब जाते हुए महसूस कर पाती हूं उन आंसुओं की नमी को जो प्रार्थना या दुआ के वक्त ढुलक आते होंगे...' मुझे मुझसे मुक्त करो...' ऐसे ही बुदबुदा उठे थे होंठ...शायद यही मेरी प्रार्थना का ढंग है...गुलमर्ग की दिल लुभाने वाली खूबसूरती को देखते हुए अचानक सिहरन सी हुई. कोई आवाज कानों से टकराई...'अभी रिहाई का वक्त नहीं आया.' किसने कहे होंगे ये शब्द ...दूर-दूर तक तो कोई नहीं था. हां, सामने बर्फ से ढंकी चोटी के ठीक उपर चमकता सूरज पल भर को छुप गया था...सिर्फ पल भर को. जिंदगी की सलाखें बड़ी मजबूत हैं.
जारी...