12 मई 1926 की सुबह के उजाले में कुछ नई रंगत भी शामिल थी. कुदरत का यह नजारा मारीना को प्रिय लगा. कई बार हमें आगत का भान हो जाता है. अनायास दु:खी होना, बेचैन होना या मुस्कुराना असल में उस अनजाने आगत की गंध होते हैं. मारीना भी उस दिन बेवजह मुस्कुराहटों का पिटारा खोले बैठी थी. जैसे-जैसे दिन चढ़ रहा था, वो ढेर सारे घरेलू कामों के बीच मुस्कुराये जा रही थी. उसे यह सुख किसी कविता के पूरा होने के बाद के सुख से भिन्न लगा. तभी पोस्टमैन दरवाजे पर नजर आया. उसे देखते ही मारीना का चेहरा खिल उठा. असल में उसे भी इस आगत का इंतजार था. नौ मई के बाद से हर पल वो दरवाजे की ओर बेचैनी से देखती थी. आखिर उसे रिल्के का पत्र मिला. वो चार लाइनें, 'मारीना त्स्वेतायेवा, क्या तुम सचमुच हो. अगर हो तो क्या यहां नहीं हो? अगर यहां हो तो मैं कहां हूं...?' उसने सैकड़ों बार इन पंक्तियों को पढ़ा. इन पंक्तियों में अपने लिये रिल्के के भीतर महसूस की गई भावनाओं को छूकर देखा और कुदरत का शुक्रिया अदा किया.
जैसा कि प्रेम के बारे में एक शाश्वत सत्य प्रचारित है कि प्रेम में 'धीरज' और 'समझ' का कोई काम नहीं होता. बड़े से बड़ा ज्ञानी इसके आगे औंधे मुंह पड़ा होता है, वो शाश्वत सत्य अपना असर यहां भी काम कर रहा था. मरीना ने जरा भी विलंब किये बगैर रिल्के को उसी दिन एक और पत्र लिखा. लंबा पत्र. यह पत्र भी जर्मन में था. एक ही पत्र के आदान-प्रदान के बाद मारीना रिल्के को खुद के करीब महसूस कर रही थी. और अपना अतीत, वर्तमान, भविष्य के सपने, सुख सारे, दर्द जो सहे उसने सबके सब बांट लेना चाहती थी.
'धीरज'...बस एक शब्द भर रह गया था और वो उसकी बुकशेल्फ के आसपास मंडराता रहता था. मारीना पत्र लिखने में इतनी मसरूफ थी कि उसके पास धीरज के बारे में सोचने का वक्त ही नहीं था. रिल्के को पत्र लिखते समय मरीना कभी तो मुस्कुरा उठती और कभी सिसक ही पड़ती. उसके अतीत का एक-एक धागा उधड़ रहा था. उसने उस लंबे पत्र में खुद को उड़ेल दिया और उसी दिन वह पत्र रिल्के के लिए रवाना किया. पत्र भेजने के बाद मरीना ने अपने भीतर परिवर्तन महसूस किया. उसे लगा कि उसका शरीर पंखों से भी हल्का हो गया है. बरसों से जिस तन्हाई और उदासी की पर्तों को वो भीतर छुपाये थी, उन्हें उसने बाहर निकाला था. रिल्के को खत लिखने के बहाने उसने खुद से बात की थी और अपने आपको सुना था. रिल्के अब उसके लिए एक महान कवि भर नहीं था.
रिल्के को मारीना के पत्र का उतनी ही बेसब्री से इंतजार था या नहीं इसका ब्योरा कहीं उपलब्ध नहीं है सिवाय इस बात के कि रिल्के को जैसे ही 17 मई को मारीना का यह लंबा पत्र मिला, उसी दिन इस महान कवि ने उस पत्र का पूरी आत्मीयता से जवाब दिया. रिल्के ने मारीना की संवेदनशीलता से प्रभावित होकर उसकी प्रशंसा की. उसकी कविताओं पर बात की. कुछ कविताओं के बारे में दरयाफ्त की जो कठिन रूसी में होने के कारण उसे ठीक से समझ में नहीं आई थी. इन पत्रों के जरिये वे अनौपचारिक ढंग से बात करने लगे थे और रिल्के ने मारीना को स्पष्ट रूप से लिखा कि अगर कभी व्यस्तता के चलते उसे पत्र का जवाब देने में विलंब हो या वो जवाब न दे पाये तो इसे अन्यथा लिये बगैर मरीना उसे लगातार पत्र लिखती रहे. यह संदेश मारीना के लिये रिल्के की जिंदगी में खास जगह बना लेने की मुनादी जैसा था. मारीना को यूं भी लंबे-लंबे खत लिखने की आदत थी. उसका अधिकतम जीवन उसके द्वारा लिखे खतों से ही झरता है. जैसे ही कोई खत झाडि़ए अंजुरी भर मारीना झरती है. अन्ना अख्मातोवा, बोरिस परस्तेनाक, इवानोविच युरकेविच, एफ्रोन,अन्ना अन्तोनोव्ना, असेयेव, पाब्लेन्को, मायकोवेस्की आदि न जाने कितने लोग थे जिनसे मारीना का नियमित पत्र-व्यवहार होता था. ये पत्र रूस के उस समय के हालात, कवियों, कलाकारों के सामाजिक, राजनैतिक और निजी जीवन के संघर्ष, कविता की स्थिति, कविता के संघर्ष आदि को बयान करते हैं.
बहरहाल, मारीना अब रिल्के को नियमित पत्र लिखने लगी थी और उसने महसूस किया कि रिल्के के संपर्क में आने के बाद, कविता पर लंबी बातचीत के बाद मारीना की कविताओं में सुधार हो रहा है. वो अब अपनी कविताओं से पहले से ज्यादा संतुष्ट थी. जीवन से भी. एक मुस्कुराहट उसके उदास जीवन में उम्मीद बनकर बरस रही थी. वो उस उम्मीद की बारिश में अपनी कविताओं के साथ खुद को खुला छोडऩे को आतुर थी...
(जारी...)
जैसा कि प्रेम के बारे में एक शाश्वत सत्य प्रचारित है कि प्रेम में 'धीरज' और 'समझ' का कोई काम नहीं होता. बड़े से बड़ा ज्ञानी इसके आगे औंधे मुंह पड़ा होता है, वो शाश्वत सत्य अपना असर यहां भी काम कर रहा था. मरीना ने जरा भी विलंब किये बगैर रिल्के को उसी दिन एक और पत्र लिखा. लंबा पत्र. यह पत्र भी जर्मन में था. एक ही पत्र के आदान-प्रदान के बाद मारीना रिल्के को खुद के करीब महसूस कर रही थी. और अपना अतीत, वर्तमान, भविष्य के सपने, सुख सारे, दर्द जो सहे उसने सबके सब बांट लेना चाहती थी.
'धीरज'...बस एक शब्द भर रह गया था और वो उसकी बुकशेल्फ के आसपास मंडराता रहता था. मारीना पत्र लिखने में इतनी मसरूफ थी कि उसके पास धीरज के बारे में सोचने का वक्त ही नहीं था. रिल्के को पत्र लिखते समय मरीना कभी तो मुस्कुरा उठती और कभी सिसक ही पड़ती. उसके अतीत का एक-एक धागा उधड़ रहा था. उसने उस लंबे पत्र में खुद को उड़ेल दिया और उसी दिन वह पत्र रिल्के के लिए रवाना किया. पत्र भेजने के बाद मरीना ने अपने भीतर परिवर्तन महसूस किया. उसे लगा कि उसका शरीर पंखों से भी हल्का हो गया है. बरसों से जिस तन्हाई और उदासी की पर्तों को वो भीतर छुपाये थी, उन्हें उसने बाहर निकाला था. रिल्के को खत लिखने के बहाने उसने खुद से बात की थी और अपने आपको सुना था. रिल्के अब उसके लिए एक महान कवि भर नहीं था.
रिल्के को मारीना के पत्र का उतनी ही बेसब्री से इंतजार था या नहीं इसका ब्योरा कहीं उपलब्ध नहीं है सिवाय इस बात के कि रिल्के को जैसे ही 17 मई को मारीना का यह लंबा पत्र मिला, उसी दिन इस महान कवि ने उस पत्र का पूरी आत्मीयता से जवाब दिया. रिल्के ने मारीना की संवेदनशीलता से प्रभावित होकर उसकी प्रशंसा की. उसकी कविताओं पर बात की. कुछ कविताओं के बारे में दरयाफ्त की जो कठिन रूसी में होने के कारण उसे ठीक से समझ में नहीं आई थी. इन पत्रों के जरिये वे अनौपचारिक ढंग से बात करने लगे थे और रिल्के ने मारीना को स्पष्ट रूप से लिखा कि अगर कभी व्यस्तता के चलते उसे पत्र का जवाब देने में विलंब हो या वो जवाब न दे पाये तो इसे अन्यथा लिये बगैर मरीना उसे लगातार पत्र लिखती रहे. यह संदेश मारीना के लिये रिल्के की जिंदगी में खास जगह बना लेने की मुनादी जैसा था. मारीना को यूं भी लंबे-लंबे खत लिखने की आदत थी. उसका अधिकतम जीवन उसके द्वारा लिखे खतों से ही झरता है. जैसे ही कोई खत झाडि़ए अंजुरी भर मारीना झरती है. अन्ना अख्मातोवा, बोरिस परस्तेनाक, इवानोविच युरकेविच, एफ्रोन,अन्ना अन्तोनोव्ना, असेयेव, पाब्लेन्को, मायकोवेस्की आदि न जाने कितने लोग थे जिनसे मारीना का नियमित पत्र-व्यवहार होता था. ये पत्र रूस के उस समय के हालात, कवियों, कलाकारों के सामाजिक, राजनैतिक और निजी जीवन के संघर्ष, कविता की स्थिति, कविता के संघर्ष आदि को बयान करते हैं.
बहरहाल, मारीना अब रिल्के को नियमित पत्र लिखने लगी थी और उसने महसूस किया कि रिल्के के संपर्क में आने के बाद, कविता पर लंबी बातचीत के बाद मारीना की कविताओं में सुधार हो रहा है. वो अब अपनी कविताओं से पहले से ज्यादा संतुष्ट थी. जीवन से भी. एक मुस्कुराहट उसके उदास जीवन में उम्मीद बनकर बरस रही थी. वो उस उम्मीद की बारिश में अपनी कविताओं के साथ खुद को खुला छोडऩे को आतुर थी...
(जारी...)
6 comments:
जैसे ही कोई खत झाडि़ए अंजुरी भर मरीना झरती है. ...ठीक ऐसे ही आप के ब्लॉग का कुछ भी झाडिए तो आप दिखती हैं ...सुन्दर!!
इंतजार है अगली किस्त का :-)
kya baat hai dr nidhi tondon ne to man ki baat kah di.
वो उस उम्मीद की बारिश में अपनी कविताओं के साथ खुद को खुला छोडऩे को आतुर थी...और मैं इस पूरी प्रक्रिया में अपने मन को समझ रहा था। अच्छा लग रहा है इन पातियों को पढ़कर और समझकर। वैसे समझना आसान नहीं है, इसके लिए रियाज करना होगा।
अभी इतना ही कि अगली किस्ता का बेसब्री से इंतज़ार है..
Its beautiful..
Continue.....
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