Friday, November 23, 2018

कहानी- अभिनय


'लो भई! तुम्हारी मिठाई और पेस्ट्रीज' पसीने में सने प्रणय ने थैला उज्ज्वला को थमा दिया. करीने से सजा कमरा बेहद सुकून दे रहा था प्रणय को. उज्ज्वला पूरे उत्साह से घर का कोना-कोना झाड़ने-पोछने में मशगूल थी. अठारह साल बाद अपनी प्यारी सहेली सुषमा का इंतजार करना उज्ज्वला को रुचिकर लग रहा था.

सुषमा आजकल बड़ी टीवी स्टार है. 'दमयंती' ने उसे रातो-रात स्टार बना दिया है लेकिन उज्ज्वला जिस सुषमा का इंतजार कर रही है, वह स्टार नहीं है. उसकी स्मृतियों में तो वही कॉलेज के ज़माने की सुषमा है. एक-दूसरे के बगैर एक दिन भी चैन से न रहने वाली सहेलियाँ आज अठारह साल बाद मिलेंगी यह ख्याल ही उज्ज्वला को रोमांचित किये जा रहा था.

'अरे भई, अगर तुम्हारी स्वागत की तैयारियां पूरी हो गयी हों तो हम लोग चलें स्टेशन से उसे रिसीव करने।' प्रणय का स्वर गूंजा तो उज्ज्वला की तन्द्रा भंग हुई.

'हाँ, हाँ, बस दो मिनट रुको, मैं जरा साड़ी बदल लूं. अच्छा बताओ प्रणय, सुषमा कैसी हो गयी होगी.?' दरवाजा भेड़ते हुए उज्ज्वला ने अतिरेक से पूछा।

'बिलकुल चुस्त-दुरुस्त और खूब मोटी।' गेट पर कोई स्त्री स्वर गूंजा।
'अरे सुषमा तू!' उज्ज्वला को जैसे अपनी आँखों पर यकीन ही नहीं आ रहा था.
'हाँ भई, शत-प्रतिशत मैं यानी सुषमा. हमेशा की तरह समय से थोड़ा पहले।' मारे भावुकता के उज्ज्वला की आँखें छलक पड़ीं. सफर की थकान को उज्जवला की बाहों में सौंपकर सुषमा भी उमड़ पड़ी थी. अब तक प्रणय रिक्शे से सामान उतार चुका था.
'सुषमा तू ऐसी कठोर निकलेगी, मैं न जानती थी. इतने सालों में कोई खबर नहीं।'
गुदगुदे सोफों में धंसते हुए यह उलाहना मीठा लगा सुषमा को.
'सब बताऊँगी, धीरज रख लेकिन अभी तो मुझे नहाना है, बहुत थक गयी हूँ.'
सुषमा नहाने गयी और उज्ज्वला ने चाय का पानी चढ़ा दिया। कितना कुछ कहना-सुनना है दोनों को. लम्बा अंतराल और हर पल का हिसाब।
'लो उज्जवला, मैं तो आ गई. नहा धोकर। चाय तैयार हो तो फटाफट पिलाओ।' उम्र खिंचकर पचास की ड्योढ़ी पर आ पहुंची है. अपने फिगर पर इतराने वाला जिस्म फूलकर बेडौल हो गया है. लेकिन आवाज में वही अल्हड़ रवानगी है.
'सुषमा, तू तो खूब मुटा गयी है.'
'हाँ यार, कुछ रोल की डिमांड और कुछ ज़माने से लड़ने की ताकत बटोरने के चक्कर में कुछ ज्यादा ही फूल गयी हूँ.' सुषमा ने बात कह तो दी लेकिन चाय की प्यालियों के बीच कहीं अवसाद का नन्हा टुकड़ा भी आ छुपा जिसे प्रणय की चुहल ने धीरे से किनारे किया.
प्रणय को डाक्टर के यहाँ जाना था. पिछले हफ्ते जिस दाढ़ की फिलिंग कराई थी वह फिर टीस मार रही थी. प्रणय के जाने के बाद खूब सारा एकांत समेट कर दोनों बैठी थीं मन में अथाह समन्दर समेटे। यह तय कर पाना बड़ा मुश्किल था कि वक़्त की किस गिरह को पहले खोला जाय.
उज्ज्वला रात के खाने के लिए शिमला मिर्च और कटहल ले आयी थी काटने के लिए.
'तेज़ रफ्तार से जिन्दगी का पीछा करते-करते मैं अब थकने लगी हूँ उज्ज्वला। जीवन के लम्बे सफर की थकान तुझसे बांटने का जी चाहा इसलिए चली आई इतने सालों बाद, निसंकोच।'  सुषमा ने बातचीत का सिरा पकड़ा.
'लेकिन तुमने इतने सालों में एक बार भी मुझसे मिलने की कोशिश नहीं की क्या सचमुच तुम्हें मेरी याद ही नहीं आई.' उज्ज्वला के उलाहने में गहरा दुःख था.
'ऐसा नहीं है उज्ज्वला. दरअसल, इन सालों में मैं जिन-जिन रास्तों से गुजरी, उसकी गर्द भी तुम तक पहुंचने देना नहीं चाहती थी. मेरे सारे सगे-सम्बन्धी मुझसे दूर हो चुके थे. ऐसे में तेरे होने का एहसास ही मुझे सहारा देता था. मैं इसे टूटने नहीं देना चाहती थी. इसलिए खुद को दूर रखा तुझसे। लेकिन रख नहीं पायी कभी भी.' सुषमा का स्वर भीगने लगा था. 'और इसलिए अब आ गयी तुम्हारे पास कुछ दिन चैन से रहने। प्रणय को ऐतराज तो न होगा न ?' सुषमा ने उज्ज्वला की आँखों में झांकना चाहा, लेकिन वे तो दूर कहीं अतीत खंगाल रही थीं
'तुमने कुछ जवाब नहीं दिया उज्ज्वला?'
'अं SSS क्या?' उज्ज्वला वापस लौटी।
'अगर मैं कुछ दिन यहाँ रह जाऊं तो प्रणय को ऐतराज तो न होगा?'
'ऐतराज? प्रणय को? सवाल ही नहीं उठता। बल्कि उसे तो ख़ुशी होगी. सुषमा प्रणय मेरी भावनाओं को खूब समझता है' उज्ज्वला के इस वाक्य में काफी आत्मविश्वास था.
'उज्ज्वला, तू सचमुच किस्मतवाली है जो प्रणय तुम्हारी भावनाओं को समझता है. वरना आमतौर पर पति अपनी  असहमतियों को तर्कों की चाशनी में लपेटकर पत्नियों को कुछ यूँ चटाते हैं कि आमतौर पर वे कन्विंस हो ही जाती हैं और अगर नहीं होतीं छोटे-छोटे झगड़े एक बड़े तूफ़ान में बदलकर घर-परिवार, गृहस्थी सब तबाह कर देते हैं.' सुषमा की आँखें छलक पड़ी थीं.
'तू विपिन की बात कर रही है?' उज्जवला ने सुषमा की आँखों में झाँका।
'हाँ, विपिन से मेरे तलाक की वजह सिर्फ इतनी थी कि उसके तर्क मेरी असहमतियों का सामना नहीं कर पाते थे. उसका पति परमेश्वर होने का गुरूर मुझे मंजूर नहीं था. मैं उसकी आज्ञा मानने वाली हाँ, में हाँ और न में न करने वाली कठपुतली नुमा पत्नी न थी और यह उसे मंजूर नहीं था. भला हमारी गृहस्थी संघर्षों का इतना बोझ किस तरह सहती।'
'तो तू झगड़ा बढ़ाती ही क्यों थी?' उज्ज्वला ने उसे आदर्श पत्नी होने के नुस्खे बताने चाहे, लेकिन सुषमा आज पुराने जख्मों की पिटारी खोले बैठी थी.
'मैं झगड़ा नहीं बढ़ाती थी उज्ज्वला। मैंने बहुत समझौते किये. दो साल मैं विपिन की पत्नी रही, लेकिन एक पल के लिए उस व्यक्ति ने मेरी कद्र नहीं की. मैं चाहती थी परिवार बचा रहे लेकिन मैं खुद को भी बचाकर रखना चाहती थी. मैं थियेटर करना चाहती थी लेकिन विपिन को यह पसंद नहीं था. शहर में होने वाले प्ले देखने जाने की बजाय मुझे बिजनेस पार्टियों में जाना पड़ता था. मुझे लगने लगा था कि मैं एक उद्योगपति की शो-पीसनुमा पत्नी बनकर रह गयी हूँ. हमारा रिश्ता लगातार तनता जा रहा था. आखिर एक न एक दिन तो इसे टूटना ही था. इसके बाद समाज के अपमान और धिक्कार मिलने का दौर शुरू हुआ. इस सबके बीच खुद को संभालकर रखना सचमुच बहुत मुश्किल था.'
'तेरे घरवालों ने तेरा साथ नहीं दिया?' उज्ज्वला वक़्त  के गर्द खाये पुराने पन्नों को पढ़ते हुए काफी हैरान हो रही थी.
'घरवाले! उज्ज्वला ऐसे ही वक़्त में रिश्तों की सच्चाई सामने आती है. घरवालों की नज़र में भी तलाक  की दोषी मैं ही थी. मेरे तलाक से उनकी गर्दन शर्म से झुक रही थी. यू नो उज्ज्वला वी आर लिविंग इन डैमेज़्ड सिस्टम एंड सोसायटी. सदियों पुराने ढर्रों पर सोचते दिमाग हैं.'
सुषमा का अतीत कमरे में बिखरा पड़ा था. सब्जी काटते हुए वक़्त के जिस हिस्से को उज्ज्ज्वला जी रही थी वहां से वापस आना नहीं चाहती थी. सुषमा के चुप होते ही ख़ामोशी दोनों के दरम्यान मंडराने लगी.

जारी...

(सन 2000  में हंस के स्त्री विशेषांक में प्रकाशित कहानी )

लिखना नदी में पाँव डालकर बैठने जैसा हो


कब लिखना शुरू किया था याद नहीं लेकिन इतना याद है कि जब लिखना शुरू किया था तब लिखने के बारे में सोचा नहीं था. बस कोई हूक उठी थी जो सध नहीं रही थी. छोटी सी उम्र में दोस्त भी कम ही थे सो लिखने से ही दोस्ती भी गई. अब भी यह दोस्त ही है, इससे ज्यादा कुछ हो ऐसा कभी चाहा नहीं। वैसे दोस्त से बढ़कर क्या होता है भला. बस कि दोस्त हो और हर हाल में हो. जीवन के, मन के कैसे भी हों हालात दोस्त रहे साथ. लड़े, भिड़े, रूठ जाए फिर मना भी लाये। लिखना ऐसे ही रहा हमेशा. बिना किसी आकांक्षा के, लिखे से बिना किसी अलग तरह की कोई ख़्वाहिश जोड़े. बस नदी के किनारे पांव डालकर बैठने के सुख जैसा. जब कहानियां लिखीं तो पता नहीं था कि कहानी लिख रही हूँ, या जो लिख रही हूँ वो कहानी हो जाएगी। ऐसे ही कविताओं के साथ हुआ. पता नहीं चला कि कब क्या कैसे लिखा कब वो लिखा क्या बना और कब बनते- बनते रह गया. मेरे लिए उस वक़्त वैसा ही लिखा जाना जरूरी था जैसा वो लिखा गया. इसके इतर लिखने का प्रयास नहीं किया. चाहती हूँ यह लिखना ऐसे ही रहे जीवन में, सांस के जैसा। न इससे कम न इससे ज्यादा। न इससे ज्यादा की कोई अभिलाषा ही.

मुझे अपने लिखने में यह याराना बचाये रखना है. कि मुझे हर हाल में मेरा यह दोस्त मुझे संभाले रहे. बस इतना  ही.

Thursday, November 22, 2018

कभी धनक सी उतरती थी उन निगाहों में


- फहमीदा रियाज 

कभी धनक सी उतरती थी उन निगाहों में
वो शोख़ रंग भी धीमे पड़े हवाओं में

मैं तेज़-गाम चली जा रही थी उस की सम्त
कशिश अजीब थी उस दश्त की सदाओं में

वो इक सदा जो फ़रेब-ए-सदा से भी कम है
न डूब जाए कहीं तुंद-रौ हवाओं में

सुकूत-ए-शाम है और मैं हूँ गोश-बर-आवाज़
कि एक वा'दे का अफ़्सूँ सा है फ़ज़ाओं में

मिरी तरह यूँही गुम-कर्दा-राह छोड़ेगी
तुम अपनी बाँह न देना हवा की बाँहों में

नुक़ूश पाँव के लिखते हैं मंज़िल-ए-ना-याफ़्त
मिरा सफ़र तो है तहरीर मेरी राहों में.

(स्मृति शेष)

Tuesday, November 20, 2018

मौसम


वो जो बो कर गए थे न तुम
उदासी के बीज
उनमें निकल आये थे कल्ले

ज्यादा सार संभाल नहीं मांगी उन्होंने
वो बढ़ते रहे धीरे-धीरे
चुपचाप
नवम्बर लगते ही उसमें खिला था पहला फूल
इन दिनों पूरा पेड़
गुलाबी फूलों से भरा है
ये मौसम गुलाबी यूँ ही नहीं हुआ जा रहा.

Monday, November 12, 2018

चलते जाने का सबब कोई नहीं


एक शोर से गुजरी हूँ, दूसरे शोर में दाखिल हुई हूँ. तीसरा शोर इंतज़ार में है. फिर शायद चौथा, पांचवां या सौवां शोर. चल रही हूँ चलने का सबब नहीं जानती शायद इतना ही जानती हूँ कि न चलना फितरत ही नहीं. चलना कई बार शोर से भागना भी होता है यह जानते हुए भी कि यह शोर अंतहीन है. भीतर जब शोर हो तो बाहर तो इसे होना ही हुआ. मुझे शोर से मुक्ति चाहिए, खूब बोलते हुए घनी चुप में छुप जाने का जी चाहता है. शांति चाहती हूँ लेकिन जैसे ही शांति के करीब पहुँचती हूँ घबरा जाती हूँ. क्या चाहती हूँ पता नहीं, बस चलना जानती हूँ सो चल रही हूँ. लगता है सदियों से चल रही हूँ. अब मेरी चाल थकने लगी है, मैं भी थकने लगी हूँ, सोना चाहती हूँ. बेफिक्र नींद.

मेरे कानों ने कभी यह नहीं सुना कि 'मैं हूँ न'. खुद को रोज हारते देख उदास हुआ करती थी. फिर हताश होने लगी. इस उदासी और हताशा में शायद जीने की इच्छा रही होगी. तो चल पड़ी एक रोज जीने की तलाश में. तबसे चलती जा रही हूँ. नहीं जानती  थी कि जीने की ख्वाहिश करना कितना मुश्किल होता है. हालाँकि बिना जिए जीते जाने से ज्यादा मुश्किल भी नहीं.

हर रोज नई जंग होती है. एक लम्हे में हजार गांठें लगी होती हैं सुलझाते-सुलझाते और उलझा लेती हूँ. कभी सुलझ जाए कोई लम्हा तो बच्चों सी चहक उठती हूँ उस पल भर की चहक में ही जीवन है. मैं उसे ही खोज रही थी शायद। खोज रही हूँ. हर रोज अपनी हाथों की लकीरों को देखती हूँ वो रोज बदली हुई नज़र आती हैं, कई रेखाएं तो घिस चुकी हैं एकदम. कुछ मुरझा चुकी हैं. मुझे कुछ नहीं चाहिए असल में. कुछ भी नहीं. मैं निराश नहीं हूँ, हताश भी नहीं हूँ बस थक गयी हूँ. बहुत थकन है पोर-पोर में. न कोई इच्छा शक्ति देती है न सपना ही कोई बस कि पैरों में बंधी चरखी पर नाचती फिरती हूँ. किसी भी लम्हे में इत्मिनान नहीं, सुख नहीं हालाँकि सुख जिसे कहती है दुनिया बिखरा है हर तरफ.

बचपन से अब तक जो बात याद आती है कि सबको मेरी जरूरत है, बहुत जरूरत, इतनी कि बचपन में बचपन की जगह ही नहीं बची. मुझे कभी नहीं बताया किसी ने कि कौन सी शरारत किया करती थी मैं, किस बात पर अड़ जाती थी जिद पर. बिना जिया हुआ उदास बचपन साथ रहता है. साथ वो सब रहता है जो था नहीं, जो साथ है वो साथ लगा नहीं कभी.

दोस्त कहती है, कुछ भी शाश्वत नहीं, हाँ, समझती हूँ. शाश्वत कुछ भी नहीं सिवाय इस उदासी के. इस उदासी की गोद में सर रखकर सो जाना ही उपाय है. 'मैं हूँ न' की यात्रा तय कर पाना आसान कहाँ होता है।

(नोट- कहीं भी साझा करने या प्रकाशित करने के लिए नहीं )