Friday, October 13, 2017

अक्टूबर की हथेली पर...


अक्टूबर की हथेली पर
शरद पूर्णिमा का चाँद रखा है
रखी है बदलते मौसम की आहट
और हवाओं में घुलती हुई ठण्ड के भीतर
मीठी सी धूप की गर्माहट रखी है

मीर की ग़ज़ल रखी है
अक्टूबर की हथेली पर
ताजा अन्खुआये कुछ ख्वाब रखे हैं

मूंगफली भुनने की खुशबू रखी है
आसमान से झरता गुलाबी मौसम रखा है
बेवजह आसपास मंडराती
मुस्कुराहटें रखी हैं
अक्टूबर की हथेली पर

परदेसियों के लौटने की मुरझा चुकी शाख पर
उग आई है फिर से
इंतजार की नन्ही कोंपलें
अक्टूबर महीने ने थाम ली है कलाई फिर से

कि जीने की चाहतें रखी हैं
उसकी हथेली पर
धरती को फूलों से भर देने की
तैयारी रखी है
बच्चों की शरारतों का ढेर रखा है
बड़ों की गुम गयी ताकीदें रखी हैं
उतरी चेन वाली साइकिल रखी है एक
और सामने से गुजरता
न खत्म होने वाला रास्ता रखा है
अपनी चाबियाँ गुमा चुके ताले रखे हैं
मुरझा चुके कुछ ‘गुमान’ भी रखे हैं
अक्टूबर की हथेली पर

पडोसी की अधेड़ हो चुकी बेटी की
शादी का न्योता रखा है
कुछ बिना पढ़े न्यूजपेपर रखे हैं
मोगरे की खुशबू की आहटें रखी हैं
और भी बहुत कुछ रखा है
अक्टूबर की हथेली में
बस कि तुम्हारे आने का कोई वादा नहीं रखा...

4 comments:

ANHAD NAAD said...

उम्दा !

सुशील कुमार जोशी said...

सुन्दर।

Onkar said...

सुन्दर कविता

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (15-10-2017) को
"मिट्टी के ही दिये जलाना" (चर्चा अंक 2758)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'