Saturday, November 26, 2016

जलने दो लोगों को-दोस्तोएवस्की


दोस्तोएवस्की का पत्र ऐना के नाम 

प्रिये,

तुम लिखती हो- मुझे प्यार करो! पर क्या मैं तुम्हें प्यार नहीं करता? असल बात यह है कि ऐसा शब्दों में कहना मेरी प्रवृत्ति के खिलाफ है। तुमने खुद भी इसे महसूस किया होगा लेकिन अफसोस तुम महसूस करना जानती ही नहीं अगर जानती होती, तो ऐसी शिकायत कभी नहीं करती।मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूं अब तक तुम्हें पता होना चाहिए था लेकिन तुम कुछ समझना नहीं चाहतीं। मैं अभिव्यक्तियों में विश्वास नहीं करता महसूस करने में करता हूं. अब यह भाषणनुमा पत्र लिखना बंद कर रहा हूं.

तुम्हारे पैरों की उंगलियों का चुंबन लेने के लिए मैं तड़प रहा हूं.

तुम कहती हो कि अगर कोई हमारे पत्र पढ़ ले तो क्या हो? ठीक है, पढऩे दो लोगों को और जलन महसूस करने दो।

हमेशा तुम्हारा
दोस्तोएवस्की

(दोस्तोवस्की: क्राइम और पनिश्मेंट का लेखक फ्योदोर दोस्तोवस्की. दुनिया बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार, जिसको राजद्रोह के अपराध में मृत्युदंड दे दिया गया, पर ठीक फांसी के समय पर वह दंड सात साल के साइबेरिया से निष्कासन में परिवर्तित कर दिया गया)

Wednesday, November 23, 2016

आँखें हँस दीं दिल रोया, यह अच्छी बरसात मिली...



मीना कुमारी एक ऐसा नाम है जो सिर्फ गुज़र नहीं जाता, वो एहसास से चिपक जाता है. उनकी अदायगी, उनके अल्फाज़ और ज़िन्दगी से उनका रिश्ता...कॉलेज के ज़माने में ये नज़्म इस कदर मेरे पीछे पड़ी थी कि इसी में मुब्तिला रहने की बेताबी थी...जैसे कोई नशा हो...हल्का हल्का सा...रगों में घुलता हुआ...घूँट घूँट हलक से उतरता हुआ...दर्द का नशा...मीना आपा ने इस नशे को भरपूर जिया...ज़िन्दगी ने उनके साथ मुरव्वत की ही नहीं और एक रोज़ आज़िज़ आकर उन्होंने ज़िन्दगी से कहा, 'चल जा री जिन्दगी...'

हिंदी कविता ने एक बार मीना आपा का जादू फिर से जगा दिया है...बेहद खूबसूरत है ये अंदाज़ ए बयां...रश्मि अग्रवाल जी ने उन्हें याद करते हुए अपने भीतर ही मानो ज़ज्ब कर लिया हो...बाद मुद्दत फिर से मीना आपा हर वक़्त साथ रहने लगी हैं....दिन हैं कि अब भी टुकड़े टुकड़े ही बीत रहे हैं...शुक्रिया मनीष इस अमानत को इस तरह संजोने के लिए....

- मीना कुमारी 

टुकड़े-टुकड़े दिन बीता, धज्जी-धज्जी रात मिली
जिसका जितना आँचल था, उतनी ही सौगात मिली

रिमझिम-रिमझिम बूँदों में, ज़हर भी है और अमृत भी
आँखें हँस दीं दिल रोया, यह अच्छी बरसात मिली

जब चाहा दिल को समझें, हँसने की आवाज सुनी
जैसे कोई कहता हो, ले फिर तुझको मात मिली

मातें कैसी घातें क्या, चलते रहना आठ पहर
दिल-सा साथी जब पाया, बेचैनी भी साथ मिली

होंठों तक आते आते, जाने कितने रूप भरे
जलती-बुझती आँखों में, सादा सी जो बात मिली


Thursday, November 17, 2016

छाना बिलौरी का घाम....



बेसबब जागती रातों को परे धकिया कर, दौड़ती-भागती जिन्दगी में से कोई सुबह चुरा लेने का बड़ा सुख होता है. उन सुबहों को सेब, नाशपाती, पुलम आदि के फूलों के बीच अंजुरियों में भरते हुए, भीमताल की टेढ़ी-मेढ़ी सी सडक पे इक्क्म दुक्क्म खेलती धूप को देखते हुए, ऊंची पहाड़ियों के बीच ख़ामोशी से ठहरी हुई झील के किनारे से गुजरते हुए या कभी किसी चाय के ढाबे के किनारे बैठकर पीते हुए कडक चाय, सुनते हुए पहाड़ी (कुमाउनी) धुन...जिन्दगी...हथेलियों पे रेंगती हुई मालूम होती है...कभी पलकों की कोरों पर अटकी हुई भी महसूस होती है...वो पहाड़ी धुन आहिस्ता आहिस्ता फिजाओं में घुलती रहती है...रगों में भी घुलती है हौले से...

बरस बीत गया वो धुन अब भी रगों में रेंगती है...कभी साँसों में सुलगती है...कई रोज से ये धुन सर पे सवार है...छाना बिलौरी का घाम...जिसमे एक बेटी अपने बाबुल को कह रही है कि ओ बाबुल, मुझे छाना बिलौरी यानि जहाँ बहुत तेज़ धूप पड़ती है वहां मत ब्याहना वरना मैं वहां किस तरह रह पाऊंगी, किस तरह काम कर पाऊँगी....

ये कुमाउनी गीत मेरे लिए भूपेन जी की आवाज में ही दर्ज है...हालाँकि इसके मूल गायक हैं गोपाल दा यानि गोपाल बाबू गोस्वामी...बाद में इसे कई लोगों ने इसे अपनी अपनी तरह से गाया...गाते रहेंगे....

इस गीत को सुनते हुए सोचती हूँ इस बरस भी वैसे रास्ते फूलों से भरे होंगे, फयूली वैसे ही फूली होगी, बच्चे स्कूल जाते हुए शरारतें करते जाते होंगे, नन्ही सी पगडण्डी पे वो अकेला पेड़ अब भी मुस्कुरता होगा, अब भी झील के किनारों पे रंगीन नाव सजी होंगी...कुछ भी कहाँ बीतता है...सात ताल के रास्तों को किस तरह हमने शरारतों से भर दिया था, देखो न ये छाना बिलौरी के घाम की तपिश में सारे बीते हुए लम्हे किस कदर चमक रहे हैं...

दोस्त कहते हैं तुम पक्की पहाड़ी हो गयी हो, मैं सुनकर ख़ुशी से झूम उठती हूँ. जिन्दगी जब पहाड़ होने लगी थी तब पहाड़ों का रुख किया था और जिस मोहब्बत से सीने से लगाया था पहाड़ों ने ऐसा लगा था कि बरसों बाद परदेस से आई बिटिया को मायके की छत मिली हो.

जन्म भले ही धरती के किसी भी कोने पे हुआ हो लेकिन महसूसने से लगता है कि इन्हीं पहाड़ों की हूँ कबसे. ये गीत सुनते हुए पहाड़ों से अपनेपन का एहसास और बढ़ता जाता है...मंडवे की रोटी की खुशबू आ रही है पास ही से....




Monday, November 14, 2016

तेरे इंतजार का चाँद...


किसने बगिया में खिलाया है तेरी याद का चाँद, किसने सांसों में बसाई है तेरे वस्ल की खुशबू. ये किसकी हरारत है जो सर्द मौसम में घुल गयी है...कौन है जिसकी आहटों ने धरती को सजाया है. कोई चेहरा नहीं कहीं फिर भी कोई रहता तो आसपास ही है.

हाथों की लकीरों में कहाँ ढूँढा करते, कि लकीरें तो बचपन के छ्प्पाकों में गुमा आई थी लकीरें सारी...माँ हर वक़्त मेरी तक़दीर की चिंता में माथे पे लकीरें बढ़ाये फिरती रही...उसकी माथे की लकीरें मेरी हाथों की तक़दीर कैसे होतीं...कि मेरी तक़दीर उन लकीरों से बहुत आगे थी...

जब सबकी ड्योढ़ी पे बुझ जाता पूर्णमासी चाँद, मेरी बगिया में जलता रहता तेरे इन्तजार का चाँद... बुझता ही नहीं, कोई इस बात को बूझता ही नहीं...अमावस की डाल को तोड़कर दूर कहीं फेंक आई थी...चाँद उगता है, रोज मेरे आंगन में... आज भी उगा है वैसा ही तेरे इंतजार का चाँद...और एक जगजीत सिंह हैं कि चाँद को रुखसत कर देने की रट लगाये हुए हैं...जबकि मेरे गमखाने में सिर्फ चाँद ही आ सकता है...

जगजीत सिंह मानते ही नहीं....गाये जा रहे हैं...रिपीट में...

मेरे दरवाजे से अब,चाँद को रुखसत कर दो 
साथ आया है तुम्हारे,जो तुम्हारे घर से
अपने माथे से हटा दो,ये चमकता हुआ ताज
फेंक दो जिस्म से किरनों का, सुनहरी जेवर

तुम्हीं तन्हा मेरे गमखाने में आ सकती हो
एक मुद्दत से तुम्हारे ही लिए रखा है
मेरे जलते हुए सीने का दहकता हुआ चाँद...

Friday, November 11, 2016

इक तेरी आदत...


आदत है बेवजह मुस्कुराने की
ख़ामोशी को नोच कर फेंक देने की
और मौन के गले में
शोर का लॉकेट लटका देने की

तमाम ताले छुपा देने की
और उन तालों की तमाम चाबियाँ
कमर में लटकाकर
ठसक से घूमते फिरने की

चाय की तलब में
सिगरेट का धुआं मिलाने की
और 'अच्छे लोगों' के बीच बैठकर
'अच्छी न लगने वाली' बातें करने की

सर्द रातों को मुठ्ठियों में लेकर
और बिना शॉल ओढ़े नंगे पाँव घुमते हुए
माँ की मीठी डांट खाने की

बेवजह कहीं भाग जाने की
और सड़कों के माथे पे लिखे तमाम पते मिटाकर
वापस लौट आने की

जाने पहचाने चेहरों से
अपनी उदासियाँ छुपाने की
और अजनबी कन्धों से
टिककर फफक के रो लेने की

अपने हाथों की लकीरों को
कभी गुम होते, कभी उगते देखने की
और कच्ची नींदों में पक्के ख्वाब उगाने की

प्रार्थनाओं के सीने से लगकर
खूब रो लेने की
मंदिर के घंटों की बेचारगी में
अज़ान की आवाज़ को सिमटते देखने की

आदत है रोज थोड़ी सी बेचैनी जीने की
बूँद भर जीने के लिए रोज समन्दर भर मरने की
बस कि नहीं पड पायी आदत अब तक
तेरे ख्याल को झटक कर जी पाने की...

आदतें भी अजीब होती हैं....




Wednesday, November 9, 2016

किसी स्कूल ने नहीं सिखाई वो भाषा...



किसी स्कूल ने नहीं सिखाया
सूखी आँखों में मुरझा गए ख्वाबों को पढ़ पाना,

नहीं सिखाया पढना
बिवाइयों की भाषा में दर्ज
एक उम्र की कथा, एक पगडण्डी की कहानी

किसी कॉलेज में नहीं पढाया गया पढ़ना
सूखे, पपड़ाये होंठों की मुस्कुराहट को
जो उगती है लम्बे घने अंधकार की यात्रा करके

नहीं बताया किसी भाषा के अध्यापक ने
कि चिड़िया लिखते ही आसमान कैसे
भर उठता है फड़फडाते परिंदों से
और कैसे धरती हरी हो उठती है
पेड़ लिखते ही

बहुत ढूँढा विश्वविद्यालयों में उस भाषा को
जो सिखाये खड़ी फसलों के
जल के राख हो जाने के बाद
दोबारा बीज बोने की ताक़त को पढना

कहाँ है वो भाषा
जिसमें खिलखलाहटो में छुपे अवसाद को
पढना सिखाया जाता है
नहीं मिली कोई लिपि जिसमें
‘आखिरी ख़त’ के ‘आखिरी’ हो जाने से पहले
‘उम्मीद’ लिखा जाता है,
‘जिन्दगी’ लिखा जाता है

वो लिपि जो
जिसमें लिखा जाता है कि
सब खत्म होने के बाद भी
बचा ही रहता है 'कुछ'... 


Monday, November 7, 2016

ओ' अच्छी लड़कियों : Pratibha Katiyar



ओ अच्छी लड़कियों
तुम मुस्कुराहटों में सहेज देती हो दुःख
ओढ़ लेती हो चुप्पी की चुनर

जब बोलना चाहती हो दिल से
तो बांध लेती हो बतकही की पाजेब
नाचती फिरती हो
अपनी ही ख्वाहिशों पर
और भर उठती हो संतोष से
कि खुश हैं लोग तुमसे

ओ अच्छी लड़कियों
तुम अपने ही कंधे पर ढोना जानती हो
अपने अरमानों की लाश
तुम्हें आते हैं हुनर अपनी देह को सजाने के
निभाने आते हैं रीति रिवाज, नियम

जानती हो कि तेज चलने वाली और
खुलकर हंसने वाली लड़कियों को
जमाना अच्छा नहीं कहता

तुम जानती हो कि तुम्हारे अच्छे होने पर टिका है
इस समाज का अच्छा होना

ओ अच्छी लड़कियों
तुम देखती हो सपने में कोई राजकुमार
जो आएगा और ले जायेगा किसी महल में
जो देगा जिन्दगी की तमाम खुशियाँ
संभालोगी उसका घर परिवार
उसकी खुशियों पर निसार दोगी जिन्दगी
बच्चो की खिलखिलाह्टों में सार्थकता होगी जीवन की
और चाह सुहागन मरने की

ओ अच्छी लड़कियों
तुम थक नहीं गयीं क्या अच्छे होने की सलीब ढोते ढोते

सुनो, उतार दो अपने सर से अच्छे होने का बोझ
लहराओ न आसमान तक अपना आँचल

हंसो इतनी तेज़ कि धरती का कोना कोना
उस हंसी में भीग जाये

उतार दो रस्मो रिवाज के जेवर
और मुक्त होकर देखो संस्कारों की भारी भरकम ओढनी से

अपनी ख्वाहिशों को गले से लगाकर रो लो जी भर के
आँखों में समेट लो सारे ख्वाब जो डर से देखे नहीं तुमने अब तक

ओ अच्छी लड़कियों
अब किसी का नहीं
संभालो सिर्फ अपना मान

बेलगाम नाचने दो अपनी ख्वाहिशों को
और फूंक मारकर उड़ा दो सीने में पलते
सदियों पुराने दुःख को

पहन के देखो
लोगों की नाराजगी का ताज एक बार
और फोड़ दो अच्छे होने का ठीकरा

ओ अच्छी लड़कियों...

जो सच सच बोलेंगे मारे जाएंगे...



-राजेश जोशी 

जो इस पागलपन में शामिल नहीं होंगे
मारे जाएंगे।
कठघरे मे खडे् कर दिए जाएंगे जो विरोध में बोलेंगे
जो सच सच बोलेंगे मारे जाएंगे।

बर्दाश्त नहीं किया जाएगा कि किसी की कमीज हो
उनकी कमीज से ज्यादा सफेद
कमीज पर जिनके दाग नहीं होंगे मारे जाएंगे।
धकेल दिए जाएंगे कला की दुनिया से बाहर
जो चारण नहीं होंगे
जो गुण नही गाएंगे मारे जाएंगे।

धर्म की ध्वजा उठाने जो नहीं जाएंगे जुलूस में
गोलियां भून डालेंगीं उन्हें काफिर करार दिए जाएंगे।
सबसे बडा् अपराध है इस समय में
निहत्थे और निरपराधी होना
जो अपराधी नही होंगे मारे जायेंगे

Thursday, November 3, 2016

ख्वाहिश की लंदन डायरी - 6


डर्डल डोर- आखिर वो दिन आ गया जब मैं अपनी फेवरेट जगह जाने वाली थी यानी डर्डल डोर। यह जगह लंदन से 2 घंटे की दूरी पर था। मामा मामी के दोस्तों को मिलाकर हम करीब दस लोग वहां एक साथ जा रहे थे। गाड़ी में हम खूब मस्ती करते हुए हम डर्डल पहुंच गये लेकिन मेरी आंखें खुली की खुली रह गईं जब मामा ने बताया कि डोर तक पहुंचने के लिए हमें तीन पहाडि़यां पैदल चलनी पड़ेगी। गाडि़यां पार्क करके हमने चढ़ना शुरू किया। आधी पहाड़ी चढ़ते हुए हमें यह लगने लगा कि आगे क्या होने वाला है। जैसे-तैसे हंसी मजाक करते हुए हम लोगों ने दो पहाडि़यां पार कीं। तीसरी पहाड़ी पर असल में चढ़ना नहीं उतरना था। मुझे उतरते हुए काफी घबराहट हो रही थी क्योंकि ढलान काफी ज्यादा थी।
लेकिन उतरने में ज्यादा वक्त नहीं लगी और हम पहाड़ी पार कर गये। इसके बाद जब हम सीढि़यों से उतरे तो एक बहुत ही प्यारा नजारा हमारे सामने था। नीला समंदर और उसमें एक प्यारा सा प्राकतिक रूप से बना हुआ चट्टान का दरवाजा। जो कि बहुत विशाल था। थोड़ी देर हमने वहां के ठंडे पानी में छप छप करी, तस्वीरें खींची और खिंचवाई। थोड़ी देर वहां बैठकर हम समंदर को देखते हुए बातें करते रहे इसके बाद हम वापस उन्हीं पहाडि़यों से चढकर और उतरकर दूसरे समंदर के नजारे देखने को चल पड़े। वो समंदर भी वहां से पंद्रह मिनट की दूरी पर ही था। जब हम वहां पहुंचे तो वहां कई प्रकार के मजेदार म्यूजिकल इंस्टूमेंट्स थे जिनको बजाते हुए मैं गुजर रही थी। थोड़ी देर सुकून से हमने समंदर को देखा और फिर हमने महसूस किया कि हमें भूख लग रही है। इसके बाद हमने इंडियन रेस्टोरेंट को गूगल किया और उसकी खोज करते हुए वहां पहुंचे। वहां पहुंचकर हमने भरपेट खाना खाया और वापस घर की ओर चल पड़े। मन कर रहा था कि मैं सो जाउं लेकिन घर पहुंचने का रास्ता अभी काफी दूर था। रात के एक बजे के करीब हम घर पहुंचे और पहंुचते ही नींद ने हमें घेर लिया।
अगला दिन हमने खूब आराम किया क्योंकि सब बहुत थके हुए थे। अगले दिन हमें इंडिया वापस लौटना था तो हम सब घर पर साथ में रहकर गप्पे लगाना चाहते थे। यह लंदन में हमारा आखिरी दिन था। सारा दिन हमने एक-दूसरे से गप्पे लर्गाईं रात में मामा ने देर तक गिटार पर खूब सारे गाने बजाये। किसी का उठने का मन नहीं था। लेकिन जब रात काफी हो गई तो सबको सोने जाना ही पड़ा।

जब अगले दिन हम उठे तो मम्मी सामान समेट रही थीं। मम्मी ने नाश्ता बनाया दीदी और मामी हमें बाय कहकर अपने काम पर चले गये। हमने मम्मी का बनाया हुआ गर्मागर्म नाश्ता खाया, और उसके बाद मामा के साथ खूब सारी बातें की और टीवी पर एनिमेशन फिल्में देखीं। मामा ने हमारे लिए खाने में दाल बाटी बनाई। खाना खाने के बाद हमने कुछ देर आराम किया और फिर एयरपोर्ट के लिए निकल पड़े। हमारा मन उदास था, जाने का मन नहीं कर रहा था लेकिन इंडिया की याद भी आ रही थी।

लंदन का हमारा सफर पूरा हो चुका था। लंदन की बहुत सारी यादें लेकर हम भारत की ओर लौट रहे थे। 

समाप्त.

Wednesday, November 2, 2016

ख्वाहिश की लंदन डायरी - 5


लीड्स - अगले दिन मुझे और मम्मी को जाना था लीड्स जो कि लंदन से कुछ ही दूर था। मैं मम्मी की एक दोस्त से मिलने लीड्स जा रही थी। उस दिन हम लोग सुबह जल्दी निकल गये। मामी ने हमें बस में बिठाया। हम लोग बहुत खुश थे कि एक और नया शहर देखने को मिलेगा। रास्ता भी खूब सुंदर था। रास्ते में मैंने मम्मी से खूब सारी बातें की और बहुत सारे विंडमिल्स देखे। बस आधी से ज्यादा खाली ही थी इसलिए मैं और मम्मी आराम से पैर पसारकर झपकी लेने लगे। जब हम उठे तो लीड्स आने वाला था। हमारी योजना वहां दो दिन रुकने की थी। जब हम कोच स्टेशन पर उतरे तो वहां पर मम्मी की दोस्त नीरा आंटी और अंकल हमारा इंतजार कर रहे थे। वो लोग हमें देखकर बहुत खुश हुए। हम लोग उनकी कार में बैठकर उनके घर चले गये। उनका शहर लीड्स शहर से दूर था। घर तक का रास्ता बहुत खूबसूरत था। जब हम उनके घर पहुंचे तो हमने देखा कि उनका घर बहुत बड़ा और खूबसूरत था। उसमें एक प्यारा सा बगीचा था जिसमें कुछ खरगोश कूदते फांदते नजर आये। नीरा आंटी ने हमें हमारा कमरा बताया और हमने उसमें अपना सामान रख दिया। मम्मी और आंटी ने एक-दूसरे से बहुत सारी बातें कीं और आंटी ने हमें बहुत लज़ीज पास्ता और गार्लिक ब्रेड बनाकर खिलाया। मजा तो तब आया जब खाने के बाद हम लोग लंबी सैर पर चले गये। उनके घर के पास ही खूब बड़े-बड़े खेत थे। तो हम उन खेतों के आसपास घूमते फिर रहे थे। वहां बहुत प्यारे-प्यारे घोड़े भी थे जिन्होंने कपड़े भी पहने हुए थे। थोड़ी देर की सैर के बाद जब हम लोग घर पहुंचे तो मैं टीवी देखने लगी और मम्मी ने खूब सारी बातें की और खाना खाकर सो गये। अगले दिन जब मम्मी ने उठाया तो उन्होंने बताया कि अंकल और आंटी हमें यॉर्क सिटी घुमाने ले जाने वाले हैं। मैं यह सुनकर बहुत खुश हुई। जल्दी से नहा धोकर मैं तैयार हो गई। गर्मागर्म नाश्ता करने के बाद हम लोग यॉर्कशायर के लिए निकल गये। 
सबसे पहले हम लोग यॉर्कमिनिस्टर चर्च और संग्रहालय देखने गये। उसका आर्किटेक्चर बहुत ही अनूठा था। उस पर बहुत बारीकी से काम किया गया होगा ऐसा लग रहा था। पास में ही एक कैसल थी हम वहां भी घूमने गये तो हमने देखा कि वो टूटा फूटा कैसल यानी किला अपने टूटन के साथ भी काफी खूबसूरत लग रहा था। कुछ देर हम वहां हरी घास पर बैठे रहे। धूप में हमने थोड़ी देर हमने आराम किया और इसके बाद हम चित्र संग्रहालय देखने चले गये जहां दुनिया भर के मशहूर आर्टिस्ट की अद्भुत पेन्टिंग्स थीं। पास में एक नदी थी जब हम उस नदी के पास से गुजर रहे थे तो हमने वहां प्यारी प्यारी ढेर सारी बतखें देखीं जो धूप में आराम फरमा रही थीं। हम लोग उसके बाद मॉल घूमने चले गये। हमने वहां कुछ खाया पिया, थोड़ी शॉपिंग की और फिर घर चले गये।
घर जाकर मैंने और मम्मी ने अपना सामान समेटा क्योंकि अगले दिन हमें सुबह जल्दी ही लंदन के लिए निकलना था। सुबह जब मम्मी ने उठाया तो मैं जल्दी जल्दी तैयार हो गई। नाश्ता करने के बाद थोड़ी बातें करीं और फिर स्टेशन के लिए हम निकल गये। आंटी ने हमारेे लिए रास्ते में खाने के लिए खूब सारा खाना रखा, उन्होंने हमें बस में बिठाया और हम वापस लंदन की ओर लौटने लगे। सुबह जल्दी उठने के कारण बस में हम दोनों को गहरी नींद आ गई। जब हमने आंखें खोलीं तो लंदन आ चुका था।

(अगली कड़ी और अंतिम में डरडल डोर और भारत वापसी - जारी )