पेरिस, दिसंबर १७९५
प्रिय,
मैं सुबह जागा तो तुम्हारे ख़यालो से घिरा हुआ था। तुम्हारी तस्वीर, और तुम्हारे साथ बीती कल की खूबसूरत शाम का नशा मुझ पर अब तक छाया हुआ है। ओह मेरी प्यारी, अतुलनीय जोसिफिन, तुम्हारे एहसास ने मेरे दिल पर कैसा जादुई असर किया है।
प्रिय, कहीं तुम नाराज़ तो नहीं? कहीं तुम उदास तो नहीं हो? और चिंतित.....ओह तुम तो मेरी आत्मा हो। अगर तुम दुःख में हो तो तुम्हारे प्रेमी को एक पल का चैन भी भला किस तरह आ सकता है।
एक बात बताओ, क्या तुमने अपने दिल में मेरे लिए और भी बहुत कुछ बचाकर रखा है? हालाँकि प्रिय, तुम्हारे इन्तिहाई समर्पण और प्रेमपूर्ण भावनाओं ने मुझे अभिभूत कर रखा है। तुम्हारे दिल की जो बात मैंने तुम्हारे होंठो से सुनी हैं, तुम्हारे दिल की हलचल को जिस तरह महसूस किया है वो सारी ज़िन्दगी मेरे भीतर तुम्हारे प्रति प्रेम की ऊष्मा को बनाये रखने को काफी है...
मैं तुम्हारे प्यार की आग में ता-उम्र जलता रहूँगा। कल रात मुझे एहसास हुआ कि तुम्हारी तस्वीर की सुन्दरता तुम्हारी सुन्दरता के आगे कितनी कम है...
तुम दोपहर में निकल रही हो न? मैं तीन घंटों बाद तुमसे मिलूँगा।
तब तक ढेर सारा प्यार, हजारों चुम्बन। लेकिन तुम मुझे वापसी में कुछ मत देना प्रिय, क्योंकि वो मेरे खून में आग सी लगा देगा, मैं सह न सकूँगा प्रिय...
तुम्हारा
1 comment:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "नाम में क्या रखा है!? “ , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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