Tuesday, December 29, 2015

विस्मित माँ की डायरी



जिन्दगी की हर हरारत पे एक ही मरहम है, हमारे बच्चे। हर  दिन हमें चौंकाते हैं.

हम दोनों माँ बेटी दिन भर बच्चों की तरह झगड़ते हैं, रूठते हैं, कभी मैं उसकी चॉकलेट चुरा के खा लेती हूँ कभी वो मेरा मोबाईल छुपा देती है. कभी वो खाना न खाने की ज़िद पे डाँट खाती है कभी रसगुल्ले गर्म करके पेश करती है और झप्पी पाती है, कभी टीवी पर कोई दूसरा गाना लगाकर स्पीकर पे दूसरा गाना प्ले करके हँसते हैं तो कभी न्यूज़ चैनल और तारक मेहता का उल्टा चश्मा के बीच तलवारें खिंचती हैं, कभी वो मूड ऑफ देखकर मिमिक्री करती है तो कभी बेवक़्त आ गयी कच्ची नींद को कमरे का दरवाजा बंद करके घर को एकदम शांत बनाकर गहरी नींद में ढालने की कोशिश करती है. मुझे ज्यादा वक़्त यही लगता है कि वो माँ है मैं नहीं। कभी वो नानी से कहती है, 'नानी जल्दी से पढ़ाई कर लेने दो वरना मम्मा आ जाएगी तो पढ़ने नहीं देगी'.

रिपोर्ट कार्ड आता है तो झूठ-मूठ का नाटक करती है डरने का और मैं नाटक करती हूँ डांटने का. फिर हम दोनों हंसती हैं खिलखिलाकर। वो कहती है, ' मम्मा आपसे डर क्यों नहीं लगता मुझे, मेरी सारी फ्रेंड्स तो बहुत डरती हैं अपनी मम्मा से?' मैं कहती हूँ कि 'मैं दोस्त हूँ न इसलिए। ''बेस्ट फ्रेंड्स' वो मुझे सुधारती है.

तो नयी-नयी टीनएज में एंट्री ली मेरी इस बेस्ट फ्रेंड ने आज की मेरी हरारत को अचीवमेंट में बदल दिया। मुझे आदेश मिला कि आज आप बेड से नहीं हिलेंगी। और उसके बाद मेरे सामने पेश हुए उसके बनाये हुए लज़ीज़ कुरकुरे पराठे। एक-एक कौर खाते हुए जी निहाल हुआ जा रहा था. सिर्फ चार दिन हुए उसे शाम को रोटी बनाना सिखाने की प्रक्रिया में आये। रोज एक रोटी बनाने से सीखना शुरू करने वाली ने आज सामने थाली पेश की (सिर्फ पराठा अभी, सब्जी रजनी आंटी की बनायीं हुई है) तो जी लहलहा गया.

मुझे यकीन है कि अगर ये मेरा बेटा होता तो भी यही करता।

(शीर्षक माधवी से उधार )


Monday, December 28, 2015

चीज़ें माटी हैं, लम्हे हीरे के थे...


नज़र के ठीक सामने शाम का सूरज डूब रहा था. गज़ब की कशिश होती है डूबते सूरज की भी. वैसे डूबना अगर सलीके से आ जाये तो हर डूबने की कशिश लाज़वाब ही होती है. और बगैर ठीक से डूबे उगने का कोई मजा ही नहीं। बहरहाल, इस वक़्त बात डूबने की नहीं, भूलने की है. तो डूबते सूरज की कशिश को कैद करने का जी चाहा। तो देखा कैमरा नदारद। ठीहे पे चीज़ न हो तो तुरंत अपनी लापरवाही पे भरोसा पुख्ता होने लगता है, सो तुरंत दिमाग दौड़ाया कि वो तो मैं कहीं भूल आई हूँ. इस बात को काफी दिन भी हो चुके हैं. जिन दोस्तों की संगत में ये भूलने का प्रकरण हुआ उन्हें फोन लगाया। जाने क्यों जी घबराया नहीं, एकदम नहीं लगा कि खो भी सकता है. दोस्त कहीं व्यस्त था, थोड़ी देर बाद फोन लगाया, दोस्त फिर व्यस्त, तीसरी बार लगाया तो वो बोला 'कितनी लापरवाह हो, मैं सोच रहा था कि देखूं कब याद आता है?' मैंने कहा, 'दोस्त किसलिए बनाये हैं, इसीलिए न कि मेरी लापरवाहियों को सहेज लें.' हम दोनों हंस दिए.

आज ही दोपहर पार्किंग में गाड़ी लगायी और चाबी उसी में लगी छोड़कर चली गयी. लौटी तो चाबी गुम. सारी जेबें ढूंढी, न मिली। पार्किंग वाला सिक्योरिटी का बंदा आया, 'मैम चाबी ढूंढ रही हैं क्या', मैंने कहा हाँ, तो उसने चाबी दे दी.' ये दोनों घटनाएँ आज ही की हैं.

बचपन से लापरवाह हूँ. बहुत डांट खायी हूँ. स्कूल में टिफिन, पेन्सिल बॉक्स भूल आती थी तो खोया पाया विभाग संभाल देता था. थोड़ा बडी हुई तो इन्गेज़मेंट हुई और तब पहली बार अंगूठी पहनी, हफ्ते भर में गुमा दी, अंगूठी झाड़ू में माँ को मिली तीन दिन बाद. डांट मुझे अब तक मिलती है. घर में हमेशा गहना पैसा घडी सब खुला ही पड़ा रहा, कभी सहेजना आया ही नहीं। कई बार घर में हाथ बंटाने आने वाली साथी सुबह को कभी झुमका कभी पायल दिया करती। माँ की जगह वो डांटतीं, मैं हंस देती। सम्भालना सीखा ही नहीं, हाँ जिन चीज़ों को लेकर इतनी मगजमारी करनी पड़े उन्हें पहनना ही बंद कर दिया, नो गहना शहना। फिर भी खोने को बहुत कुछ था. हालाँकि कभी कुछ खो भी गया तो बहुत गम नहीं हुआ किताबें खोने के सिवा. घर की चाभियां खोने का रिकॉर्ड होगा मेरा। ओरिजिनल सर्टिफिकेट की फ़ाइल कई साल खोयी रही. लोग कहते हैं कि दुनिया बहुत ख़राब है, आँख से काजल चुरा लेते हैं लोग, मुझे तो वापस ही लौटाते मिले लोग चीजें'

फिर सोचती हूँ, अगर ऐसा है तो क्यों तमाम लम्हों को ढूंढती फिरती हूँ, तमाम बिछड़ गए लोगों को तलाशती फिरती हूँ, देखती हूँ अजनबी चेहरों की ओर कि कोई गुमे हुए सोने के बुँदे की तरह लौटाएगा कोई बीता लम्हा, कोई खो गया सा अपना कहते हुए, 'कितनी लापरवाह हो, लो सम्भालो अपनी चीज़ें, अब मत गुमाना।' लेकिन ऐसा कोई नहीं कहता।

चीज़ें जो मिल गयीं वो माटी हैं लम्हे जो गुम गये हीरा थे....

Friday, December 25, 2015

कहानियों वाला आसमान



लड़की को कहानियां सुनना पसंद था, लड़के को कहानियां कहना। वो जब मिलते तो कहानियों का एक संसार खुलता। लड़के की किस्सागोई गज़ब थी, लड़की की कहानियों की प्यास अज़ब थी. लड़के की पोटली में किस्सों का खजाना था. प्यार की कहानियां, राजा रानी की कहानियां, तोता मैना की कहानियां, नदी, जंगल, पहाड़ की कहानियां, खेत खलिहान की कहानियां, परियों की कहानियां, टूटते तारे और अधूरी इच्छाओं की कहानियां।

लड़का कहानियां खुले आकाश के नीचे ही सुनाता था. उसकी एक शर्त थी कि कहानी सुनते वक़्त लड़की को सोना मना है. लड़की का कहानी में जागना ज़रूरी था, संसार में भले ही वो सोयी हो. इसके लिए लड़की को हुंकार भरनी होती थी. लड़की कभी ठंडी सड़कों पर गर्म सांसों की आंच सेंकते हुए कहानियां सुनती, कभी नदी के पानी में झिलमिलाते चाँद को देखते हुए, कभी घंटाघर की बंद हो चुकी सुइयों के ठीक नीचे बैठकर, कभी चाय की ठेली के पास चाय सुड़कते हुए कहानियां सुनती। वो लड़के को गौर से देखती, कहानियां सुनाते हुए वो किसी फ़क़ीर सा लगता था. लड़की को कहानी सुनना इबादत में होने सा लगता। लड़की गलती से भी हुंकार भरना नहीं भूलती थी.

एक रोज लड़का उसे बिना बताये दूर देश चला गया. लड़की को कहानियों की याद बेहद सताती। वो बिना कहानी के भी हुंकार भरने की आदी हो चुकी थी. वो लड़के की तलाश में भटकती फिरती। दिन महीने साल बीते, लड़की भटकती रही. कई कहानी सुनाने वाले आये. तरह-तरह की कहानियां निकालते झोली से, तरह तरह की किस्सागोई अपनाते लेकिन लड़की को लड़के की कहानियों का इंतज़ार था. अगर कभी एक टुकड़ा नींद उसे हासिल हो भी जाता तो वो सपने में भी हुंकार भरती।

उधर लड़का रास्ता भटक चुका था. किसी ने शायद उसके रास्तों को छुपा दिया था, या रास्तों की अदला-बदली कर दी थी. वो पांव उठाता लेकिन जाने कहाँ पहुँच जाता। लड़का कहानियां भूल गया था. सपनो के साथ साथ वो नींद से भी बिछड़ गया था, जागी आँखों से नींदों का इंतज़ार करता और बंद आँखों में सिसकता। अपनी पोटली टटोटलता वहां कहानियां बची ही नहीं थीं, कुछ टुकड़े बचे थे. उन टुकड़ों को जोड़ना फिजूल था. लड़का बस चलता जाता कि कभी तो सही राह तक पहुंचेगा ही.

लड़की अब खुद की कहानियां लिखने लगी. अब उसकी कहानियों में वो सब होता जो जिंदगी में नहीं होता था. उसके सारे ख्वाब कहानी होने लगे. आज़ाद होते ख्वाब कितने हसीन होते हैं. लड़की ख़्वाबों  की आंच और सुलगाती, जिंदगी बेरहमी की आंच और बढाती। लड़की ने दुनिया के तमाम बांस के जंगलों से कलम बनने का इसरार किया। नदी उसकी आँखों में थी बस रात से रोशनाई मांगी उसने और नदी में घोल दी. कहानियां रात के आसमान पे लिखी जाने लगीं। ये कहानियां ज़माने के पढ़ने के लिए नहीं उसके खुद के जीने के लिए थीं.

आसमान में अब तारे नहीं कहानियां बसने लगीं। एक रोज नींद खो चुका लड़का आसमान ताक रहा था. अचानक उसकी बहती आँखों में मुस्कान चमकने लगी. वो अपनी खोई हुई कहानियों को देख पा रहा था. पढ़ पा रहा था. उसे अरसे बाद अपने दिल की धड़कनों की आवाज़ सुनी। अरसे बाद उसकी चाय पीने की इच्छा हुई.

लड़की धरती के एक छोर पर कहानियां लिखती जा रही थी लड़का धरती के दूसरे छोर पर कहानियां पढ़ रहा था. लड़की भूखी प्यासी, जागी सोयी बस कहानिया लिखती, कि वो जानती थी कि उसने कहानी लिखनी बंद किया और उसकी नब्ज़ थमी. वो लिखती थी क्योंकि वो जीना चाहती थी. उधर लड़का कहानियों के आसमान को ओढ़ता, बिछाता। वो जानता था कि उसकी जिंदगी ऑक्सीज़न से नहीं आसमान पे लिखी जा रही कहानियों से चल रही है. लड़का कहानी पढ़ते हुए हुंकार भरता, लड़की कहानी लिखते हुए हुंकार भरती।

एक रोज लड़का कहानी पढ़ते पढ़ते चौंक के उठा और कहानी की परीजाद के महल  की तरफ जानेवाली सड़क पे चलने लगा. परीजाद को मारने के लिए राछस निकल चुका था. शहजादा परीजाद के महल से बहुत दूर था. उस रात बहुत बारिश हो रही थी. लड़का चलता रहा, चलता रहा... लड़की की आँख लग गयी कहानी लिखते-लिखते। शहज़ादे को जिस ख़ुफ़िया रस्ते से परीजाद के पास पहुंचकर उसे बचाना था वो शहज़ादे को बताने से पहले लड़की की आँख लग गयी. लड़का भागने लगा, उसे, सिर्फ उसे ही वो रास्ता पता था, उसे परीजाद तक पहुंचना था. वो ज़ोर ज़ोर से हुंकार ले रहा था कि धरती के किसी भी कोने में नींद में लुढक चुकी लड़की तक उसकी हुंकार पहुँच सके, वो जागे, कहानी लिखे, शहज़ादे को परीजाद तक राछस से पहले पहुंचाए। लेकिन लड़की को सदियों की जाग के बाद नींद आई थी. कलम उसके हाँथ में थी, आँखों की नदी में घुली रात की सियही उसके गालों पे सूख चुकी थी. लड़के के पांव भागते जा रहे थे कि अचानक उसे ठोकर लगी. वो उठा, भागा, चिल्लाया, लड़की को जगाने की कोशिश की लेकिन राछस परीजाद तक पहुँच चुका था.

परीजाद ने शहज़ादे को बहुत पुकारा, शहज़ादा परीजाद की मदद को बहुत तड़पा लेकिन वक़्त बेरहम था. लड़की नींद में हुंकार भर रही थी, लड़का बारिश को चीरता हुआ भाग रहा था,... राछस अट्हास कर रहा था.

कहानियां  उसी रोज़ भस्म हो गयीं सारी, आसमान खाली है कहानियों से. शहज़ादा रास्ता भटक चुका है,

शहज़ादे के इंतज़ार वाली घायल परीजाद राछस का मुह तोड़ने की तैयारी कर रही है.

लड़की कब्र में गहरी नींद सोयी है. लड़का उसकी नींद के सिरहाने बैठा है, वो कहानी सुनाता रहता है, कब्र से हुंकार उठती रहती है.


Thursday, December 24, 2015

मस्तानी तो दीवानी थी लेकिन...



एक स्त्री द्वारा दूसरी स्त्री को अकेलेपन और दुखी होने के अभिशाप देने के साथ फिल्म न खुलती तो संजय लीला भंसाली के दिव्य, विराट प्रेम के शाहकार में कोई कमी आ जाती क्या? पता नहीं मेरा मन वहीँ से उखड गया था. मैं मन में 'गुज़ारिश' की सी चाह लिए गयी थी शायद। हालाँकि भंसाली के सिनेमाई वैभव, उनके  आँखों पर धप्प से गिर पड़ने वाले रंगों के विशाल संसार में गुम हो जाने के खतरों से नावकिफियत नहीं थी.

प्रेम वो चाहे जिस डगर से पुकारे पांव खिंचते जाते है सो सोचा कि चलो मस्तानी की कहानी सुनते हैं भंसाली साहब से. भंसाली उस्ताद किस्सागो हैं. वो इतिहास से कहानी उठाते हैं और दर्शकों के मुताबिक उसमें रंग भरते हैं. दीपिका और प्रियंका आमने-सामने आती हैं और देवदास की याद ताज़ा हो आती है माधुरी और ऐश्वर्या की याद.

रूपहले पर्दे पर ऐतिहासिक प्रेम खुलता है लेकिन क़टार सा धंसता नहीं कलेजे में. कोई पीड़ा, कोई जख्म, कोई संवाद पिघलकर आँखों से बहने नहीं लगता। दुःख की महीन कोपलों को दिव्य दृश्य रिप्लेस कर देते हैं. पत्नी काशी हमेशा दीयों, रंगों और ज़ेवरों में घिरी है. लेकिन मस्तानी वो तो योद्धा है. मालूम नहीं क्यों तोहफे में खुद को पेशवा के आगे पेश करने और उसकी तमाम शर्तों के आगे 'क़ुबूल है' की मुहर लगाकर ही क्यों इतिहास से प्रेम सिद्ध होते आ रहे हैं. या ऐसे ही प्रेम को इतिहास में जगह मिली हो क्या पता.

जाने कब तक, कितनी बार दूसरी पत्नी को या प्रेमिका को या तो 'रखैल' की  गाली सहनी होगी या राधा और रुक्मिणी प्रकरण में पनाह लेनी पड़ेगी। क्या सचमुच फिल्मकारों को राधा के दुःख का अंदाजा है या उसके मंदिरों में पूजे जाने में ही प्रेम की महानता को देखना काफी है.

काशी के जिस दुःख से नाना पिघल जाता है वो दुःख भंसाली दर्शकों की रगों में उतार पाने से चूक जाते हैं. मस्तानी का योद्धा रूप आकर्षित करता है लेकिन उसका प्रेम सिर्फ परदे पर ही चमकता है दिल तक नहीं उतरता।

पेशवा न्याय प्रिय है. मस्तानी का सम्मान बचाता है. उसकी सुरक्छा का ख्याल रखता है, उसे दो गांव देता है, परिवार और समाज से लड़ जाता है उसके लिए, पेशवाई से मुह तक मोड़ लेता है फिर भी जाने क्यों कुछ सवाल उठते ही हैं मन में.

अगर मस्तानी ने खुद को तोहफे में सौंप न दिया होता तो? और क्या ये कोई बात ही नहीं कि एक ही पुरुष एक ही वक़्त पे दो अलग-अलग स्त्रियों से पिता बनने की खबर सुनता है? मस्तानी को 'कटार' देकर (अपने प्रेम को स्वीकार करके) लौटते हुए कितनी बार पेशवा का दिल प्रेम से बिछड़ने के दुःख से भर उठा था? किस तरह वो मस्तानी को बिसराकर काशी के संग सहजता से अंतरंग होता है? और एक अहम सवाल कि मस्तानी अगर मुसलमान न होती तो क्या होता? तो क्या पेशवा की पत्नी काशी मस्तानी को स्वीकार लेती? क्या उसका दुःख तब कम होता?

अगर एक ही वक़्त में एक पुरुष दो स्त्रियों के साथ रिश्ते में है, तो दोनों के साथ न्याय सम्भव नहीं। किसी न किसी को दुःख होना तय है, वो दुःख पेशवा का दुःख भी था क्या? क्यो वो एक दृश्य में दिए बुझाने के साथ ही बुझता नज़र आता है? कितने ही ऐसे दृश्य थे जहाँ भाव की प्रधानता पर दृश्य की प्रधानता का कब्ज़ा दीखता है. फिल्म का अंत खासा ड्रामेटिक है. मस्तानी के बच्चे के मुह में कुछ संवाद रखकर भंसाली जरा सी नब्ज थाम पाते हैं, पल भर को.

'जो इंसान के बस में नहीं वो इश्क़ के असर में है,' 'इश्क़ इबादत है और इबादत के लिए इज़ाज़त की ज़रुरत नहीं होती' 'तुझे याद किया है किसी 'आयत' की तरह' जैसे संवाद मोहते हैं.फिल्म वाकई शानदार है लेकिन अगर ये प्रेम कहानी थी तो प्रेम मिसिंग ही लगा. तमाम तामझाम में  प्रेम ही  छूट गया हो मानो। हालाँकि प्रेम का वैभव सुनहरे परदे पर कायम रहा.

या मुझे प्रेम की समझ नहीं या भंसाली चूक गए. जानती हूँ पुरस्कार बहुत मिलेंगे आपको लेकिन मेरे लिए तो अब भी मांझी की प्रीत ही साँची है.



Tuesday, December 22, 2015

आप इसकी हड्डी तोड़ दीजिये...



(पैरेंट टीचर मीटिंग )
दृश्य-एक 
पिता(गुस्से में फुफकारते हुए )- 'मैम  आप इसकी हड्डी तोड़ दीजिये। दिमाग ख़राब है. २० में से १२ नंबर?  हद है. नाक कटा दी है इसने हमारी सोसायटी में'.
माँ - शहर के इत्ते महंगे स्कूल में पढ़ा रहे हैं. इतनी फीस दे रहे हैं. और नतीजा ये ? मैडम ये कोई बात नहीं होती।
मैम(शांत भाव से )- आप लोग ज्यादा ही परेशान हैं. बच्चा ठीक है. क्लास में अच्छा कर रहा है. नंबर भी बुरे नहीं हैं. अगली बार और अच्छा करेगा। है न बेटा?
पिता - क्या बात कर रही हैं आप? आप तो इसे और बिगाड़ रही हैं. ये अच्छे नंबर हैं ?(एक थप्पड़ बेटे को लगाते हुए. बच्चा आठवीं का है)
मैडम- अरे सर क्या कर रहे हैं. ऐसे सबके सामने बच्चे को नहीं मारते। वो अच्छा बच्चा है. आप फ़िक्र न करें। शायद एग्जाम में डर जाता होगा इसलिए नंबर कम आते हों.
पिता- डर ? डर जाता है? मर्द होकर डर जाता है ? फिर तो इसे पैदा ही नहीं होना चाहिए। कमबख्त। (गुस्से में उठ खड़े पिता बच्चे को एक और थप्पड़ लगाते हैं )
माँ- छोटा बेटा देखिये मेरा। वो देखिए कित्ते प्यार से खड़ा है. सब सब्जेक्ट में अव्वल आता है. और एक ये है.
मैडम- देखिये सब बच्चे अलग होते हैं. तुलना मत करिये। मैं संभाल लूंगी। है न बेटा ? हम दोनों मिलकर सब ठीक कर लेंगे न? (मैम बच्चे को सहेजने की कोशिश करती हैं ).
पिता- आप क्या संभाल लेंगी। हुंह। मैं मैनेजमेंट से शिकायत करूंगा आप लोगों की. बच्चो की गलत चीज़ो को बढ़ावा देते हो आप लोग. (गुस्से में क्लास से बाहर चले जाते हैं)

दृश्य- दो 
माँ- कितनी बिगड़ गयी है ये आप लोग कुछ करते क्यों नहीं? सारी कॉपी खाली पड़ी हैं?
सर- क्या करें आपकी बेटी है ही इतनी लापरवाह। कोई काम टाइम पे नहीं करती। सुनती ही नहीं।
माँ - तो आप थप्पड़ लगा दिया करो न. कित्ता पैसा फूंक रहे हैं इसके ऊपर. और ये पढ़ के ही नहीं दे रही.
सर- वाकई ये बहुत बद्तमीज है.(बच्ची से) क्या चाहती हो पीटना शुरू करूँ?
माँ- अब आप इससे पूछेंगे? मैं कह रही हूँ आपसे। ठोंकिये, पीटिए कुछ भी करिये। मुझे इसका रिजल्ट चाहिए बस.
(बच्ची क्लास सेवन की है )

दृश्य- तीन

टीचर- आपकी बेटी का ध्यान ही नहीं रहता क्लास में. मैं इसके बारे में क्या बताऊँ? नाक में दम करके रखा है इसने।
माँ(मुस्कुराकर कर )- अच्छा? ये तो बहुत अच्छी बात है।
टीचर- ये क्या कह रही हैं आप?
माँ- बिलकुल। हर सब्जेक्ट  के टीचर्स यही कहते हैं कि बड़ी सिंसियर है आपकी बेटी। सुन सुन के बोर हो गयी हूँ मैं तो. अब जबकि आप बोल रहे हैं कि  नाक में दम करके रखा है तो सुख की ही तो बात है. बच्चा नार्मल है यानी।
टीचर- अजीब माँ हैं आप? आपकी बेटी मैथ्स में फेल है फिर भी.
माँ- वो सब्जेक्ट में फेल हो तो हो जिंदगी में उसे अव्वल आना ज़रूरी है. रही बात सब्जेक्ट की तो वो नहीं मैं और आप फेल हैं. एक बात बताइये, आप मेरी बेटी के दोस्त हैं क्या?
टीचर- क्या? दोस्त? देखिये ये किताबों और फिल्मों में ही अच्छा लगता है. ३५ उजड्ड बच्चों को सम्भालना पड़े तो सब दोस्ती निकल जाये।
माँ - चलिए, आपकी मर्जी। मत बनिए दोस्त लेकिन मेरी बेटी की गणित से दोस्ती तो आपको ही करानी होगी। क्योंकि बिना विषय से दोस्ती किये कोई बच्चा उसे कैसे एन्जॉय करेगा। और बिना एन्जॉय किये नंबर तो आ सकते हैं लेकिन विषय से दुश्मनी जिंदगी भर की तय है. मुझे नंबर नहीं मेरे बच्चे की विषय से दोस्ती चाहिए। और ये तो आपको करना ही पड़ेगा।

(किसको कहाँ- कहाँ बदलना बाकी है.... सफर अभी बहुत तय करना है... )

Sunday, December 20, 2015

हिसाब किताब में गुम दिसंबर


'सुनो,' उसे पुकारती हूँ. वो सुनता नहीं।
हाथ पकड़कर हिलाती हूँ वो ढीठ की तरह वापस बही खाता खोलकर बैठ जाता है.
'सुनो न, चलो धूप में बैठकर चाय पीते हैं' मनुहार करती हूँ.
वो सर खुजाकर देखता है. उसकी आँखों में मेरी बात मानने की इच्छा नज़र आती है. वो घुटनों के बल उठने को होता है कि अचानक उसे कुछ याद आ जाता है.
'अभी रहने दो बहुत काम है' वो अनमने ढंग से कहता है.
मैं नाराज होना चाहती हूँ लेकिन मुझे हंसी आ जाती है. हंसने पर वो रूठता है.
'मजाक उड़ा रही हो?' वो भुनभुनाता है.
'मैं नहीं तुम खुद उड़ा रहे हो मजाक। ये क्या बही खाता खोल रखा है. आखिर सर्दियों की गुनगुनी धूप में साथ चाय पीने से ज्यादा ज़रूरी कौन सा काम है भला?' मैं झूठमूठ का गुस्सा दिखाती हूँ.
'पूरे बरस का हिसाब है मैडम जी।  एक एक कर ग्यारह महीने गुजर गए. इन ग्यारह महीनों की जवाबदेही मेरे ही तो सर है.' वो उदास होकर बोला।
'तुम्हें कोई हिसाब नहीं रखना पड़ता ?' उसने पूछा।
 'नहीं' मैंने मुस्कुराकर कहा.
बेचारे दिसम्बर को मेरी बात समझ नहीं आई. वो फिर से हिसाब किताब में डूब गया. 

Tuesday, December 15, 2015

शब्द भर 'ठीक'



'ठीक' कहने से पहले जांच लेना खुद को ठीक से
कि कहीं 'अ ठीक' साथ चिपक न जाये
कहे गए 'ठीक' की पीठ पर

'ठीक' को सिर्फ शब्द भर बना रहने देना
उसे अपनी मुस्कुराहटों से सजाना, संवरना


और जो इस ठीक से बचा हुआ सच है न
उदास, तन्हा, बोझिल, जख्मी
उसे मेरी हथेलियों पे रख देना।


Sunday, December 13, 2015

आगे बढ़ने की मुनादी



पीछे छूट गए रास्ते
आगे बढ़ने की
मुनादी हैं

सामने उगते हुए सूरज और
रौशनी से नहाये रास्तों की पुकार है
और पीछे तय कर चुके रास्तों से मिले सबक

जिंदगी की ओऱ बढ़ना ही
जिंदगी को गढ़ना है...

जन्मदिन मुबारक सखी!



Thursday, December 10, 2015

कुंदन



सूरज की किरणे
झील के पानी को
बनाती हैं सोना

तुम्हारा प्यार
मुझे कुंदन

Friday, December 4, 2015

साढ़े चार मिनट-दो



वो आखिरी बार था जब मां की जिंदा हथेलियों को इस तरह किसी ने अपनी हथेलियों में रखा था।
उसी रात मां मर गई।
रोज की तरह चांद गली के मोड़ वाले पकरिया के पेड़ में उलझा रहा।
मां रात को सारे काम निपटाकर सोईं और फिर जगी नहीं।
बरसों से वो उचटी नींदों से परेशान थीं। सुबह उनके चेहरे पर सुकून था। वो सुकून जो उनके जिंदा चेहरे पर कभी नहीं दिखा।

वो आता, थोड़ी देर खामोशी से बैठता, चाय पीता चला जाता।
न वो मेरी खामोशी को तोड़ता न मैं उसकी।
हमारे दरम्यिान अब सवाल नहीं रहे थे। उम्मीद भी नहीं।
लाल पूछ वाली चिडि़या जरूर कुछ उदास दिखती थी।
मां ने पक्षियों को दाना देकर घर का सदस्य बना लिया था। वो घर जो उन्हें अपना नहीं सका, उस घर को उन्होंने कितनों का अपना बना दिया।

'तो तुमने क्या सोचा?' एक रोज उसने खामोशी को थोड़ा परे सरकाकर पूछा।
मैं चुप रही।
वो चला गया।
मैं भी उसके साथ चली गई थी हालांकि कमरे में मैं बची हुई थी।

दोस्त मेरी हथेलियों को थामती। मुझसे कहीं बाहर जाने को कहती, बात करने को कहती। उसे लग रहा था कि मैं मां के मर जाने से उदास हूं।
असल में मां की इतनी सुंदर मौत से मैं खुश थी। इसके लिए मैं उसकी अहसानमंद थी।
जीवन भर मां को कोई सुख न दे सकी कम से कम सुकून की मौत ही सही।

अनार की डाल पर इस बरस खूब अनार लटके। इतने कि डालें चटखने लगीं।
लाल पूछ वाली चिडि़या फिर से गुनगुनाने लगी।
मां की तस्वीर पर माला मैंने चढ़ने नहीं दिया।
उस रोज भी कमरे में चार लोग थे।
वो, मैं दोस्त और मां तस्वीर में.
वो जो सबसे कम था लेकिन था
मैं जो थी लेकिन नहीं थी
दोस्त पिछली बार की तरह वहीं थी न कम न ज्यादा
मां कमरे में सबसे ज्यादा थीं, तस्वीर में।

'साथ चलोगी?'  उसने पूछा.
'साथ ही चल रही हूं साढे़ चौदह सालों से,'  मैंने कहना चाहा लेकिन चुप रही।
'कहां?'  दोस्त ने पूछा।
'अमेरिका....' उसने कहा
'लेकिन...' दोस्त ने कुछ कहना चाहा लेकिन रुक गई।
'यहां सबको इस तरह छोड़कर...कैसे...' दोस्त ने अटकते हुए कहा।
शायद उसे उम्मीद थी कि वो पिछली बार की तरह उसे रोक देगा यह कहकर कि, 'लेकिन की चिंता मत करो, मैं संभाल लूंगा। सब। बस भरोसा करो।'

उसने कुछ नहीं कहा। मैं मां की तस्वीर को देख रही थी।
'हां, मैं भी वही सोच रहा था।' उसने आखिरी कश के बाद बुझी हुई सिगरेट की सी बुझी आवाज में कहा।
'आपका जाना जरूरी है?'  दोस्त राख कुरेद रही थी।
वो खामोश रहा।
चांदनी अनार के पेड़ पर झर रही थी।
'हां,'  उसने कहा। दोस्त उठकर कमरे से चली गई। शायद गुस्से में। या उदासी में।
अब कमरे में तीन लोग थे मैं वो और मां।
'तुमने मेरी मां को सुख दिया,'  कहते हुए मेरी आवाज भीगने को हो आई।
'तुम्हें भी देना चाहता था...' उसने कहा।
मेरे कानों ने सिर्फ 'था' सुना...

वो बिना ये कहे कमरे से चला गया कि 'तुमने पूरे साढ़े चार मिनट से मेरी तरफ नहीं देखा।'
न मैं यह कह पाई कि 'उम्र भर उसे न देख सकने का रियाज कर रही हूं...'

बच्चे अपने-अपने कमरे में सोने की कोशिश कर रहे थे।

Tuesday, December 1, 2015

साढ़े चार मिनट


कमरे में तीन ही लोग थे। वो मैं और एक हमारी दोस्त...। तीनों ही मौन थे।
मैं वहां सबसे ज्यादा थी या शायद सबसे कम।
वो वहां सबसे कम था या शायद सबसे ज्यादा।
दोस्त पूरी तरह से वहीं थी।
मैं खिड़की से बाहर देख रही थी।

सब खामोश थे। यह खामोशी इतनी सहज थी कि किसी राग सी लग रही थी। मैं खिड़की के बाहर लगे अनार के पेड़ों पर खिलते फूलों को देख रही थी। जिस डाल पर मेरी नजर अटकी थी वो स्थिर थी हालांकि उस पर अटकी पत्तियां बहुत धीरे से हिल रही थीं।

उन पत्तियों का इस तरह हिलना मुझे मेरे भीतर का कंपन लग रहा था। मुझे लगा मैं वो पत्ती हूं और वो...वो स्थिर डाल है। डाल स्थाई है। पत्तियों को झरना है। फिर उगना है। फिर झरना है...फिर उगना है।

'मुझे मां से बात करनी है...' वो बोला।

उसके ये शब्द खामोशी को सलीके से तोड़ने वाले थे।
मैं मुड़ी नही। वहीं अनार की डाल पर अटकी रही।
दोस्त ने कहा, 'अच्छा, कर लीजिए।'
'क्या वो यहीं हैं...?'  उसने पूछा।
'हां, वो अंदर ही हैं।'  बुलाती हूं।

कुछ देर बाद कमरे में चार लोग थे। मां मैं वो और दोस्त।
मैं अब भी खिड़की के बाहर देख रही थी।
'आप अंकल से बात कर लीजिए...' उसने मां से कहा।
मां चुप रहीं।

'लेकिन...' दोस्त कुछ कहते-कहते रुक गई।
'किसी लेकिन की चिंता आप लोग न करें...मैं सब संभाल लूंगा। सब।'
उसने मां की हथेलियों को अपने हाथों में ले लिया।
दोस्त ने कहा, 'फिर भी।'
'परेशान मत हो। यकीन करो। बस।' उसने बेहद शांत स्वर में कहा।
कमरे में मौजूद लोगों की तरफ अब तक मेरी आधी पीठ थी। अब मैंने उनकी तरफ पूरी पीठ कर ली ताकि सिर्फ अनार के फूल मेरे बहते हुए आंसू देख सकें।
मां कमरे से चलीं गईं...दोस्त भी।

वो मेरे पीछे आकर खड़ा हुआ। अब वो भी कमरे के बाहर देख रहा था। शायद अनार के फूल...या हिलती हुई पत्तियां। कमरे में कुछ बच्चे खेलते हुए चले आए। उसने बच्चों के सर पर हाथ फिराया...बच्चे कमरे का गोल-गोल चक्कर लगाकर ज्यूंयूयूँ से चले गए।

अब कमरे में वो था और मैं...बाहर वो अनार की डाल...
उसकी तरफ मेरी पीठ थी....उसने कहा, 'तुमने पूरे साढ़े चार मिनट से मेरी तरफ नहीं देखा है...'

गहरी सर्द सिसकी भीतर रोकने की कोशिश अब रुकी नहीं।
अनार की डाल मुस्कुरा उठी।
'सिर्फ साढ़े चार मिनट नहीं, साढ़े चौदह साल...' मैंने कहा...

उसने मुझे चुप रहने का इशारा किया।
हम दोनों अनार की डाल को देखने लगे...
बच्चे फिर से खेलते हुए कमरे में आ गए थे...उसने फिर से उनकी पीठ पर धौल जमाई...

(लिखी जा रही कहानी का अंश )