Tuesday, March 31, 2015

वो दिल जो मैंने माँगा था मगर गैरों ने पाया था...

तुम अपना रंज-ओ-ग़म, अपनी परेशानी मुझे दे दो
तुम्हे ग़म की कसम इस दिल की वीरानी मुझे दे दो 

ये माना मैं किसी काबिल नहीं हूँ इन निगाहों में 
बुरा क्या हैं अगर ये दुःख ये हैरानी मुझे दे दो

मैं देखूं तो सही दुनिया तुम्हें कैसे सताती है
कोई दिन के लिये अपनी निगेहबानी मुझे दे दो

वो दिल जो मैंने माँगा था मगर गैरों ने पाया था 
बड़ी शय है अगर उसकी पशेमानी मुझे दे दो.… 

- साहिर

Saturday, March 28, 2015

मुकम्मल इश्क की दास्तां...


फकीर की दुआ सी आंच तेरी याद की...
बढ़ती जाती है, बढ़ती जाती है...
कभी फाहे सी गिरती भी है दूरियों पर

जख्मों को सीने में कोई मजा नहीं.

जिंदगी बरसती है...दर्द की सिहरन के संग.
भला कैसे कोई बुझाये रौशन दर्द की ये शमां....

भूल जाना कोई कमाल नहीं...
याद न आना कमाल है...
रहे हम दोनों ही अनाड़ी
याद आते रहे...आते रहे...

वापसी के कदमों की आहटों में विदा की पीड़ा दर्ज जरूर हुई
लेकिन दिन के हंसते हुए चेहरे पर हमने आंसू नहीं मले...

रात के कंधे पर सर रखकर सिसकने की सजा जो हो सो हो...
दिन के आंचल को उदासियों से बचाया जरूर

सिगरेट के कश सी तेरी याद धुएं में उड़ती नहीं...
जबान पर बैठी रहती है कसैला स्वाद बनकर...
तलब बनकर...

दर्द हमेशा सिसकियों में नहीं रहता,
उसने खिलना, महकना, संवरना भी सीखा है

शोर के सैलाब में डूबकर बचा लाये थे जो बूंद भर खामोशी
वो तावीज बनी गले में लटकी है...

इश्क बीते हुए लम्हों के आशियाने में सांस-सांस मुकम्मल है...

न होने में तेरा होना
है मुकम्मल इश्क की दास्तां...

खाली झूले पर झूलती तेरी याद
बढ़ाती है पींगे....बेहिसाब...
आंखों का सावन हरा ही रहता है हरदम...


Sunday, March 15, 2015

विरहन की आह सी बारिशें...


बारिशों के साथ उतरता है कोई दिन. ये उदास बारिशें किसी विरहन की आह सी मालूम होती हैं. धरती उदास है, आकाश चुप. किसान अपने खेतों में इश्क़ की फसल बड़े जतन से उगाते हैं और ये बेमौसम बरिशें इश्क़ के इम्तिहानों सी....पलकों में आंसुओं की झालर बुनती बारिशें, ख्वाहिशें...

ये कॉफी में रूमानियत घोलकर पी जाने वाला दिन तो हरगिज़ नहीं। अनमनापन पूरे जिस्म में तारी है जिसे एक स्त्री झाड़न लेकर झाड़ती फिरती है. जब जीवन में जाले बहुत होने लगते हैं, धुंध चढ़ने लगती है तो वो घर की सफाई में जुट जाती है, मानो घर के दरो-दीवार झाड़कर, वो झाड़ लेगी जीवन के जाले भी. फर्श की चमक के साथ चमक उठेगा मन भी और शायद धरती का हर एक कोना भी.

झाड़ने के दौरान उसे वर्जीनिया वुल्फ, स्त्री के लिए एक कमरा लिए. मिलती है मरीना त्स्वेतायेवा, वेरा, अन्ना, परवीन, अज़रा, अन्ना अख्मतोवा, पावलोवा , सिमोन। दुनिया की तमाम स्त्रियां तमाम युगों की स्त्रियां सब एक साथ मिलकर झाड़ने लगी हैं खिड़कियां, दरवाजे, सोफे। सब गहरी ख़ामोशी के भीतर डुबकियां लगातीं। सारी सहेलियां एक ही कप चाय लेकर खिड़की के पास बैठती हैं, देखती हैं दूर तक जाने वाली भीगी सड़क.…बीत ही जायेगा कुछ पलों में ये उदास दिन भी.

दिन बीतना नहीं होता उदासी का बीतना। धूप चाहिए खेतों को, सड़कों को, शहर को, दिल को कि बारिशें हमेशा अच्छी नहीं लगतीं। भूख पर रोटी और प्यास पर पानी न मिले तो सब बेवजह ही तो है. इस वक़्त हाथ में चाय का प्याला हाथों में थामना असल में बेवजह ही सही एक उम्मीद को थामना है हाथों में.… कि शायद फसलें मुस्कुराएंगी , दिल भी , मोहब्बत भी, दिन भी, हम भी , तुम भी.

जिंदगी काश चाय होती हमेशा या तो अच्छी या बहुत अच्छी....

(बीतता दिन, उदास बारिशें, अधूरा पन्ना )

बिच्छू घास और लड़कियां


लड़कियों को बिच्छू घास होना चाहिए
खूब हरी,
बिंदास बढ़ती, लहराती
साहब के गार्डन की विदेशी घास की तरह
कतरे जाने से बेफिक्र

उसके हरे से मुग्ध होने के बावजूद
चलते फिरते छू जाने से डरें लोग

सलीके से पेश आने पर
वही बिच्छू घास
बन जाये कोई औषधि भी

कभी बेहद नरम मुलायम शॉल बनकर
लिपट भी जाये
प्यार की गर्माहट लिए.…





Saturday, March 14, 2015

चैत की रातें....


ये जो झड़ रहा है ये कौन हैं, ये जो उग रहा है ये कौन है, भोर की पोर-पोर में किसकी नींद जागती है, वो जो भागता फिरता है बेसबब, वो किसका ख्वाब है आखिर, वो जो खाली हथेलियों में ठहरा हुआ है किसका एहसास है.

वो जो पलकों के पीछे से छुपके ताकता रहता है वो कौन है, वो कौन है जो आस पास बिखरी तमाम किताबों, ग़ज़लों,अधूरी कविताओं, किस्सों को लांघकर सारी रात नींद की पंखुड़ियां तोड़ता रहता है.…कौन है जो बेहद मासूमियत से सूरज को ओस की बूंदों का तोहफा देता है.

चैत की रातें अधूरी बातों, मुलाकातों को सीने की मुकम्मल कोशिश करती हैं.…

Thursday, March 12, 2015

जिंदगी आहिस्ता-आहिस्ता गुजर रही है..


एक अरसा हुए शाम की चाय अपनी तन्हाई के साथ पीने की आदत सी हो चली है। इसमें एक किस्म का सुख है। चाय की हर सिप के साथ घूंटना जिंदगी की तमाम तल्खियों को और होठों के आसपास महसूसना उस कड़वाहट में लिपटी थोडी सी मिठास को भी। चाय पीने का असल सुख इस तरह अपने साथ चाय पीने के दौरान ही महसूस हुआ। जिंदगी जीने का सुख भी।

चाय के साथ किसी भी तरह की भरावन चाय के सुख के साथ साझेदारी लगती है...और अक्सर नागवार भी। मैं इसे किसी के साथ बांटना नहीं चाहती। न नमकीन, बिस्किट या पकौड़ों के साथ न किसी व्यक्ति के साथ। अतीत की किसी याद के साथ भी नहीं... चाय के दो कप... किसी नई कहानी की शुरुआत से मालूम होते हैं...कहानी जिसका न आपको आदि पता है, न अंत...

ये तन्हाई मेरी पूंजी है...चाय उस पूंजी से उपजा सुख...हर घूंट के साथ जिंदगी को घूंटने सरीखा...जिंदगी आहिस्ता-आहिस्ता गुजर रही है...पूरी तरह महसूस होते हुए...हर पल...बिल्कुल चाय के हर घूंट की तरह।

सामने लीची के पेड़ पर फिर से खूब बौर आई है...पंछियों का खेल आसमान में चल रहा है बच्चों का नीचे..चाय की प्याली मुझे देखकर मुस्कुराती है और उसे देखकर मैं...

कोई पूछता है क्या कर रही हो इन दिनों, तो बस एक ही जवाब आता है लबों पर कि जी रही हूं इन दिनों...चाय का सुख जीना भी जीना है बच्चू, तुमने जिया है कभी इसे...?


Sunday, March 8, 2015

बेस्ट गर्लफ्रेंड - कुछ ज़रूरी सवाल


समय बदल रहा है, ज़ाहिर है फिल्मों में  भी बदलाव की झलक दिखती है. स्त्री का अपनी देह पर अधिकार, अपनी इच्छाओं पर अधिकार तो दूर उसे महसूस तक करने की इज़ाज़त जो समाज न देता हो वहां अब स्त्री न सिर्फ अपनी इच्छा को समझ रही है बल्कि अपनी देह पर अपने अधिकार को मजबूती से पकड़ रही है. स्त्री देह पर  पर नैतिकताओं, शुचिताओं की जाने कितनी बेड़ियां कसी गयीं। आज जब समूचा देश निर्भया के पैरोकार वकीलों की दलीलों पे एकजुट होकर उनकी मज़म्मत कर रहा है ,ऐसे ही वक़्त में अब भी लाखों लोग जिनमें तथाकथित पढ़े लिखे , जिम्मेदार लोग भी शामिल हैं स्त्रियों को खांचों में फिट करके ही देख रहे हैं. दस मिनट की फिल्म 'बेस्ट गर्लफ्रेंड 'के बहाने  बदलाव और आधुनिकता व हिपोक्रेसी की परतें उधेड़ता ज्योति नंदा का यह आलेख आज काफी मौजूं लग रहा है..... प्रतिभा 

"किसी स्त्री का जीवन है, उसकी देह है, कोई और इसे लेकर क्यों जजमेंटल हो ?" 

दस मिनट की शार्ट फिल्म "बेस्ट गर्लफ्रेंड" देखने के बाद बेचैनी और कुछ सवालो ने ऐसा घेरा कि शब्दों से भेदने के सिवा दूसरा रास्ता नहीं बचा। अगर नहीं लिखती तो सवाल पूछने की जिम्मेदारी से बच निकलने वाले पाले में खुद को खड़ा पाती। फिल्म ने ऑनलाइन रिलीज़ मिलने के साथ लाखों दर्शक बटोर लिए। कुछ कहानियां क्लाइमेक्स के बाद एंटी क्लाइमेक्स पे ख़त्म होती है। या कहें कि वहीँ से शुरू होती हैं। विषय पे बहस, चर्चा और सवालों के मज़बूत सिरे उंगलियो में थमाकर।

"बेस्ट गर्लफ्रेंड कि सोना बड़े शहर की अच्छी लड़की जो अपने ब्वायफ़्रेंड के साथ रहती है। छुट्टी के दिन उसका पार्टनर उसे बड़े अधिकार से जगाता है यह कहकर की आज बाई नहीं आएगी। खुद डाइनिंग टेबिल पर बैठ कर चायनाश्ते का इंतज़ार करते हुए अखबार पढ़ने लगता है। वह उठती है और साथी के लिए मनपसंद लंच पकाने की तैयारी में जुट जाती है, क्योंकि कुछ घंटो बाद अपने पिता से मिलने दूसरे शहर चली जाती है। उसके बाद कहानी अंत की ओर बढ़ती प्रतीत होती है, जब फ़्लैट में अकेले रह गए साथी के दोस्त का प्रवेश होता है। दोस्त ऐसे लहज़े में उसे एस्कॉर्ट सेवा के जरिये रात बिताने के लिए राज़ी कर लेता है जैसे, यदि नायक ऐसा प्रस्ताव अस्वीकार करे तो उससे बड़ा बेवकूफ कोई नहीं, जैसे इसमें कौनसी बड़ी बात है। नायक का यह कहना कि "उसकी सेक्स लाइफ बहुत अच्छी है।" बावजूद इसके वह "मज़ा आएगा" प्रस्ताव को हाँ कर देता है। लगता है क्लाइमेक्स आया ही समझो, गर्लफ्रेंड का क्या रिएक्शन होगा जब उसे इस हरकत का पता चलेगा। लेकिन असली क्लाइमेक्स तब हुआ जब उन्हें मालूम हुआ कि सोना खुद एस्कॉर्ट है। यह उन्हें, उसी एस्कार्ट की सेवाए हासिल करने के दौरान पता चलता है। पासा पलट चुका है। कहानी का क्लाइमेक्स यही है।

यहीं बरबस याद आ जाती है अट्ठारह साल पुरानी 1997 में आई अभिनेत्री रेखा और ओमपुरी अभिनीत "आस्था" की।  तब भी क्लाइमेक्स यही था-- साधारण हाउस वाइफ का रिश्ते से बाहर  प्यार के लिए नहीं पैसे के लिए। तब वह एक बच्ची की माँ है। साडी पहने टूटे फूटे से आत्मविश्वास को समेटते,पति की आमदनी पर निर्भर हाउस वाइफ। जो बच्चे के लिए अच्छे जूते और पति के लिए हीरे की अंगूठी खरीदने की चाह मन में लिए एक रोज़ लड़खड़ाते कदमो से चल कर किसी कमरे में खुद को अजनबी के साथ पाती है। आज की सोना आत्मविश्वास से भरी है, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है। घर के काम भी संभालती है। "वीमेन ऑफ़ सब्स्टेंस" की परिभाषा को जीती हुयी सी दिखती है। बहस भी करती है "किसी स्त्री का जीवन है, उसकी देह है, कोई और इसे लेकर क्यों जजमेंटल हो ?"

जजमेंटल होना, वह भी स्त्रियों के प्रति, पितृसत्ता में पुरुषो का जन्मसिद्ध अधिकार है।

सारी गालियां जो एक पुरुष, दूसरे पुरुष को देता है, जिसका असर सबसे गहरा हो, वो माँ और बहनो के लिए होती है। किसी औरत के लिए सबसे गन्दी गाली उसका पर पुरुष सम्बन्ध यानि वेश्या हो जाना है। पुरुष के लिए परस्त्री गमन कोई नयी बात नहीं है। "गलती हो गयी","बहक गया था" ''जस्ट अ पासिंग अफेयर'' 'वन  नाइट स्टैंड' इन संवादों को हम सबने कितनी बार सुना है। ऐसे अंदाज़ में कि उसे माफ़ किया ही जाना चाहिए। यही मानसिकता सोना के ब्वायफ़्रेंड की भी दिखती है, दोस्त की ओर से आये हठात प्रस्ताव स्वीकारते समय। जैसे दोस्तों को अक्सर जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है बुरी लत के लिए। यही नायक कुछ देर पहले नायिका से अखबार की खबर के आधार पे किसी अभिनेत्री के एस्कॉर्ट हो जाने के कारणों पे चर्चा करते हुए तर्क रखता है कि "सिवाय एन्जॉयमेंट के इनकी क्या मज़बूरी होगी।" 
 
आस्था की रेखा को फ़िल्मकार कई तरह के कारणों मसलन उपभोक्ता वाद के शिकंजे में स्त्रियों का फसना तथा देह की अधूरी चाहतो को पूरा करने की इच्छा के बीच उलझा देते है। नवजोत गुलाटी की दस मिनट की फिल्म में किसी बौद्धिक बहस की गुंजाइश नहीं है। अट्ठारह सालो की यात्रा के बाद भी कहानी स्त्री देह के आस पास भटकती है। दो बाते दोनों में समान है। पहला क्लाइमेक्स --बहुत अच्छी लड़की और घरेलू औरत का वेश्या हो जाना। दूसरा नायको का एंटीक्लाइमेक्स -- पत्नी/गर्लफ्रेंड का सच पता चलने पर उनकी प्रतिक्रिया।
"आस्था" में ओमपुरी एक जहीन प्रोफ़ेसर है। पूर्ण बौद्धिकता के साथ पत्नी का सच स्वीकारना। "बेस्ट गर्लफ्रेंड" में लिवइन पार्टनर आखिरी दृश्य में साथी के घर लौटने के दृश्य में शराब पी रहा है। नज़रे उठाता है तो आँखे लाल है। यह समझ पाना जरा कठिन लगता है कि उसे दुःख है या गुस्सा, जिसे नशे में घोल के पी रहा है। या परिस्थितियों का आकलन कर अपनी गलती का अहसास है। आखिर का कन्फ्यूज़न दर्शको के कमेंट में भी साफ़ दिखाई देता है।
लड़की का फिर झूठ बोलना "वह उसे अगली बार पापा से जरूर मिलवायेगी।" और लड़के का सच बोलना कि उसकी माँ ने सोना को उसकी अब तक की बेस्ट गर्लफ्रेंड का ख़िताब दिया है। फिर लड़की का उसे देखते रह जाना। कहानी ख़त्म।

 मुझे दोनों के एंटीक्लाइमेक्स में एक किस्म की हिप्पोक्रेसी नज़र आती है । एक, बौद्धिक बहस में उलझाती हुयी स्त्री को अपराध बोध से ग्रसित करती है। दूसरी चालाकी से स्त्री पुरुष के रिश्तो में बढ़ते कैलकुलेशन का केवल आभास देते हुये स्त्री को "बुरी लड़की" के खांचे में खड़ा करती दिखती है। वर्ना फिल्म का शीर्षक "बेस्ट गर्लफ्रेंड" क्यों रखा जाता ?

जो नहीं बदला वो है, सवाल -- स्त्री का अपनी देह पर अधिकार है या नहीं?

Thursday, March 5, 2015

मछलियाँ


देह की नदी में
तैरती फिरती हैं

कामनाएं
इच्छाएं
मछलियों की मानिंद

रंग-बिरंगी मछलियाँ
नटखट शरारती
मछलियाँ

तुम्हें मछलियाँ बहुत पसंद हैं
मुझे भी

मुझे जिन्दा
तैरती मछलियाँ
तुम्हें भुनी हुई
लज़ीज़ मछलियाँ

प्यार से पाली पोसी
खूबसूरत मछलियाँ
तुम्हारी तृप्ति की खातिर
लज़ीज़ मछलियों में
तब्दील होकर
देह की तश्तरी में
सज जाती हैं

तुम तृप्त होते हो

मेरी देह
मछलियों की
शोकाकुल याद लिए
नींद की कब्र के बाहर
बरसती है आँखों से

ठीक उस वक़्त
जब नींद बरसती है
तुम्हारी देह पर.…

मछलियाँ तुम्हें भी पसंद हैं
और मुझे भी....